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फ़ारसी कलाम
न-बाशद ख़ाली अज़ तू हेच-बज़्म-ओ-हेच-मय-ख़ानःज़े-तुस्त आबादी-ए-आ'लम-जहाँ बे-तुस्त वीरानः
शाह तुराब अली क़लंदर
शे'र
जिगर मुरादाबादी
कलाम
न होगी रज़्म अगर तो बज़्म वज्ह-ए-बरहमी होगीकिसी सूरत से हो दुनिया तो इक दिन ख़त्म ही होगी
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
पस-ए-पर्दा तुझे हर बज़्म में शामिल समझते हैंकोई महफ़िल हो हम उस को तिरी महफ़िल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
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ना'त-ओ-मनक़बत
सुख़नवर है वही जो बज़्म में है मद्ह-ख़्वाँ तेरावही अहल-ए-ज़बाँ है नाम ले जिस की ज़बाँ तेरा
आशिक़ अली नातिक़
ना'त-ओ-मनक़बत
शाहिद-ए-हक़ आ’रिफ़-ए-फ़ख़्र-ए-ज़मन की बज़्म हैहोशियार ऐ नुत्क़ ये 'ख़्वाजा-हसन' की बज़्म है
अज़ीज़ वारसी देहलवी
सूफ़ी शब्दावली
(हर्ष) ׃आध्यात्मिक प्रेम के फलस्वरूप जो आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसे ‘तरब’ कहते हैं.
ग़ज़ल
वही बज़्म है वही मय-कदा वही मय-कदा का मक़ाम हैमगर एक उन के न होने से न वो सुब्ह है न वो शाम है
अख़्तर महमूद वारसी
कलाम
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ' भी थी परवाना भीरात के आख़िर होते होते ख़त्म था ये अफ़्साना भी
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
ये सामान-ए-तरब या रब मुझे किस ढब मुहय्या होजुनूँ शोर-ओ-फ़ुग़ाँ 'उर्यां-तनी यसरिब का सहरा हो
शाह फ़ज़्ल-ए-रसूल बदायूँनी
ग़ज़ल
मिरे ग़म के लिए इस बज़्म में फ़ुर्सत कहाँ पैदायहाँ तो हो रही है दास्ताँ से दास्ताँ पैदा