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ग़ज़ल
न रोता ज़ार ज़ार इतना न करता शोर-ओ-शर इतनाइलाही क्या करूँ दर्द-ए-जिगर इतना जिगर इतना
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
रो रो के ज़ार-ज़ार ये कहता है जान-ए-अब्रहो चश्म-ए-अश्क-बार पे ये साएबान-ए-अब्र
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
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नज़्म
आदमी-नामः
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ारसब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार
नज़ीर अकबराबादी
कलाम
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैंरोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जब से हुआ है वो बुत-ए-’अय्यार यार याररोता हूँ तब से बरसर-ए-बाज़ार ज़ार ज़ार
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
सूफ़ी लेख
हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब
आख़िर वक़्त में एक रोज़ मुरीदों को बुला कर नसीहतें कीं और उनमें से हर एक
सूफ़ीनामा आर्काइव
सूफ़ी लेख
हज़रत शैख़ बू-अ’ली शाह क़लंदर
लेकिन इस ज़ुहद-ओ-इ’बादत और सलामत-रवी के बावजूद वो एक मुसलमान हुक्मराँ के फ़राएज़ से ग़ाफ़िल नहीं
सूफ़ीनामा आर्काइव
मल्फ़ूज़
फिर ख़्वाजा क़ुतुबुल-इस्लाम ने ज़बान-ए-मुबारक से फ़रमाया कि दुनिया कैसी बेवफ़ा और मक्कार है।फिर फ़रमाया कि