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कलाम
ब्रिज नारायण चकबस्त
कलाम
ये है वो मक़ाम कि जिस जगह ये ‘अमीर’-ए-साबरी खो गयान रही है जल्वों की आरज़ू न ही जल्वा-गर की तलाश है
अमीर बख़्श साबरी
कलाम
इक जाम खनकता जाम कि साक़ी रात गुज़रने वाली हैइक होश-रुबा इनआ'म कि साक़ी रात गुज़रने वाली है
क़तील शिफ़ाई
कलाम
मोहम्मद सर से पा तक मज़हर-ए-हुस्न-ए-इलाही हैंकि आए दहर में तस्वीर-ए-सूरत आफ़रीं हो कर
बेदम शाह वारसी
कलाम
रोती है शबनम कि नैरंग-ए-जहाँ कुछ भी नहींहँस रहे हैं गुल कि रंग-ए-बोस्ताँ कुछ भी नहीं
शाह वारिस अली
कलाम
वो नए रंग जमाए हैं कि जी जानता हैलुत्फ़ वो 'इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है