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गूजरी सूफ़ी काव्य
ज़ुलेख़ा का विलाप (यूसुफ़ की मौत पर)
कफ़न को सीवती हातों मनें ले,बैन पर झरती मीठे बोसे दे।
अमीन गुजराती
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ना'त-ओ-मनक़बत
नक़्श-पा-ए-सरवर-ए-कौनैन के बोसे लिएफ़िक्र को मिलती गई हर-हर क़दम रिफ़अ'त 'अजीब
डॉ. मंसूर फ़रिदी
ना'त-ओ-मनक़बत
नज़रों से लिए बोसे कभी होंटों से चूमाउस शहर की हर चीज़ मुझे ख़ूब लगी थी
अ'ब्दुल सत्तार नियाज़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
हर क़दम पर 'अर्श ने ना’लैन के बोसे लिए'अर्श को वो रात वो मंज़र सुहाना याद है
हुनर सिल्लोडी
ना'त-ओ-मनक़बत
इस ज़बाँ के शौक़ से लेता है बोसे जिब्रईलजिस ज़बाँ में उन की 'साजिद' गुफ़्तुगू रहने लगे
लतीफ़ साजिद चिशती
कलाम
जमा’अत की नमाज़ें और दर-ओ-दीवार के बोसेमिला रखी है रस्म-ए-मस्जिद-ओ-बुत-ख़ाना का’बे में