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कलाम
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गईदिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शामधुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए-महताब से रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शे'र
फ़ना बुलंदशहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
नमाज़-ए-सुब्ह आती है न ज़िक्र-ए-शाम आता हैरह-ए-’इरफ़ान में 'इश्क़-ए-'अली ही काम आता है
अब्दुल हादी काविश
सूफ़ी शब्दावली
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
करता है वस्फ़-ए-शाह जो शाम-ओ-सहर दिमाग़नज़रों में अहल-ए-दिल की वो है मो'तबर दिमाग़