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रेख़्ता
घर तज के जा जंगल में परी तब समझ परी
मौजों क्य फेर कों ज्व दिल-ए-ग़ैर बूझताजब सिंध के भँवर में परी तब समझ परी
बरकतुल्लाह पेमी
ना'त-ओ-मनक़बत
फँसी है कश्ती-ए-उम्मत तलातुम-ख़ेज़ मौजों मेंतुम्हारे जुज़ नहीं कोई निगहबाँ या रसूल-अल्लाह
अब्दुल हादी काविश
ग़ज़ल
शे'र क्या है चंद जज़्बाती तमव्वुज का मिलापशा'इरी क्या है उन्हें मौजों में बह जाने का नाम
तुरफ़ा क़ुरैशी
ना'त-ओ-मनक़बत
घर के मौजों में जो इक बार पुकारा या ग़ौसहम ने तूफ़ान से कश्ती को निकलते देखा
फ़ना बुलंदशहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
जो तेरी दस्त-गीरी ना-ख़ुदा बन कर सहारा देतो मौजों के तलातुम में भी कश्ती पार हो जाए