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दोहा
संपति भरम गँवाइ कै हाथ रहत कछु नाहिं
संपति भरम गँवाइ कै हाथ रहत कछु नाहिं
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहिं माँहिं
रहीम
बैत
तिश्नगी का मिरी अब कौन भरम रक्खेगा
तिश्नगी का मिरी अब कौन भरम रक्खेगा
साक़ी खुलता है न रिंदों का दहन खुलता है
कामिलुल क़ादरी
शे'र
अब्दुल हादी काविश
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पद
अपनी समस्या- तेरे देव कमलापति सरन आया मुझ जनम संदेह भ्रम छेदि माया
तेरे देव कमलापति सरन आया मुझ जनम संदेह भ्रम छेदि माया
अति अपार संसार भवसागर जामे जनम मरना संदेह भारी
रैदास
ग़ज़ल
दैर-ओ-हरम के फेर में अपना भ्रम गँवाए क्यूँ
घर पे जो बे-नियाज़ हो दर पे किसी के जाए क्यूँ
शफ़क़ एमाद्पुरी
पद
भ्रम का ताला लगा महल रे प्रेम की कुंजी लगाव
भ्रम का ताला लगा महल रे प्रेम की कुंजी लगाव
कपट-किवड़िया खोल के रे यहि बिधि पिय को जगाव
कबीर
अरिल्ल
जाग्रत बुधि की वृत्ति भोग भ्रम रहत है
जाग्रत बुधि की वृत्ति भोग भ्रम रहत है
सुषुप्ति सुख को मूल ब्रह्मपद लहत है
स्वामी भगवानदास जी
दकनी सूफ़ी काव्य
भ्रम का परिणाम
काएँ रे मन विपिआ वन जाइ लै भूरे ठगमूरी षाइ
जैसे मीनु पानी महि रहै काल जाल की सुधि नहीं लहै