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ना'त-ओ-मनक़बत
ज़ुल्फ़-ए-लैला-ए-दो-’आलम का जिसे सौदा नहींहै वो दीवाना ख़ुदा को उस ने पहचाना नहीं
अख़तर ख़ैराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
औघट शाह वारसी
दोहरा
माल मुल्क “शाहे-आलम” को दो, और ख़ज़ाने तुम्ही भरना
माल मुल्क “शाहे-आलम” को दो, और ख़ज़ाने तुम्ही भरनासैर करें अमराई तले तख छूटत चादर और झरना
शाह आलम सानी
ना'त-ओ-मनक़बत
वो सब रौशन-ज़मीरी में हुए यक्ता-ए-दो-आलमबुलंदी अर्श-ए-आ'ला की वो लै कर बर ज़मीं आए
हैरत शाह वारसी
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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
मंज़ूर आरफ़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
ग़रीबों का सहारा या मोहम्मद मुस्तफ़ा तुम होख़ुदा के दिल-रुबा हो बे-कसों का आसरा तुम हो
अज्ञात
ग़ज़ल
ग़नी है दिल दो-आलम से फ़राग़त उस को कहते हैंहै याद-ए-हक़ फ़क़त दिल में क़नाअत उस को कहते हैं
मरदान सफ़ी
सूफ़ी कहानी
एक बादशाह का दो नव ख़रीद ग़ुलामों का इम्तिहान लेना- दफ़्तर-ए-दोम
एक बादशाह ने दो ग़ुलाम सस्ते ख़रीदे। एक से बातचीत कर के उस को अ’क़्लमंद और
रूमी
सूफ़ी कहानी
डाकूओं का दो शख्सों में से एक को मार डालने का क़स्द करना- दफ़्तर-ए-दोउम
किसी जगह डाकू बड़े खूँरेज़ थे। एक गांव पर डाका-ज़नी के लिए आ पड़े। उस गांव
रूमी
ना'त-ओ-मनक़बत
दो-'आलम जिस का परतव है मुहिब्बो वो ज़मीं ये हैभरा करते थे दम जिस का सुलैमाँ वो नगीं ये है