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कलाम
जमाल-ए-इब्तिदा बन कर जलाल-ए-इंतिहा होकरबशर दुनिया में आया मज़हर-ए-शान-ए-ख़ुदा होकर
तुरफ़ा क़ुरैशी
कलाम
इब्तिदा में हज़रत-ए-इंसान क्या था क्या हुआग़ौर कर ख़ुद को ज़रा पहचान क्या था क्या हुआ
अज़ीज़ुद्दीन रिज़वाँ क़ादरी
कलाम
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या हैकि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है
अल्लामा इक़बाल
कलाम
तिरी ज़ात की नहीं इब्तिदा तिरी हस्ती की नहीं इंतिहातिरे भेद का है यही पता तो जुदा नहीं में जुदा नहीं
ग़ौसी शाह
कलाम
इ'श्क़ की इब्तिदा भी तुम हुस्न की इंतिहा भी तुमरहने दो राज़ खुल गया बंदे भी तुम ख़ुदा भी तुम
बेदम शाह वारसी
कलाम
तिरी पहली नज़र की हश्र-सामानी मुसल्लम हैमगर दिल के फ़साना की यहीं से इब्तिदा क्यूँ हो