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शे'र
ये कह कर ख़ाना-ए-तुर्बत से हम मय-कश निकल भागेवो घर क्या ख़ाक पत्थर है जहाँ शीशे नहीं रहते
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
आज इक इक बादा-कश मसरूर मय-ख़ाने में हैताज़ा ताज़ा इसके उसके सब के पैमाने में है
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
मुसख़्ख़र कर चुका हर एक मय-कश को वक़ार अपनातिरी मस्ती पे सब्क़त ले गया साक़ी ख़ुमार अपना
मंज़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ख़ुद ही मैं साक़ी था ख़ुद मय-कश था ख़ुद ही जाम थाहाय वो दिन जब मिरे जल्वे थे तेरा बाम था
मयकश अकबराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
काश हम को भी मदीने के नज़ारे होतेदम निकलता तो मोहम्मद के द्वारे होते