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कलाम
पीर नसीरुद्दीन नसीर
ग़ज़ल
बाग़-ओ-बहिश्त-ओ-हूर-ओ-जन्नत अबरारों को कीजिए इनायतहमें नहीं कुछ उस की ज़रूरत आप के हम दीवाने हैं
निसार अकबराबादी
ग़ज़ल
मिरी ता'रीफ़ की थी उस से बाज़ों ने सो वो सुन-करलगा कहने जो सुनते थे वो अपना आश्ना निकला