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ग़ज़ल
कुछ इस आलम में वो बे-पर्दः निकले सैर-ए-गुलशन कोकि नसरीं अपनी ख़ुश्बू रंग भोली नस्तरन अपना
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
'बेदार' सैर-ए-गुलशन क्यूँ-कर ख़ुश आवे मुझ कोजूँ लाला दाग़ है दिल यारों की फुर्क़तों से
मीर मोहम्मद बेदार
ग़ज़ल
सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गयाहर निहाल इस शर्म सीं जंगल का पाला हो गया
सिराज औरंगाबादी
शे'र
गुलशन-ए-जन्नत की क्या परवा है ऐ रिज़वाँ उन्हेंहैं जो मुश्ताक़-ए-बहिश्त-ए-जावेदान-ए-कू-ए-दोस्त
अमीर मीनाई
शे'र
गुलशन-ए-जन्नत की क्या परवा है ऐ रिज़वाँ उन्हेंहैं जो मुश्ताक़-ए-बहिश्त-ए-जावेदान-ए-कू-ए-दोस्त
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
परेशाँ क्यूँ न हो दुखता हुआ दिल सैर-ए-गुलशन सेकि अहल-ए-दर्द सुन सकते नहीं नाले अनादिल के