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कलाम
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह-ओ-दमनमुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन
अल्लामा इक़बाल
कलाम
इश्क़ में तेरे कोह-ए-ग़म सर पे लिया जो हो सो होऐश-ओ-निशात-ए-ज़िंदगी छोड़ दिया जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
कलाम
सुर्मा-ए-वह्दत जो खींचा इ'श्क़ ने आँखों के बीचजौन सा पत्थर नज़र आया वो कोह-ए-तूर था
ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़
कलाम
शबीह-ए-’आशिक़-ए-मुज़्तर को देख ऐ कोह-ए-रा’नाईअगर मंज़ूर है तुझ को तमाशा संग-ए-लर्ज़ां का
सय्यद अली केथ्ली
कलाम
मौज-ए-कुल्ज़ुम है यही कोह-ओ-बयाबाँ है यहीदुर्र-ए-यकता है यही ला'ल-ए-बदख़्शाँ है यही