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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
सानी-ए-बद्रुद्दुजा शेर-ए-ख़ुदा कुछ और हैरम्ज़-ए-इल्लल्लाह में मुश्किल-कुशा कुछ और है
रियाज़ अहमद
ना'त-ओ-मनक़बत
मिटाया अकबरी-फ़ित्ना मुजद्दिद-अलफ़-ए-सानी नेबजाया दीन का डंका मुजद्दिद-अलफ़-ए-सानी ने
रश्क फ़ारुक़ी
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गूजरी सूफ़ी काव्य
यूसुफ़ सानी
कान बाँधो इस क़िस्सा ऊपर तुमी,जो मुसलमान पाक हो सुनते हो तुमी।
मोहम्मद फ़तह
ना'त-ओ-मनक़बत
अमीर बख़्श साबरी
ना'त-ओ-मनक़बत
या मुस्तफ़ा नूर-उल-हुदा सानी तिरा कोई नहींशम्सुज़्ज़हा कोई नहीं बदरुद्दुजा कोई नहीं
फ़ना बुलंदशहरी
सूफ़ी लेख
तारीख़-ए-वफ़ात निज़ामी गंजवी
ब-हर कैफ़ अगर ये तहदिया सहीह हो तो भी यहाँ इ’ज़्ज़ुद्दीन मसऊ’द से मुराद पोता नहीं,
क़ाज़ी अहमद अख़्तर जूनागढ़ी
ग़ज़ल
कहे मा'बूद ख़ुद अपनी ज़बाँ से जिस को ला-सानीभला फिर अबद से क्या हो सके उस की सना-ख़्वानी
हशमत देहल्वी
ग़ज़ल
है कैसी रश्क फ़िरदौस-ए-बरीं ये बज़्म-ए-ला-सानीकि जिस पर कर रही है रहमत-ए-हक़ गौहर-अफ़्शानी
अब्दुल करीम मुज़तर
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी