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महाकाव्य
।। रसप्रबोध ।।
जिती बढ़ति है लाज तिय तितो बढ़त पिय काम।।109।।।। मुग्धा का मुड़ कर बैठना ।।
रसलीन
काफी
मैं गल्ल ओथे दी करदा हाँ
जाँ मुड़ बैठां ताँ भज्जदा ऐ मुड़ मिन्नत-ज़ारी करदा हाँपर गल्ल करदा वी डरदा हाँ
बुल्ले शाह
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कविता
काफ़ी - आवो सखी सहेलियो मिल मसलत गोईए
इक इकली छड के मुड़ घर नूँ गईआंहुन क्यूँ के बैठ्यो गल पी प्यारे
बाबा फ़रीद
शे'र
राह में जन्नत 'हफ़ीज़' आवाज़ देती ही रहीहम ने मुड़ कर भी न देखा कर्बला जाते हुए
हफ़ीज़ फ़र्रूख़ाबादी
काफी
पड़तालिओ हुन आशक केहड़े
हीरे हो मुड़ राँझा होई इह गल्ल विरला जाने कोईचुक्क पए सभ झगड़े झेड़े पड़तालिओ हुन आशक केहड़े
बुल्ले शाह
काफी
से वणजारे आए नी माए से वणजारे आए
डम्ह कदी सूई दा ना सहआ सिर किथों दिता जाईलाज़म हो के मुड़ घर आई पुच्छन गवांढी आए
बुल्ले शाह
ग़ज़ल
सख़्त जाँ में और मिरे क़ातिल का नाज़ुक दस्त-ए-नाज़हाय उस पर धार मुड़ कर रह गई शमशीर की
नज़र भागलपूरी
दोहरा
सावन दी घट देख पपीहा
पर गरजन बरसन अज्ज वाला मुड़ हाथ न आवगु तैं नों'हाशम' कर एहसान मित्त्रां सिर अते कर सकना फेर कैं नों