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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
दोहरा
तलब तेरी थीं मुड़सां नाहीं जब लग मतलब होंदा
तलब तेरी थीं मुड़सां नाहीं जब लग मतलब होंदाया तन नाल तुसाडे मिलसी या रूह टुरसी रोंदा
मियां मोहम्मद बख़्श
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शे'र
ग़ैर मुँह तकता रहा मैं अर्ज़-ए-मतलब कर चुकामुझ से उन से आँखों आँखों में इशारः हो गया
संजर ग़ाज़ीपुरी
शे'र
जब इ’श्क़ आ’शिक़ बेबाक करे तब पावे अपने मतलब कोतन मन को मार के ख़ाक करे तब पावे अपने मतलब को
कवि दिलदार
पद
जब इश्क़ आशिक़ बेबाक करे तब पावे अपने मतलब को
जब इश्क़ आशिक़ बेबाक करे तब पावे अपने मतलब कोतन मन को मार के ख़ाक करे तब पावे अपने मतलब को
कवि दिलदार
ग़ज़ल
न है आग़ाज़ से मतलब न है अंजाम से कामन ग़रज़ सुब्ह से मुझ को न मुझे शाम से काम
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
ग़ज़ल
शहीद-ए-इ’श्क़-ए-मौला-ए-क़तील-ए-हुब्ब-ए-रहमानेजनाब-ए-ख़्वाजः क़ुतुबुद्दीं इमाम-ए-दीन-ओ-ईमाने
वाहिद बख़्श स्याल
सूफ़ी कहावत
रू-ए ज़ेबा मरहम-ए-दिलहा-ए-ख़स्ता अस्त-ओ-कलीद-ए-दरहा-ए-बस्ता
एक ख़ूबसूरत चेहरा दुखी दिलों के लिए मरहम की तरह होता है, और बंद दरवाजों के लिए कुंजी
वाचिक परंपरा
ना'त-ओ-मनक़बत
गुल-ए-बुस्तान-ए-मा'शूक़ी मह-ए-ताबान-ए-महबूबीनिज़ामुद्दीन सुल्तान-उल-मशाइख़ जान-ए-महबूबी