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कलाम
माहिरुल क़ादरी
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ग़ज़ल
हरम और दैर की जब से परस्तिश छोड़ दी हम नेहर इक ज़र्रे में देखी सिर्फ़ तेरी रौशनी हम ने
अज़ीज़ वारसी देहलवी
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
अयाज़ वारसी
शे'र
माहिरुल क़ादरी
सूफ़ी कहानी
बादशाह का एक दरख़्त की तलाश करना कि जो उस का मेवा खाए वो ना मरे- दफ़्तर-ए-दोउम
एक अ’क़्ल-मंद ने क़िस्से के तौर पर बयान किया कि हिन्दोस्तान में एक दरख़्त है जो
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
पयाम सैहालवी
ग़ज़ल
क्या ख़ुद-परस्त-ओ-दैर-परस्त-ओ-ख़ुदा-परस्तजब ख़ूब देखिये तो ये सब हैं हवा-परस्त