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ग़ज़ल
हयात-ए-'इश्क़ की ऐसी ही ज़ेबाई में जीते हैं
तिरे महजूर-ए-मश्क़-ए-आबला-पाई में जीते हैं
डॉ. मंसूर फ़रिदी
कलाम
फ़ना होना मोहब्बत में हयात-ए-जावेदानी है
किसी क़ातिल पे दम निकले तो लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी है
फ़ना लखनवी
ना'त-ओ-मनक़बत
हयात-अफ़्ज़ा निगार-ए-शहर-ए-सरकार-ए-मदीना है
सहाब-ए-रहमत-ए-बारी यहाँ हर दम बरसता है