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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ग़ज़ल
गए होश-ओ-ख़िरद इश्क़-ए-लब-ए-जाँ-बख़श-ए-जानाँ मेंक़यामत है हमारी नाव डूबी आब-ए-हैवाँ में
रज़ा फ़िरंगी महली
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ना'त-ओ-मनक़बत
कामिल शत्तारी
ना'त-ओ-मनक़बत
कामिल शत्तारी
शे'र
कामिल शत्तारी
ग़ज़ल
वो मक़ाम आख़िरश आ गया कि सबात-ए-होश में हम नहींजो कोई मिले तो ख़ुशी नहीं जो कोई छुटे तू अलम नहीं