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सूफ़ी लेख
सूफ़ी क़व्वाली में गागर
साक़िया मुर्शिद-ए-कामिल है हमारा रिंदोंमय-ए-वहदत से है लबरेज़ हमारी गागर
उमैर हुसामी
सूफ़ी लेख
हज़रत शाह वजीहुद्दीन अलवी गुजराती
’अर्श बर तरह कर्द अज़ हिम्मतबर सर-ए-क़ब्र-ए-मुर्शिद-ए-कामिल
मआरिफ़
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सलाम
सलाम ऐ मुर्शिद-ए-कामिल सलाम ऐ वारिस-ए-ज़ीशाँसलाम ऐ आरिफ़-ए-हक़-कोश क़ुदसी रश्क-ए-रिंदानः
महताब शाह वारसी
ग़ज़ल
इतना न फ़रेब-ए-उल्फ़त में ये जज़्बा-ए-कामिल आ जाएहर गाम क़रीब-ए-मंज़िल हो हर गाम पे मंज़िल आ जाए
क़ातिल अजमेरी
ना'त-ओ-मनक़बत
जिस से तू ख़ुश है मिरे मुर्शिद-ए-कामिल या ग़ौसउस से ख़ुश होता है अल्लाह ता'ला तेरा
उवेस रज़ा अम्बर
ग़ज़ल
मैं गो 'मज्ज़ूब' हूँ लेकिन ब-फ़ैज़-ए-मुर्शिद-ए-कामिलनज़र में राहज़न को रहनुमा-ए-सालिकाँ कर दूँ
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ना'त-ओ-मनक़बत
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
मिलते हैं 'अख़्तर' से ख़ुद ही माह-वश ज़ोहरा-जबींये करामत क्या नई उस मुर्शिद-ए-कामिल में है
अख़तर नगीनवी
बैत
गया से गया 'कामिल'-ए-ख़स्ता-जाँ
गया से गया 'कामिल'-ए-ख़स्ता-जाँजुनूँ की मगर दास्ताँ रह गई