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ग़ज़ल
ये हिज्र ये लम्हे फ़ुर्क़त के इस तौर हमें तड़पाएँ तोइस आग में जलते जलते हम ऐ यार कहीं जल जाएँ तो
सूफ़िया दीपिका कौसर
ग़ज़ल
तुरफ़ा क़ुरैशी
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
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ग़ज़ल
उसे बोसों से फ़ुर्सत है न उस को शिकवा-ए-ग़म हैबड़ी मुश्किल में हैं दोनों दहन तेरा ज़बाँ मेरी
काज़िम अ’ली बाग़
शे'र
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने कीचराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
अर्श गयावी
शे'र
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने कीचराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
अर्श गयावी
शे'र
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने कीचराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
अर्श गयावी
शे'र
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने कीचराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
अर्श गयावी
कलाम
हरम और दैर के कतबे वो देखे जिस को फ़ुर्सत हैयहाँ हद्द-ए-नज़र तक सिर्फ़ उ'न्वान-ए-मोहब्बत है