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कलाम
रूह-ए-रवाँ नग़्मा तुम नग़्मों का सोज़ साज़ मेंजान-ए-ख़याल-ओ-ख़्वाब तुम जान-ए-जहान-ए-नाज़ में
बह्ज़ाद लखनवी
ना'त-ओ-मनक़बत
बहार आ गई गुलज़ार-ए-फ़क़्र में तुझ सेतू अहल-ए-चिश्त की रूह-ए-रवाँ ग़रीब-नवाज़
पीर नसीरुद्दीन नसीर
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ना'त-ओ-मनक़बत
उख़ुव्वत के विलायत के इमामत के ख़िलाफ़त केहक़ीक़त में अगर देखा तो वो रूह-ए-रवाँ ठहरे
हैरत शाह वारसी
फ़ारसी कलाम
ऐ शाफ़े-ए'-तर दामनाँ-ओ- वै चारा-ए-दर्द-ए-निहाँजान-ए-दिल-ओ-रूह-ए-रवाँ या'नी शह-ए-अ'र्श आस्ताँ
अहमद रज़ा ख़ान
ग़ज़ल
अ’र्शी औरंगाबादी
सूफ़ी उद्धरण
इंसान दो दुनियाओं का मेल है, एक है "आलम-ए-ख़ल्क़" जिस से उसका बाहरी रूप जुड़ा है और दूसरा है "आलम-ए-अम्र" जिस से उस की रूह जुड़ी है।
शैख़ अहमद सरहिन्दी
ना'त-ओ-मनक़बत
वो रूह-ए-रवाँ हो कर वो जान-ए-जहाँ हो करकहते हैं हमें देखो तुम जान की आँखों से
ज़हीन शाह ताजी
फ़ारसी कलाम
नीस्त दर जान-ओ-दिलम जुज़ हुब्ब-ए-तु चीज़े दिगरबीनम अंदर जिस्म-ए-ख़ुद रूह-ए-रवाँ मौला-ए-रूम