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नज़्म
।। शरद ऋतु ।।
सन्नाटा बाव का चलता हो तब देख बहारें जाड़े की।।3।।हो फ़र्श बिछा ग़ालीचों का और पर्दे छूटे हों आकर।
नज़ीर अकबराबादी
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कलाम
ये वीराना ये सन्नाटा ये वहशत-ख़ेज़ ख़ामोशीअ'ज़ीज़ों ने मिरी मय्यत को क्या समझा कहाँ रख दी