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कलाम
काश हो तह-नशीं कभी 'क़ैस' दिल-ए-पुर-इज़्तिराबबहता ही जा रहा है ये बहर-ए-तख़य्युलात में
क़ैस जालंधरी
कलाम
तुर्बत-ए-क़ैस से आती है ये आवाज़ हुनूज़मेरे पहलू में जो ख़ाली है ये जा किस की है
मिर्ज़ा अश्क लखनवी
कलाम
ये किस बे-दर्द किस ज़ालिम पर अपना दम निकलता हैये रह रह कर कलेजा चुटकियों से कौन मलता है