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कलाम
आशिक़ इश्क़ माही दे कोलों फिरन हमेशा खीवे हूजींदे जान माही नूँ डित्ती दोहीं जहानीं जीवे हू
सुल्तान बाहू
कलाम
नसीब-ए-ज़ाइराँ बे-शक करामात-ओ-बुजु़र्गी हैहमेशा से शर्फ़ पाते रहे अस्लाफ़ का'बा में
हाजी वारिस अली शाह
कलाम
हाए किस वक़्त में ख़ालिक़ ने बनाया मुझ कोकि हमेशा ग़म-ए-फ़ुर्क़त में रुलाया मुझ को
मुज़्तर ख़ैराबादी
कलाम
झूट है सब तारीख़ हमेशा अपने को दोहराती हैअच्छा मेरा ख़्वाब-ए-जवानी थोड़ा सा दोहराए तो