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रिसाला-ए-हक़-नुमा

दारा शिकोह

रिसाला-ए-हक़-नुमा

दारा शिकोह

MORE BYदारा शिकोह

    रिसाला-ए-हक़-नुमा

    मुसन्निफ़

    दारा शुकोह

    तर्जुमा

    आ’दिल असीर देहलवी

    बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

    ‘हु-वलअव्वलु वल-आख़िरु वल-ज़ाहिरु वल-बातिनु’ ता’रीफ़ उस ज़ात की जो कि मौजूद-ए-मुतलक़ है और ना’त उस नबी कि जो कि मज़हर-ए-कुल और ख़लीफ़ा-ए-हक़ हैं और आप की आल और आप के के अस्हाब पर बेशुमार रहमतें नाज़िल हों।ज़्यादा मुनासिब और बेहतर यह है कि हम्द-ओ-नात के अदा करने की जुरअत' ना करूँ और उस बुलंद मआ’नी के बयान करने के लिए अपनी ज़बान ना खोलूँ क्योंकि इस बाब में जो कुछ भी लिखा जाएगा वह आरिफ़ों की नज़रों में नुक़्सान का बाइस हो सकता है। ‘ला अह्सी सनाअन अलैका अंता कमा अस्नैता अला नफ़्सिका’।

    अम्मा बाद: यार! जान लो कि इस हैकल-ए-जिस्मानी में हक़ीक़त-ए-इन्सानी का नुज़ूल इसलिए है कि जो अमानत उस के अंदर पोशीदा है वह कमाल तक पहुंच कर दुबारा अपने अस्ल से मिल जाए। इसलिए हर एक इन्सान पर लाज़िम है कि वह सई-ओ-कोशिश के साथ अपने आप को अबदी नुक़्सान से बचाए और वह्म के तअ'य्युनात से आज़ाद हो कर ख़ुद को अपनी अस्ल तक पहुँचाए और यह मुख़्तसर मुद्दत जो कि दो तवील और मुसलसल ला-मुतनाही मुद्दतों के दरम्यान वाक़े' हुई है, बेहूदा और बे-कार ना गुज़ारे ताकि हस्रत-ओ-निदामत-ए-अबदी और ज़ियान-ओ-नुक़सान-ए-सरमदी उस पर आइद ना हो और वह ज़मुरा-ए-‘उलाइका कल-अनआ’म बल हुम अज़ल्ल’ में ना रहे और वह इस्तिदाद जो कि हक़ जल्ला अ’ला ने अपनी तमाम मख़्लूक़ात में से ख़ास उस को इनायत कर के और ‘’लक़द कर्ममना बनी-आदम’ के शरफ़ से मुशर्रफ़ किया है,उस को ज़ाया ना करे। क्योंकि तमाम मख़्लूक़ात को अल्लाह ता'ला ने इन्सान के लिए और इन्सान को अपने लिए पैदा किया है। लिहाज़ा हर शख़्स को चाहिए कि वह तलब में रहे और उस की जुस्तुजू करता रहे क्योंकि जोइंदा ही याबिंदा होता है और किसी साहिब-ए-दिल तक अपने को पहुँचा कर नुक़्सान की ज़हमत और हिज्र की तकलीफ़ से रिहाई हासिल करे क्योंकि ख़ुदा का मिलना फ़क़्र पर मौक़ूफ़ है और जिस किसी ने फ़क़्र को नहीं पाया ख़ुदा को नहीं पाया जिस ने फ़क़्र को पाया ख़ुदा को पा लिया। अगरचे इस काम का दार-ओ-मदार और इस का हुसूल सई-ओ-कोशिश पर नहीं बल्कि ख़ुदा के फ़ज़्ल-ओ-करम पर मुनहसिर है :

    शे'र

    गरचे विसालश ना ब-गोशश देहंद

    आँ क़दर दिल कि तवानी ब-कोश

    (अगरचे कोशिश के ज़रीये उस का विसाल मुयस्सर नहीं होता फिर भी दिल जिस क़दर मुम्किन हो उस के विसाल की कोशिश करता रह)

    बहर-हाल उस की जनाब-ए-अक़्दस में रसाई के दो तरीक़े हैं जिन में से एक तरीक़ा तो उस के फ़ज़्ल-ओ-करम का है और यह वह यह है कि हक़ सुब्हानुहु ता’ला किसी फ़क़ीर के पास पहुँचा दे और वह मुर्शिद-ए-कामिल एक नज़र और तवज्जोह से तालिब का काम मुकम्मल कर दे और उस की आँखों से पर्दे उठा दे और ख़्वाब-ए-ग़फ़लत–ओ-पिनदार से बेदार कर के ब-ग़ैर रंज-ओ-मेहनत-ओ-रियाज़त और मुजाहिदे की सख़्ती के माशूक़-ए-हक़ीक़ी के जमाल का दीदार करा दे और उस को उस की ख़ुदी से छुड़ा कर ‘बे-यसमा बे-यूबसिर’ के मर्तबा तक पहुँचा दे ‘ज़ालिका फ़ज़्लुल्लाहि यूतिहि मय्याशाउ वल्लाहु ज़ुलफ़ज़्लिल अज़ीम’, दूसरा तरीक़ा मुजाहिदे और रियाज़त का है और वह इस तरह है कि ख़ुद लोगों के मुँह से सुने या बुज़ुर्गों के अक़्वाल में लिखा हुआ देखे क्योंकि बा’ज़ अफ़राद-ए-इन्सानी इस तरह भी वासिल हुए हैं और हक़ को जैसा कि मारिफ़त-ए-हक़ है, जान कर उस के हरीम-ए-वस्ल को समझ गए हैं और इस मा’ना में इस बड़े मर्तबा तक पहुंचने की आरज़ू तालिब के दिल में पैदा हो जाएगी और जुस्तुजू के रास्ते में मज़बूती से क़दम रख कर जद्द-ओ-जहद से ख़ुद को किसी मुर्शिद तक पहुँचाए और उस रास्ते को जिस पर इस क़ौम के वासिल गए हैं दरयाफ़्त करे और रियाज़त-ओ-मुजाहिदे की मशक़्क़त से काम ले और अगर उस के साथ फ़ज़्ल-ए-इलाही भी शामिल-ए-हाल हो तो हज़ार मेहनत-ओ-रन्ज के बाद उस को मुराद और मक़्सूद दिखाई देगा और अस्लाफ़ के तरीक़े की बरकत से अपनी आरज़ू से बहरा-मंद होगा। बहर-हाल दरगाह-ए-समदी का यह नियाज़-मंद मुहम्मद दाराशिकोह हनफ़ी क़ादरी उस ताइफ़ा में से है कि जिस को उस के फ़ज़्ल ‘युहिब्बुहुम’ के जज़्बे ने रियाज़त-ओ-मुजाहिदत के बग़ैर निगाह-ए-कामिल की तासीर से अपनी तरफ़ खींच लिया है और इनायत-ए-बे-निहायत से मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुँचा दिया है। चूँकि इस फ़क़ीर ने तजरीद और तफ़रीद के मरातिब और तौहीद-ओ-इरफ़ान के दक़ाइक़ को जैसा कि मा’रिफ़त का हक़ है एक एक कर के जान लिया और हासिल कर लिया है और अपने ज़माने के अक्सर औलिया की ख़िदमत की है, हर ज़माने में जिन की मिसाल नादिर है यह फ़क़ीर पहुँचा और सोहबत में रहा और उन की मुबारक साँसों से बहरा-मंद हुआ है। और तमाम अंबिया, औलिया के मुराद-मतलब को जैसा कि तहक़ीक़ से हासिल हुआ था, चाहता था कि एक किताब जो कि उन अज़ीज़ों के अहवाल-ओ-अस्मा पर मुश्तमिल हो तहरीर में लाऊँ। क्योंकि जुमा’ की रात माह-ए-रजबुल मुरज्जब सन एक हज़ार पचपन हिज्री में इस फ़क़ीर को एक ग़ैबी आवाज़ सुनाई दी कि औलिया-ए-ख़ुदा का सब से बेहतरीन सिलसिला-ए-आलीया-ओ-तरीक़ा-ए-सुन्निया, क़ादरिया है क्योंकि सरवर-ए-आ’लम, मफ़्ख़र-ए बनी-आदम, बादशाह-ए-अंबिया,मुर्शिद-ए-औलिया, मेह्र-ए-सिपह्र-ए-महबूबियत, मुख़ातिब ब-ख़िताब ‘लौलाका लमा अज़हरतिर रुबूबियह’, रसूलुस-सकलैन, सय्यदुल कौनैन, ख़ातिम-उल-मुरसलीन, महबूब-ए-रब्बुल आलमीन,अहमद-ए-मुज्तबा, मुहम्मद-ए-मुस्तफ़ा से आरिफ़ों के पेशवा और वासिलों के मुक़्तदा, बुरहान-ए-हक़ीक़त, बह्र-ए-मारि’फ़त, हादी-ए-अहलुल्लाह, जिन का क़ौल है ‘क़दमी हाज़िहि अ’ला रक़बति कुल्लि वलीइल्लाह’ शैख़-उल-इस्लाम,ख़लफ़-ए-सय्यदुल-अनाम, क़ुतुबुल-ख़ाफ़िक़ीन, ग़ौसुस-सक़लैन, अबू मुहम्मद हज़रत शाह मुहीउद्दीन अबदुलक़ादिर जीलानी अल-हसनी अल-हुसैनी रज़ी-अल्लाह अन्हु तक पहुँचा है। और आप से अशरफ़-ए-मशाइख़-ए-ज़माँ,अक़दम-ए-औलिया-ए-दौराँ, मख़्ज़न-ए-असरार-ए-ग़ैबी, मतराहुल-अनवार-ए-लारैबी, दाना-ए-दक़ाइक़-ए-इरफ़ाँ, वाक़िफ़-ए-असरार-ए-यज़्दाँ, दलील-ए-अहल-ए-हक़ीक़त, रहनुमा-ए-सालिकान-ए-तरीक़त, महरम-ए-हरीम-ए-जलाल, शाहिद-ए-बज़्म-ए-विसाल, आज़म-ए-औलिया-ए-रब्बानी, मुहीउद्दीन-ए-सानी पीर-ए-दस्तगीर शैख़ मीर और आप से बिला-वास्ता मुंतक़िल हो कर शाह-ए-मुहक़क़िक़ान, सुल्तान-ए-अह्ल-ए-इर्फ़ाँ, मुसतग़रक़-ए-बह्र-ए-तौहीद, सय्याह-ए-बादिया-ए-तफ़रीद-ओ-तजरीद, सालिक-ए-तरीक़-ए-लिक़ा, वाक़िफ़ मवाक़िफ़-ए-फ़ना-ओ-बक़ा, महरम-ए-हरीम यज़्दानी, गंजूर-ए-तौहीद-ए-रब्बानी, दाना-ए-असरार-ए-वहदत, मुनज़्ज़ह अज़ आफ़ात-ए-कसरत, उस्तादी-ओ-इस्तिफ़ादी मौलाइ-ओ-मुर्शिद हज़रत मौलाना शाह सल्लामाहुल्लाहु अबक़ाहु और आप से बिला-वास्ता इस राक़िमुल-हुरूफ़ तक पहुँचा और उसी रात यह रिसाला लिखने पर मामूर हुआ जिस में तालिबान-ए-तरीक़-ए-हुदा को राह-ए-ख़ुदा दिखाने का बयान है। और चूँकि मेरा तमाम तसानीफ़ में यह तरीक़ा था कि क़ुरआन-ए-मजीद से फ़ाल निकाल कर इशारा-ए-इलाही के मुताबिक़ नाम रखा करता था और इस रिसाला का नाम दिल में हक़-नुमा गुज़रा था। फ़ाल निकालने के बाद यह आयत-ए-करीमा बर-आमद हुई जो कि इस किताब की हक़-नुमाई और बुज़ुर्गी पर दलालत करती थी।‘व-लक़द आतैना मूसा अल-किताबा मिम बा’दि मा अह्लक्ना अलक़ुरुनुल उला बसाइरा लिन्नासि हुदन रहमातन यतज़क्कारुन’ चूँकि इस आयत-ए-करीमा के मा’नी को उस नाम से मुकम्मल मुनासबत थी। लिहाज़ा इस रिसाला-ए-शरीफा का नाम हक़-नुमा रखा।

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    ख़्वाही कि दिलत ज़े वस्ल गर्दद गुलशन

    ख़ुद रा तौबा जुस्तुजू-ए-दिलबर अफ़्गन

    ज़ाँ क़िबला-नुमा चू क़िबला दर मी याबन्द

    दर-याब ज़े हक़-नुमाए हक़ रा रौशन

    (अगर तू यह चाहता है कि तेरा दिल महबूब के विसाल से गुलज़ार बन जाये तो मुकम्मल जमइयत-ए-दिल के साथ महबूब की जुस्तुजू में लग जा। जिस तरह क़ुतबनुमा से रहनुमाई हासिल कर के मंज़िल तक पहुँचा जाता है। यह रिसाला हक़-नुमा भी वाज़िह तौर पर एक क़ुतबनुमा की मानिंद है जिस से तू अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद तक पहुंच सकता है।)

    और अगर कोई शख़्स मुर्शिद-ए-कामिल की सोहबत के शरफ़ से तकमील को ना पहुँचा हो और उस को कामिल की शनाख़्त ना हो, तो वह इस रिसाला को पढ़े और तफ़क्कुर-ओ-तदब्बुर की नज़र से देखे और अव्वल से आख़िर तक एक एक लफ़्ज़ पर अ’मल करे। उमीद है कि मतालिब को समझ कर मशरब-ए-साफ़ी-ए-तौहीद से बहरा-मंद होगा जो कि कमाल-ए-इन्सानी का इरफ़ान है और जिन मतालिब से बुज़ुर्गों की किताबों के औराक़ भरे हुए हैं और समझ में नहीं आते हैं उन को भी यह ब-ख़ूबी समझ लेगा। ख़ुलासा यह कि फ़ुतूहात-ए-फ़ुसूस –ओर-सवानेह-ओ-लवाइह-ए-लमआ’त व-लावामे’ और तसव्वुफ़ की दीगर तमाम किताबों को समझ लेगा।

    रुबाई:

    तू बातिन-ए-शरा’ गर दानी, ब-ख़ुसूस

    हम न-कुनी नज़र तू बर नक़्द-ए-नुसूस

    यक दाँ मदाँ तू ग़ैर-ए-दर दो-जहाँ

    इन अस्त हक़ीक़त-ए-फ़ुतूहात फ़ुसूस

    (अगर तू शरा’ की माहीयत से ख़ुसूसी तौर पर आगाह नहीं है तो भी तेरी नज़र नक़ली क़ानून पर नहीं होनी चाहिए। क्योंकि ख़ुदा वाहिद है औरदोनों आलमों में उस के अ’लावा कुछ नहीं है और यही हक़ीक़त फ़ुतूहात फ़ुसूस में है।)

    जानना चाहिए कि जो कुछ इस रिसाला में लिखा गया है वह तमाम औज़ा-ओ-अतवार-ओ-नशिस्त-ओ-बर्ख़ासत-ओ-आ’माल-ओ-अशग़ाल सय्यदुल-मुर्सलीन के हैं और उन से सर-ए-मू तफ़ाववुत-ओ-तजावुज़ नहीं किया गया है लिहाज़ा अगर किसी ख़ुदा रसीदा शख़्स की नज़र से यह रिसाला गुज़रे तो वह इन्साफ़ करे कि इस हक़ीर को अल्लाह ता’ला ने किस क़दर फ़त्हुल्बाब से नवाज़ा है और इस लिबास में होने के बावजूद फ़क़्र-ओ-इरफ़ान के दरवाज़े खोल दिए हैं ताकि दुनिया वालों पर वाज़िह हो जाए कि उस का फ़ज़्ल बे-इल्लत है और वह जिस को चाहता है ख़्वाह वह किसी लिबास में हो उसे अपनी तरफ़ खींच लेता है और यह वह दौलत नहीं है जो हर शख़्स को मिल जाए बल्कि उस की दरगाह के ख़ास नियाज़-मंदों के लिए मख़्सूस है। चुनांचे अय्याम-ए-जवानी के आग़ाज़ में एक रात मैं ने ख़्वाब देखा और मुझे एक ग़ैबी आवाज़ सुनाई दी और चार बार उस आवाज़ को दुहराया गया कि जो चख रू-ए-ज़मीन के बादशाहों को नहीं दिया गया वह तुझ को अर्ज़ां कर दिया गया है। बे-दारी के बाद उस को मैं ने इरफ़ान से ता’बीर किया और उस दौलत का इंतिज़ार करने लगा यहाँ तक कि उस के आसार ज़ाहिर होने लगे और रोज़ ब-रोज़ उस के मुशाहिदा का नतीजा सामने आने लगा और जिन दिनों तलब का दर्द दामन-गीर था ताईफ़ा के साथ कमाल-ए-अक़ीदत दुरुस्त किए हुए था और इस दौरान एक किताब इस ताईफ़ा-ए-आ’लीया के सिनेन-ओ-उम्र और मौलिद-ओ-मस्कन के अहवाल-ओ-मक़ामात के बयान में तहरीर की और उस का नाम सफ़ीनातुल-औलिया रखा।

    बा’द अज़ाँ जब इरादत के शरफ़ से मुशर्रफ़ हुआ और उस ताईफ़ा के अत्वार-ओ-सुलूक-ओ-मक़ामात से वाक़िफ़ हुआ तो एक दूसरी किताब अपने मशाइख़ के अत्वार-ओ-मक़ामात-ओ-करामात-ओ-फ़वाइद के निकात पर मुश्तमिल लिखी और उस का नाम सकीनातुल-औलिया रखा और इस वक़्त चूँकि अल्लाह ने तौहीद-ओ-इरफ़ान के दरवाज़े मेरे दिल पर खोल दिए हैं और अपने ख़ास फ़ुतूहात-ओ-फ़ुयूज़ात से नवाज़ा है लिहाज़ा वह सब इस रिसाला में तहरीर किए जाते हैं।‘इन्ना फ़ी ज़ालिका ल-रहमातन ज़िकरा लिक़ौमिन यूमिनून’

    इस सिलसिला-ए-आ’लिया में बर-ख़िलाफ़ दूसरे सिलसिलों के रंज और मशक़्क़त नहीं है।

    शे’र:

    रियाज़त नीस्त पेश-ए-मा हम: लुत्फ़ अस्त-ओ-बख़्शाईश

    हम: मेह्र अस्त-ओ-दिलदारी हम: ऐश अस्त-ओ-आसाईश

    (इस में रियाज़त-ओ-मशक़्क़त यानी तर्क अल-ज़ात नहीं बल्कि हर तरह लुत्फ़ है,उता है, मुहब्बत है, दिलदारी है और ऐश-ओ-आराम है।)

    इब्न-ए-अ’ता रहमातुल्लाह फ़रमाते हैं: ‘शैख़ुका मन यदुल्लुका अला राहातिका ला मन यदुल्लूका अला ता’बिका; यानी तेरा शैख़ वह है जो तुझे ब-ग़ैर मशक़्क़त के ख़ुदा तक पहुँचाए वह नहीं जो रंज-ओ-मशक़्क़त से पहुँचाए।

    मौलाना जलाल उद्दीन रहमातुल्लाह फ़रमाते हैं:

    ज़े चनदीं रह ब-मेहमानेत आवर्द

    न-यावरदत बराए इंतिक़ाम-ए-उ

    (उस ने तुझे इस राह से इसलिए गुज़ारा है कि एक मेहमान की तरह तेरा इस्तिक़बाल करे। इसलिए नहीं कि एक मुजरिम की तरह सज़ा दे।)

    यार: फ़क़ीरों के तरीक़ा में मुरीद लफ़्ज़ का इतलाक़ मुरीदों पर नहीं करते बल्कि गुफ़्तुगू में लफ़्ज़-ए-यार से ता’बीर करते हैं क्योंकि हमारे पैग़म्बर के ज़माने में भी अस्हाब यार कहते थे।और पीरी-ओ-मुरीदी का लफ़्ज़ बीच में नहीं था। इसलिए हर जगह इस किताब में जहाँ लफ़्ज़ यार होगा उस से मुराद तालिब होगा। बयान: जान लो कि इस रिसाला की बुनियाद चार फस्लों पर है और हर फ़स्ल में चार आ’लमों में से एक आ’लम का बयान होगा।

    फ़स्ल-ए-अव्वल

    आ’लम-ए-नासूत का बयान:-आ’लम-ए-नासूत से यही आ’लम-ए-महसूस इबारत है। बा’ज़ लोग इस को आ’लम-ए-शहादत-ओ-आ’लम-ए-मुल्क-ओ-आ’लम-ए-पिंदार-ओ-आ’लम-ए-बेदारी भी कहते हैं। मर्तबा-ए-हज़रत-ए-वजूद की इंतिहा और कमाल-ए-लज़्ज़त इसी आ’लम में है। यार! जब किसी दर्द-मंद को इस आ’लम-ए-नासूत में तलब-ए-हक़ की ख़्वाहिश हो तो सब से पहले उसे किसी गोशा-ए-तन्हाई में जा कर उस फ़क़ीर को सूरत का तसव्वुर करना चाहिए जिस के साथ हुस्न-ए-ज़न रखता है या उस का तसव्वुर करे जिस के साथ इशक़ का राबिता है।

    तसव्वुर का तरीक़ा यह है कि आँखें बंद कर के दिल से तवज्जोह करे और दिल की आँख से मुशाहिदा करे। यार! उस फ़क़ीर के नज़दीक दिल का मक़ाम तीन जगहों पर है। एक सीने के अंदर बाएं पिस्तान के नीचे है जिस को दिल-ए-सनोबरी कहते हैं क्योंकि उस की सूरत-ओ-शक्ल सनोबर की तरह होती है और दिल इंसान और हैवान दोनों के पास होता है।

    शे’र:

    आँचे ब-सूरत-ए-दिल-ए-इंसान बुवद

    बर दर-ए-क़स्साब फ़रावान बुवद

    (गोश्त और ख़ून से बने हुए दिल क़स्साब की दुकान पर बे-शुमार मिल जाऐंगे इसलिए कि यह हर जानदार के पास होता है।)

    लेकिन यहाँ ख़ास इन्सानों के दिल से मुराद है।

    दूसरा दिल उम्मुद्दिमाग़ में है और उस को दिल-ए-मुदव्वर और दिल-ए-बेरंग भी कहते हैं और उस की ख़ासियत यह है कि जब भी कोई फ़क़ीर उस दिल की तरफ़ मुतवज्जिह होता है तो हरगिज़ कोई ख़तरा सामने नहीं आता क्योंकि किसी क़िस्म के ख़तरे का यहाँ गुज़र नहीं है।

    दीगर वह दिल है जो नशिस्त-गाह के दरम्यान वाक़े’ है और उस को दिल-ए-नीलोफ़री कहते हैं और जो तवज्जोह, तसव्वुर के बारे में मज़कूर हुई है वह दिल-ए-सनोबरी के मुताअल्लिक़ है और जिन मिसाली सूरतों को तसव्वुर में दिल की आँख से मुशाहिदा करते हैं उन को आ’लम-ए-मिसाल कहते हैं। आ’लम-ए-मिसाल दाख़िल-ए-मलकूत है। यार! जब भी मज़कूरा तरीक़े से तसव्वुर करेगा तो रफ़्ता-रफ़्ता सूरत-ओ-मुतासव्विर दुरुस्त होंगे और यह आ’लम-ए-मलकूत की फ़त्ह का बाइस होगा और जब यह सूरत तेरी नज़रों में अच्छी तरह आने लगे तो आ’लम-ए-मिसाल की फ़त्ह तुझे मुबारक हो और जब इस अ’मल को कसरत से करेगा तो कोई पोशीदा सूरत तुझ से मख़्फ़ी नहीं रहेगी।

    फ़स्ल-ए-दोउम:

    आ’लम-ए-मलकूत का बयान : इस आ’लम को आ’लम-ए-अर्वाह-ओ-आ’लम-ए-ग़ैब-ओ-आ’लम-ए-लतीफ़-ओ-आ’लम-ए-ख़्वाब भी कहते हैं। आ’लम-ए-नासूत की सूरत फ़ना-पज़ीर है लेकिन आ’लम-ए-मलकूत की सूरत जो कि नासूत की असली सूरत है कभी फ़ना नहीं होती बल्कि हमेशा बाक़ी रहती है:

    फ़र्द:

    मी-दानी ख़्वाब चीस्त मरगीस्त सुबुक

    मी-दानी मर्ग चीस्त ख़्वाबीस्त गिराँ

    (क्या तू जानता है कि नींद क्या है ? यह मौत के मानिंद है। और क्या तू जानता है कि मौत क्या है ? यह एक गहरी नींद है।)

    यार! दर्ज बाला आ’लम-ए-मिसाल आ’लम-ए-मलकूत की कलीद है और सूरत-ए-मिसाल, जो आँखें बंद करने के बाद दिखाई देती है उस से मुराद सूरत की रूह है जिस्म नहीं। लिहाज़ा ज़ाहिर हुआ कि लोगों की अर्वाह की वही सूरत जो आ’लम-ए-शहादत में ब-ग़ैर जिस्म के मौजूद है वह निगाहों में हर वक़त हाज़िर हो सकती है। जब कोई शख़्स सो जाता है तो ख़्वाह वह आगाह हो या ग़ाफ़िल हो उस की रूह, आँख, कान, ज़बान तमाम हवास वार बातिनी क़ुव्वतों के साथ ब-ग़ैर वसीले के ज़ाहिरी-ओ-जिस्मानी हवास और क़ुव्वतों की लताफ़त के साथ आ’लम-ए-मलकूत की सैर करती है। और जिस शख़्स के दिल को लताफ़त-ओ-आगाही हासिल है वह आ’लम-ए-मलकूत में अच्छी आवाज़ें सुनता है और लतीफ़ सूरतों देखता है और महज़ूज़ होता है और जिस शख़्स का दिल कसाफ़त और ग़लफ़त के बोझ में दबा हुआ है वह बुरी शक्लें देखता है और सख़्त ख़ौफ़नाक आवाज़ें सुनता है और जो कुछ आ’लम-ए-नासूत में क़ैद है उसी का मुशाहिदा करता है और बद-मज़ा होता है। पस बा’ज़ अश्ग़ाल जिन का ज़िक्र किया जाएगा अगर तू उन पर अ’मल करेगा तो तेरे दिल का ज़ंग दूर होगा और आईना-ए-दिल रौशन हो जाएगा और अंबिया-ओ-औलिया-ओ-मलाइका की सूरतें उस में मुनअ'किस होंगी और तेरे मुर्शिद की सूरत और पैग़म्बर और आप के अस्हाब-ए-किबार–ओ-औलिया-ए-आ’ली मिक़्दार दिखाई देंगे और जिस मुश्किल का भी सवाल उन सूरतों से ज़बान-ए-दिल और लिसान-ए-हाल से करेगा और जवाब मिलेगा और तेरे दल के यक़ीन में इज़ाफ़ा होगा और तुझे आ’लम-ए-मलकूत में मुकम्मल इत्मिनान हासिल होगा और जब पैग़म्बर की सूरत देखे तो तहक़ीक़ और यक़ीन के साथ जान ले कि आप ही को देखा है क्योंकि हदीस-ए-सहीह-ए-नबवी है कि 'मन रआनी फ़क़द रआनी फ़इन्नश-शैताना ला यतमस्सलु बी’ या’नी जिस शख़्स ने मुझ को ख़्वाब में देखा बे-शक उस ने मुझ को देखा क्योंकि शैतान की यह ताक़त नहीं कि वह मेरी शक्ल-ओ-सूरत इख़्तियार करे और यह हदीस आ’लम-ए-मलकूत में देखने के बारे में है। जब इन्सान की तबीअ'त इरफ़ान के हिज्र से कसाफ़त की तरफ़ माइल होती है तो लताफ़त उस से दूर हो जाती है। पस आ’लम-ए-मलकूत इसलिए है कि इन्सान की रहनुमाई लताफ़त की तरफ़ करे और वह पहचान ले कि उस की अस्ल लतीफ़ है जो कसाफ़त से मग़्लूब हो गई है क्योंकि सोहबत-ए-बदन अगर रूह पर ग़ालिब जाए तो रूह सोहबत-ए-बदन से, बदन के मानिंद हो जाती है और अगर सोहबत-ए-रूह बदन पर ग़ालिब जाए तो बदन भी लताफ़त इख़्तियार कर लेता है। चुनांचे रूह की सोहबत ने सरवर-ए-आ’लम के बदन पर ग़लबा हासिल कर लिया था और कमाल-ए-लताफ़त हासिल कर ली थी। इसीलिए आप के जिस्म-ए-मुबारक पर मक्खी नहीं बैठती थी और आप का साया ज़मीन पर नहीं पड़ता था। चूँकि रूह हवा से भी ज़्यादा लतीफ़ है और उस को कोई हिजाब और माने’ नहीं तो क्या अ'जब है कि आँ हज़रत की मा'रिफ़त जिस्म के साथ हुई हो और ईसा अलैहिस-सलाम जिस्म के साथ आसमान पर हों। ‘अर्वाहुना अजसादुना-ओ-अजसादुना अर्वाहुना, पस यार! जब तू उस आ’लम-ए-मिसाल से आ’लम-ए-मलकूत में गया और जान लिया कि नेक और बद रुहें तुझे नज़र आने लगी हैं और मलाइका की सूरतें भी रूहों की मानिंद दिखाई देने लगी हैं तो लाज़िम है कि कुछ वक़्त के लिए उस तवज्जोह को हाथ से ना जाने दे ताकि आ’लम-ए-लताफ़त की हक़ीक़त जो कि अस्ल आ’लम है और यह आ’लम-ए-मिसाल उस का साया है वह तुझ पर ख़ूब रौशन हो जाएगी और जो चाहे वहाँ मुशाहिदा कर ले और जब आलम-ए-लताफ़त से निस्बत हासिल हो गई तो तुझे आ’लम-ए-मलकूत की फ़त्ह मुबारक हो लेकिन अस्ल काम कुछ और ही है लिहाज़ा इस आ’लम में नहीं रहना चाहीए और अपने आप को इस भंवर में ना फंसने दे और देखने पर ही क़नाअ'त करे और आलम-ए-सूरत को दिल ना दे कश्फ़-ओ-करामात की ख़्वाहिश ना करे क्योंकि इस आ’लम में कश्फ़-ओ-करामात की कसरत है। एक दफ़ा' हज़रत मियाँ मीर की चश्म-ए-मुबारक की पलक पर दाना निकल आया जिस से आप सख़्त तकलीफ़ में थे। जर्राह को तलब कर के उस से ईलाज के बारे में दरयाफ़्त किया।

    उस ने कहा इस को चाक करना पड़ेगा। मियाँ नत्था जो कि आप के बा-कमाल मुरीदों में से थे उन्हों ने कहा कि ज़रा तवक़्क़ुफ़ कीजिए और आलम-ए-मलकूत की तरफ़ तवज्जोह की। एक शख़्स को उस आ’लम में देखा। उस से पूछा कि मियाँ जियो की चश्म-ए-मुबारक की पलक पर जो दाना निकल आया है उस का ईलाज क्या है ? उस शख़्स ने कहा तुख़्म-ए-ख़ियार घिस कर उस पर लगा दें। मियाँ नत्था ने आँखें खोल कर कहा कि मियाँ जियो की आँख की पलक के दाना को चाक ना करें बल्कि उस पर तुख़्म-ए-ख़ियार लगा दें। उसी वक़्त तुख़्म-ए-ख़ियार घिस कर लगाया गया तो फ़ौरन सेहत हासिल हो गई।

    हाज़िरीन-ए-मज्लिस में से एक शख़्स ने मियाँ जियो से दरयाफ़्त किया क्या मियाँ नत्था आँखों के ईलाज से वाक़िफ़ हैं। फ़रमाया: नहीं लेकिन आ’लम-ए-मलकूत में दवाएं मौजूद हैं। उस आ’लम में तवज्जोह कर के यह ईलाज किया है। जो कुछ मलकूत में मौजूद साहिब-ए-दिल कहते हैं बे-शक वही हो जाता है।

    उस शख़्स ने पूछा: क्या हज़रत मियाँ जियो को आ’लम-ए-मलकूत में तसर्रुफ़ हासिल नहीं जो इस दवा को मियाँ नत्था से मा’लूम किया?

    मियाँ जियो ने फ़रमाया: मैं आ’लम-ए-मलकूत से आगे गुज़र चुका हूँ। उस आ’लम में तवज्जोह करना मेरे लिए तनज़्ज़ुल है।

    पस यार! बहुत से फ़ुक़रा आ’लम-ए-मलकूत में मह्जूब–ए-करामत हो कर अस्ल मक़्सद से दूर हो गए हैं। लेकिन यह नहीं कि इस आ’लम में आए नहीं बल्कि यहाँ आराम से रह ना जाए। क्योंकि यह आ’लम औलिया-ए-ख़ुदा की गुज़रगाह है और सालिक को इस जगह से उबूर करना लाज़िम है लेकिन इल्तिफ़ात नहीं करना चाहिए और ताख़ीर भी ना करे वर्ना सद्द-ए-राह का बाइस होगा। फ़क़ीरों के इस तरीक़ा में आ’लम-ए-मलकूत की फ़त्ह अहल-ए-सुलूक के लिए एक बड़ी फ़त्ह है और यह तरीक़ा हज़रत ग़ौसुस-सक़लैन रज़ीअल्लाहु तआ’ला अनहु से है। चुनांचे हज़रत शैख़ अबू अ’मर सरीफ़ी से मनक़ूल है, कि जब मैं सय्यदुल-आरिफ़ीन ग़ौसुल आ’ज़म रज़ीअल्लाहु अनहु की ख़िदमत में पहुँचा तो आप ने एक कुलाह मेरे सर पर रखी। उस की ख़ुशी और ठंडक मेरे दिमाग़ में पहुंची और दिमाग़ से दिल में और आ’लम-ए-मलकूत मुझ पर ज़ाहिर हो गया। मैं ने सुना कि दुनिया और जो कुछ दुनिया में है वह मुख़्तलिफ़ ज़बानों में और मुख़्तलिफ़ तक़्दीस के तरीक़ों से अल्लाह तआ’ला की तस्बीह में मशग़ूल है। क़रीब था कि मेरी अक़्ल ज़ाइल हो जाए कि शैख़ ने रुई का टुकड़ा जो कि आप के हाथ में था मेरे कान में लगा दिया जिस से मेरी अक़्ल बर-क़रार रही।

    यार! पस जब आ’लम-ए-मिसाल–ओ-मलकुत पर तुझे फ़त्ह हासि हो गई तो कुछ अर्सा तक इस सिलसिला के बा'ज़ अश्ग़ाल पर भी अ'मल जारी रख ता कि तेरे दिल को रौशनी और सफ़ाई हासिल हो जाए और जो ज़ंग तेरे दिल के आईना पर लगा है वह दूर हो जाएगा और उस के अंदर हर तरफ़ जमाल-ए-यार का मुशाहिदा होने लगेगा क्योंकि दिल को अर्शुर-रहमान कहते हैं इस मा’नी में कि हक़ीक़त-ए-ज़ात वहीं से ज़ाहिर होती है और परेशान हवास उस की तवज्जोह से मुजतमा' हो जाते हैं। हज़रत मियां जियो ने अपने बा'ज़ मुरीदों से फ़रमाया :इस्म-ए-अल्लाह को ब-ग़ैर हरकत-ए-ज़बान के आहिस्ता-आहिस्ता दिल ही दिल में कहते रहो और उस इस्म-ए-मुबारक को मज़कूरा तरीक़े के मुताबिक़ कसरत से कहने पर यह हाल हो जाता है कि ख़्वाब में भी दिल को आगाही रहती है।

    यार! यह इस्म बहुत ही बुज़ुर्ग है। शामिल-ए-कुफ़्र-ओ-इस्लाम है और जामेअ’-ए-जमीअ’-ए-अस्मा है। कोई चीज़ इस इस्म से बाहर नहीं और इस इस्म-ए-आज़म के यह मा’ना हैं कि वह तीन सिफ़ात का मालिक है।सिफ़त-ए-ईजाद, सिफ़त इब्क़ा, सिफ़त-ए-फ़ना और तमाम मख़्लूक़ात-ओ-ज़र्रात-ओ-मौजूदात इन तीन सिफ़ात से बाहर नहीं हैं लेकिन इस इस्म-ए-आज़म के इस राज़ के मा’नी से बा’ज़ अकमल-ए-मशाइख़ के सिवा कोई वाक़िफ़ नहीं है और इस शुग़्ल का जो उमदा तरीक़ा इस फ़क़ीर ने इख़्तियार कर रखा है यह इस के ब-ग़ैर नहीं हो सकता। हर शख़्स को इस पर अ’मल करना चाहिए। इस से उम्दा फ़ुतूहात हासिल होती हैं और वह शुग़्ल हब्स-ए-नफ़्स है और इस का तरीक़ा यह है कि ख़ल्वत के तरीक़े से बैठे जो कि रसूलुल्लाह के बैठने का तरीक़ा है और इह्तिबा हाथ से ना करे बल्कि रस्सी या चादर के साथ करे और दोनों हाथों की कुहनीयाँ दोनों रानों के सिरों पर रख कर दोनों अंगूठों से कानों के सुराख़ बंद कर ले ताकि उस राह से सांस बाहर ना जा सके और दोनों शहादत की उंगलीयों से आँखों को बंद कर ले इस तरीक़े पर बल्कि ऊपर से नीचे ला कर इस तरह जमाए रखे कि उंगली पर आँख ना आए और दोनों हाथों की ख़िंसर और बिंसर उंगलियां दोनों होंटों पर रख कर साँसों का रास्ता बंद कर दे और दोनों हाथ की दरमियानी उंगलीयों को नाक के दोनों नथनों पर इस तरीक़ा से रखे कि अव्वल दाएं तरफ़ के सुराख़ को अच्छी तरह पकड़ के सांस का रास्ता बंद कर दे और बाएं तरफ़ के सुराख़ को खुला छोड़ कर ला इलहा दम कर के सांस को दिमाग़ के ऊपर तक पहुँचा कर दिल तक लेकर आए और उस के बाद बाएं तरफ़ से भी मज़बूती से पकड़ कर हब्स-ए-नफ़्स में बैठे और इस शुग़्ल में शुरू से कमाल-ए-कसरत तक ब-ग़ैर तकलीफ़ और ज़हमत के जिस क़दर सांस को रोक सके रोके और जब सांस छोड़े तो बाएं तरफ़ के नथुने से उंगली उठा कर सांस को आहिस्ता-आहिस्ता ब-तदरीज ‘ला इलाहा’ कहते हुए ख़ारिज करे क्योंकि जल्दी सांस छोड़ेने से नुक़्सान का अंदेशा है।

    इस तरीक़े पर जिस क़दर हो सके अ’मल करे। इस शुग़्ल के बा’ज़ आ’मिलों ने हब्स-ए-नफ़्स को यहाँ तक पहुँचाया है कि चार पहर को चार दम में गुज़ार देते हैं। लेकिन इस फ़क़ीर के मुर्शिद हज़रत आख़ुन्द मुल्ला शाह ने उस मर्तबा को पहुँचा दिया था कि इशा की नमाज़ के बाद हब्स करते थे और फ़जर की नमाज़ के वक़्त छोड़ते थे। ख़्वाह रात लंबी हो या छोटी हो। पंद्रह साल की मुद्दत तक आप का यही तरीक़ा रहा। यहाँ तक कि इस शुग़्ल के असर से बड़ी फ़ुतूहात हासिल हुईं और दौलत के दरवाज़े खुल गए।

    इस शुग़्ल का एक फ़ायदा यह भी है कि नींद मुकम्मल तौर पर चली जाती है। चुनांचे तीस साल हो गए कि हज़रत आखुंद सल्लमाहुल्लाह सोए नहीं हैं।

    और यह शुग़्ल-ए-शरीफ़ आईना-ए-दिल से ज़ंग दूर करने वाला और आब-ओ-गिल की कुदूरतों से सफ़ाई देने वाला है। हज़रत ग़ौसुस सक़लैन रज़ीअल्लाहु अनहु से तहक़ीक़ के साथ इस फ़क़ीर तक पहुँचा है और इस शुग़्ल का नाम हज़रत ग़ौसुल आ’ज़म ने ‘आवर्द-ओ-बुर्द ‘फ़रमाया है और पीर-ए-दस्तगीर हज़रत मियाँ जियो ने इस क़दर इज़ाफ़ा फ़रमाया कि हब्स-ए-नफ़्स करने के बाद से नफ़्स छोड़ने तक कभी कभी सनोबरी दिल की ज़बान से 'इल-लल्लाह 'कहते रहें क्योंकि ख़ाली बैठना ख़तरात का बाइस हो सकता है। जब 'इल-लल्लाह' कहने की तरफ़ तवज्जोह की जाती है तो ख़तरात रफ़अ' हो जाते हैं और दूसरी जानिब तवज्जोह देने से बाज़ रहता है और ख़तरात को रफ़अ' करने वाले इस शुग़्ल का नाम मियाँ जियो ने ‘ज़द-ओ-बुर्द’ रखा है।जिस किसी ने भी इस इस्म-ए-शरीफ़ का दिल से विर्द किया तो गोया गू-ए-मक़सूद हासिल कर ली।

    यार!चूँकि राह-ए-सुलूक में ख़तरे बहुत हैं इसलिए हज़रत मियाँ जियो ने बा’ज़ दीवारें उठा दी हैं जिन से ख़तरात के रास्ते बंद हो गए। इन में से एक वह जुमला है जिस का ऊपर ज़िक्र हुआ।

    दीगर यह कि जिस शख़्स को ज़्यादा ख़तरात सनोबरी दिल से आते हों उस को अपनी तवज्जोह ख़तरों की जगह यानी सनोबरी दिल से उठा कर दिल-ए-मुदव्वर की तरफ़ करनी चाहिए और चूँकि यह दिल बे-रंग है इसलिए ख़तरा को इस में रास्ता नहीं है और ख़तरा की गुंजाइश भी नहीं है और ख़तरा को दूर करने का दूसरा तरीक़ा यह है कि ख़तरा को ग़ैर ना जाने।

    यार! जब हब्स-ए-नफ़्स के शुग़्ल-ए-शरीफ़ को मज़कूरा बाला तरीक़े से अ’मल में लाएगा तो अ’जीब-ओ-ग़रीब हरारत और लताफ़त और एक अ’ज़ीम शौक़ और लतीफ़ रौशनी तेरे दिल और वजूद में पैदा होगी और यह शुग़्ल ग़फ़लत की कसाफ़त को मुकम्मल तौर पर तुझ से दूर कर देगा और तुझे बे-अंदाज़ा ज़ौक़ और वज्द हासिल होगा। यह शुग़्ल तुझे बेहूदा कामों से दूर रखेगा लेकिन ये शुग़्ल हर वक़त नहीं किया जा सकता क्योंकि उस के लिए ख़ल्वत ज़रूरी है। लिहाज़ा जब ख़ल्वत मुयस्सर हो तो इस शुग़्ल-ए-शरीफ़ में मशग़ूल रहो और सैर के वक़्त या सोहबत-ए-ख़ल्क़ के वक़्त पहला शुग़्ल मुनासिब रहेगा क्योंकि उस को हर जगह और हर वक़्त किया जा सकता है।

    यार! जब हब्स-ए-नफ़्स के शुग़्ल में बैठे तो मुसलसल दिल की तरफ़ मुतावज्जेह रहना चाहिए क्योंकि इस शुग़्ल मैं तेरे अंदर से आवाज़ आएगी। चुनांचे मुल्ला-ए-ने फ़रमाया है :

    बैत:

    बर लबश क़ुफ़्ल अस्त-ओ-दर दिल राज़:ए

    लब ख़मोश-ओ-दिल पुर अज़ आवाज़:ए

    (उस के होंटों पर ताला लगा है लेकिन दिल राज़ों से भरा हुआ है। उस के होंट ख़ामोश हैं लेकिन दिल आवाज़ों से भरा हुआ है।)

    और यह आवाज़ बाज़-औक़ात देग में जोश की मानिंद होती है और बा’ज़ औक़ात भिड़ों के छत्ते से आने वाली आवाज़ की तरह होती है। चुनांचे मुताक़द्दिमीन में से किसी ने इस मा’नी की तरफ़ इशारा किया है।

    क़ितआ:

    सुख़नहा बीं कि अज़ मोराँ नुमायद

    चू अंदर गोश-ए-मा गोयद कलाम

    हम: आ’लम गिरफ़्त: अफ़ताबी

    ज़हे कोरी कि मी गोयद कुदाम

    (उस के अल्फ़ाज़ का मुशाहिदा करो। जब वह हमारे कान में बोलता है तो उस की आवाज़ च्यूंटियाँ जैसी होती है। सारी दुनिया उस के वजूद से रोशन है। अफ़्सोस उस अंधे इन्सान पर जो कहता है कि वह कहाँ है ?)

    यार! गुमान ना करना कि यह आवाज़ सिर्फ़ तेरे ही अंदर है बल्कि तमाम दुनिया, अंदर और बाहर उसी आवाज़ से भरी हुई है:।

    नज़्म:

    बर-आवर पम्बा-ए-पिन्दारत अज़ गोश

    निदा-ए-वाहिदुल-क़ह्हार ब-नयोश

    निदा मी-आयद अज़ हक़ बर दवामत

    चिरा गशती तू मौक़ूफ़-ए-क़यामत

    (अपने पिंदार के कानों से ग़लफ़त की रुई निकाल और उस ख़ुदा-ए-वाहिद की आवाज़ सुन। उस की आवाज़ मुसलसल रही है। तू इस आवाज़ को सुनने के लिए क़यामत का इन्तिज़ार क्यों कर रहा है।)

    और उस की हक़ीक़त शुग़्ल-ए-सुल्तान उल-अज़कार के बयान में तुझ पर ज़ाहिर होगी जिस का बा'द में ज़िक्र किया जाएगा जो कि उन फ़ुक़रा-ए-आ’लीया के अ’मल का ख़ुलासा है और दुनिया में नादिर-ओ-नायाब है और मो'तबर ज़ाहिरी-ओ-बातिनी अस्नाद के साथ से हज़रत ग़ौसुस-सक़लैन रज़ीअल्लाहु अनहु को और आप से हज़रत मियाँ जियो तक पहुँचा है।

    यह शुग़्ल एक आवाज़ है जिस को फ़क़ीरों के तरीक़े में ‘सुल्तानुल-अज़कार’ कहते हैं।

    यार! आवाज़ की तीन क़िस्में हैं: एक तो वह जो दो जिस्मों के तसादुम से पैदा होती है चुनांचे दो हाथों की हरकत से आवाज़ ज़ाहिर होती है और एक हाथ की हरकत से आवाज़ ज़ाहिर नहीं होती और उस आवाज़ को मुहदिस और मुरक्कब कहते हैं।

    दूसरी आवाज़ वह है जो कि बे हरकत–ओ-बे-तरकीब लफ़्ज़ और दो जिस्मों के ब-ग़ैर आग और हवा के अ’नासिर से इन्सान के अंदर ज़ाहिर होती है और उस को बसीत और लतीफ़ आवाज़ कहते हैं।

    आवाज़ की तीसरी क़िस्म वह है जो कि बेहद और बिला वास्ता हमेशा ज़ाहिर होती है। यह आवाज़ हमेशा एक नहज पर होती है। कम और ज़्यादा नहीं होती। उस में तब्दीली को राह नहीं। बे-जिहत होती है अगरचे तमाम दुनिया उस आवाज़ से ममलू और भरी हुई है लेकिन उस आवाज़ से अह्ल-ए-दिल के सिवा कोई आगाह नहीं और ना कोई सुन सकता है और यह आवाज़ तमाम मौजूदात की पैदाइश से पहले मौजूद थी और रहेगी। उस आवाज़ को बेहद और मुतलक़ कहते हैं और कोई शुग़्ल उस से बाला-तर नहीं है। हर एक शुग़्ल शाग़िल के इख़्तियार से सादिर होता है और जब शाग़िल उन से बाज़ रहता है तो वह भी मुंक़ता' हो जाते हैं लेकिन यह शुग़्ल इरादा-ए-शाग़िल के ब-ग़ैर ब-तरीक़-ए-दवाम इन्क़िता-ओ-इंफ़िसाल के ब-ग़ैर जारी रहता है।

    अक्सर सही हदीसों से जो कि सिहाह-ए-सित्ता में लिखी हुई हैं ज़ाहिर होता है कि हमारे पैग़ंबर बे’सत से क़ब्ल और उस के बा’द भी हमेशा इस शुग़्ल में मशग़ूल रहे हैं लेकिन कोई आ’लिम इस मा’नी के राज़ को हासिल नहीं कर सका है और ना समझ सका है। ख़दीजातुल कुबरा रज़ीअल्लाहु अनहा से रिवायत है कि रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बे’सत से पहले अपने साथ खाना लेकर ग़ार-ए-हिरा जाते थे जो कि मक्का मुअज़्ज़मा के अतराफ़ में मशहूर-ओ-मारूफ़ ग़ार है और उस ग़ार में उसी शुग़्ल में मशग़ूल रहा करते थे। यहाँ तक कि उस शुग़्ल के असर से सूरत-ए-जिबरईल आँ हज़रत पर ज़ाहिर हुई। यह आँ हज़रत पर वही की इब्तिदा थी। उस के बाद हुआ जो कुछ हुआ।

    यार! जब तू सुल्तानुल-अज़कार शुग़्ल को शुरू करे और इस शुग़्ल-ए-शरीफ़ को मा’लूम कर ले तो तुझे रात या दिन के वक़्त किसी ऐसे जंगल में जो लोगों की आमद-ओ-रफ़्त से महफ़ूज़ है या किसी हुजरे में जहाँ किसी की आवाज़ ना पहुँचे वहाँ जा कर अपने कानों की तरफ़ मुतावाज्जिह हो कर बैठना चाहिए और उस तवज्जोह में जहाँ तक मुम्किन हो ग़ौर करे कि तुझे लतीफ़ आवाज़ सुनाई दे और वह आवाज़ रफ़्ता रफ़्ता इस क़दर ग़ालिब होगी कि हर-सम्त से तुझ को घेर लेगी और कोई जगह और कोई वक़्त ऐसा ना होगा कि तेरे साथ ना होगी और वह आवाज़ जो कि उस वक़्त तुझ को ख़ुद तेरे अंदर से आएगी वह आवाज़ों के समुंद्र का एक क़तरा होगी। इसी पर क़यास कर ले:।

    बैत:

    तू ब-गोश-ए-ख़्वेश गोशी ब-नेह-ओ-बगो-ओ-बिश्नो

    कि जहाँ पुर अस्त यकसर ज़े सदा-ए-बे-नवायश

    (तू ख़ुद अपनी सरगोशी को सुन और फिर बोल और सुन क्योंकि यह सारी दुनिया की लासानी आवाज़ से भरी हुई है।)

    कहते हैं कि मूसा अलैहिस-सलाम से अफ़लातून ने कहा : तुम ही हो जो कहते हो कि मेरा परवरदिगार मुझ से बातें करता है हालाँकि वह जिहत से मुनज़्ज़ह है। उस वक़्त मूसा अलैहिस-सलाम ने फ़रमाया : मैं इस का दावा करता हूँ और हर तरफ़ से उस की आवाज़ सुनता हूँ वह इन्क़िता’ और तरकीब-ए-हुरूफ़ से मुनज़्ज़ह है। अफ़लातून ने मूसा अलैहिस-सलाम की तसदीक़ की और आप की रिसालत का भी इक़रार किया।

    हमारे पैग़म्बर से वही नाज़िल होने की कैफ़ीयत दरयाफ़्त की गई तो आँ हज़रत ने फ़रमाया : कभी मुझ को जोश-ए-देग की मानिंद आवाज़ आती है। कभी शहद की मक्खी की तरह आवाज़ आती है। कभी फ़रिश्ता इन्सान की सूरत में ज़ाहिर होता है और बातें करता है। कभी सिलसिला-ए-जरस की मानिंद आवाज़ सुनता हूँ। ख़्वाजा हाफ़िज़ अलैहिर रहमा ने इसी मा’नी की तरफ़ इशारा फ़रमाया है:

    बैत:

    कस नदानिस्त कि मंज़िल-गह-ए-दिलदार कुजास्त

    इन क़दर हस्त कि बाँग-ए-जरसे मी-आयद

    (कोई नहीं जानता कि मेरे महबूब की मंज़िल कहाँ है ? सिर्फ इस क़दर जानता हूँ कि घंटे की आवाज़ मुसलसल रही है।)

    मौलाना अबदुर्ररहमान जामी फ़रमाते हैं:

    शे’र:

    दर क़ाफ़िला कि अस्त दानम न-रसम

    ईं बस क़ि रसद ब-गोश बाँग-ए-जरसम

    (मैं जानता हूँ कि मैं उस क़ाफ़िले तक नहीं पहुंच सकता जिस में मेरा महबूब है। मेरे लिए यही बहुत है कि उस क़ाफ़िले के घंटे की आवाज़ मेरे कानों तक पहुंच रही है।)

    मियाँ जियो फ़रमाते हैं कि हज़रत–ए-रिसालत जब कभी ऊंट पर सवार होते थे और यह शुग़्ल ग़लबा करता था तो इस क़दर ज़ोर होता था कि ऊंट के दोनों ज़ानूँ ख़म हो कर ज़मीन तक पहुंच जाते थे।

    यार! जो कुछ नुज़ूल-ए-वही की कैफ़ीयत के बयान में मज़कूर हुआ है यह उन अहादीस का मफ़्हूम है जो सिहाह-ए-सित्ता में लिखी हुई हैं और सुल्तानुल-अज़कार की तरफ़ यह सही इशारा है अंबिया अलैहिस्सलाम की उस आवाज़ से ऐसी हालत हो जाती थी कि आयात-वही और अहकाम-ए-इलाही मा’लूम कर सकते थे और औलिया उस आवाज़-ए-बे-जिहत और बे-इन्क़िता’ से इस क़दर जमईयत-ओ-लज़्ज़त और वज्द-ओ-ज़ौक़ हासिल करते हैं कि तमाम अश्ग़ाल–ओ-ज़वाक़-ए-साबिक़ा उस लज़्ज़त के सबब छोड़ देते हैं और उस आवाज़ के समुंद्र में डूब जाते हैं और उन का नाम-ओ-निशान ज़ाहिर नहीं होता। हज़रत मियाँ जियो फ़रमाते हैं कि : ग़ौसुस सक़लैन रज़ीअल्लाहु अनहु फ़रमाते हैं कि हमारे पैग़म्बर छः साल तक ग़ार-ए-हिरा के अंदर सुल्तानुल-अज़कार में मशग़ूल रहे और मैं बारह साल तक इस मुक़द्दस ग़ार के अंदर इस शुग़्ल में मशग़ूल रहा और बड़ी फ़ुतूहात हासिल हुईं। हज़रत मियाँ जियो फ़रमाते हैं कि : मुझे तअ’ज्जुब होता है उन हाजियों पर जो कि दूर-दराज़ के सफ़र तय कर के हज पर जाते हैं और उस क़ुदस मक़ाम की बरकतों को हासिल नहीं करते।

    यार! हज़रत मियाँ जियो इस शुग़्ल-ए-शरीफ़ को इस क़दर अ’ज़ीज़ रखते थे कि अपने यारों में से अक्सर को नहीं बताते थे बा’ज़ ख़ास यारों को भी सिर्फ़ इशारा से बताते थे। चुनांचे हज़रत आखुंद को जो फ़रमाया तो एक साल के बाद हासिल हुआ और हज़रत आखुंद ने मुझे बताया तो मुझे छ: महीने बाद मुयस्सर हुआ लेकिन मैं ने बा’ज़ लोगों को बताया तो तीन या चार रोज़ का वक़्त लगा और वह इसलिए कि उन्होंने इशारा किनाया में फ़रमाया था और मैं सराहत से कहता हूँ और बे-पर्दा ज़ाहिर करता हूँ।

    यार! जब तुझ पर यह आवाज़ ज़ाहिर हो जाएगी तो उस को अच्छी तरह गिरफ़्त में लेना चाहिए और उस की हिफ़ाज़त में बलीग़ कोशिश से काम लेना चाहिए ताकि उस पर क़ुदरत हासिल हो जाए चुनांचे जिस तरह यह आवाज़ जंगल और हुज्रा में सुनाई दे उसी तरह बाज़ारों में और तमाम मख़्लूक़ के दरम्यान सुनाई दे और जब यह शुग़्ल-ए-शरीफ़-ओ-लतीफ़ ग़लबा हासिल कर लेगा तो उस वक़्त दफ़, ढोल और नक़्क़ारा की आवाज़ या उन से भी सख़्त-तर आवाज़ों पर ग़ालिब जाएगा और क्यों ग़ालिब ना आए क्योंकि यही तो उन की अस्ल है और तमाम आवाज़ें उसी से ज़ुहूर में आई हैं और अक्सर इस शुग़्ल के आमिल हज़रत मियाँ जियो के यार बाज़ारों में जा कर बैठ जाते थे। इस का सबब यह था कि मा’लूम करें कि इस शुग़्ल-ए-शरीफ़ की आवाज़ इस मर्तबा तक पहुंची या नहीं कि तमाम आवाज़ों पर ग़ालिब सके।

    यार! जब तुझे सुल्तानुल-अज़कार का शुग़्ल हासिल हो गया, मुबारक हो। ये शुग़्ल तुझ पर आलम-ए-लताफ़त-ओ-इतलाक़ को एक रंग में कर देगा क्योंकि यह शुग़्ल-ए-लतीफ़ तुझे लतीफ़ कर देगा और दरिया-ए-लताफ़त-ओ-इतलाक़ में बे-रंग कर देगा और दिल से दरिया-ए-हक़ीक़त जोश मारेगा क्योंकि वजूद का यही सरचश्मा है और उस वक़्त ख़ुद तुझे मा’लूम हो जाएगा कि हर एक सदा और निदा उसी आवाज़ से वजूद में आई है चुनांचे जहाँ कोई रंग है उस ने उसी बे-रंग से हस्ती की सूरत इख़्तियार की है और यूँ कि वह बे-इंतिहा है तो उस की सूरत और उस का रंग भी बे-इंतिहा है। इसी तरह उस की सदा और निदा की भी कोई इंतिहा नहीं है। चुनांचे कोई चीज़ उस जैसी नहीं है और कोई आवाज़ उस जैसी आवाज़ नहीं है।

    फ़स्ल-ए-सेउम:

    आ’लम-ए-जबरूत का बयान:। इस आ’लम को आलम-ए-लाज़िम, आलम-ए-अहदीयत-ओ-तमकीन और आलम-ए-बे नक़्श भी कहते हैं अगरचे इस गिरोह के बा’ज़ लोग इस आ’लम को अस्मा-ओ-सिफ़ात भी कहते हैं लेकिन यह दुरुस्त नहीं है। इस ताइफ़ा के बहुत से अफ़राद इस आ’लम की हक़ीक़त तक नहीं पहुँचे हैं और समझे ब-ग़ैर छोड़ दिया है। क्योंकि आलम-ए-अस्मा-ओ-सिफ़ात अगर मर्तबा-ए-आ’लम में है तो दाख़िल-ए-मलकूत है और अगर आ’लम-इ-हिस्स में ज़ाहिर हुआ है तो नासूत में दाख़िल है। बहर-हाल किसी भी तरह आलम-ए-अस्मा-ओ-सिफ़ात को आ’लम-ए-जबरूत कहना दुरुस्त नहीं है और इस आ’लम के बारे में सय्यद-ए-ताइफ़ा उस्ताद अबुल-क़ासिम जुनैद के अ’लावा किसी दूसरे ने ख़बर नहीं दी है। आप ने फ़रमाया है कि तसव्वुफ़ यह है कि घड़ी-भर बे-तीमार के बैठे। शैख़ुल-इस्लाम ने कहा कि जानते हो बे-तीमार क्या होता है ? ब-ग़ैर जुस्तुजू के हासिल करना और ब-ग़ैर देखे दीदार कर लेना क्योंकि देखने वाला दीदार में इल्लत है। पस आ’लम-ए-जबरूत वह है कि जो कुछ नासूत-ओ-मलकूत में है इस आ’लम में दिखाई ना दे और मह्वियत का ऐसा आ’लम तारी हो और आराम पर आराम और जमईयत पर जमईयत हासिल हो। चुनांचे ग़ाफ़िल हो या आगाह दोनों को आ’लम-ए-नासूत और आ’लम-ए-मलकूत में से ज़रूर गुज़रना है। आ’लम-ए-जबरूत से भी ज़रूर गुज़रना होगा। जब ग़ाफ़िल शख़्स को नींद में नासूती-ओ-मलकूती सूरतें नहीं दिखाई देती हैं तो कहता है कि क्या फ़राग़त और आराम की नींद थी कि कोई ख़्वाब नज़र नहीं आया। लिहाज़ा यह आ’लम-ए-जबरूत है और आगाह जब बे-तीमार बैठता है तो जैसा कि सय्यद-ए-ताइफ़ा ने इस तरफ़ इशारा फ़रमाया कि कि बे-दारी में नासूत-ओ-मलकूत में से कोई सूरत उस के दिल में नहीं गुज़रती है तो वह आ’लम-ए-जबरूत में है लेकिन ग़ाफ़िल और आगाह के दरम्यान फ़र्क़ है कि वह सोते वक़्त आ’लम-ए-जबरूत में बे-इख़्तियार जाता है और यह जब भी चाहिए अपने इख़्तियार से नींद या बेदारी में आ’लम-ए-जबरूत में जा सकता है और आलम-ए-जबरूत में बैठने का यह तरीक़ा है कि जिस्म के तमाम आ’ज़ा को हरकत से बाज़ रखे। दोनों आँखों को बंद कर के दाएं हाथ को बाएं हाथ पर रखे और अपने दिल को तमाम नासूती और मलकूती नुक़ूश से ख़ाली कर के सुकून और आराम से बैठे और आँखों में ज़ाहिरी-ओ-बातिनी कोई नक़्श दाख़िल ना होने से, पस आ’लम-ए-जबरूत को पा लेगा। बहर-हाल उस ताइफ़ा में से बा’ज़ अफ़राद ही इल्ला माइशाअल्लाह इस आ’लम के राज़ से वाक़िफ़ होंगे।

    फ़स्ल-ए-चहारुम

    आ’लम-ए-लाहूत का बयान: इस आ’लम को आ’लम-ए-हुवीयत-ओ-आ’लम-ए-ज़ात-ओ-आ’लम-ए-बे-रंग-ओ-आ’लम-ए-इतलाक़-ओ-आ’लम-ए-बहत भी कहते हैं और यह आ’लम-ए-नासूत-ओ-मलकूत-ओ-जबरूत की अस्ल है और सब पर मुहीत है। दूसरे आ’लम-ए-जिस्म की मानिंद हैं और यह आ’लम उन की जान है। तमाम आ’लम इसी में आते हैं और इसी से निकलते हैं और यह हमेशा अपने आप में यकसाँ रहता है। इस में तफ़ावुत को राह नहीं। व-हुवल-अव्वलु वल-आख़िरु वल-ज़ाहिरु वल-बातिनु व-हूवा बिकुल्ले शैईन अ’लीम’ दूसरे आ’लम इस आ’लम पर इस तरह मुहीत हैं कि दूसरे आ’लम मौज की मानिंद हैं तो यह दरिया की तरह है। दूसरे आ’लम ज़र्रात हैं तो यह आफ़ताब है और दूसरे आ’लम अल्फ़ाज़ हैं तो यह मा’नी है। लिहाज़ा यार! जब लायज़ाल तौहीद-ओ-सआ’दत की यह लाज़वाल दौलत बित-तहक़ीक़ जो कि इस आ’लम की आश्नाई से मिलती है वह तुझे हासिल हो जाए तो आ’लम-ए-हुवीयत की ख़बर तुझ को मिल जाएगी

    फ़स्ल-ए-पंजुम

    हुवीयत-ए-रब-उल-अरबाब का बयान: जानना चाहीए कि जब सब कुछ वही है तो फिर तू कौन है ? इस के सिवा कोई चारा नहीं है कि तू ख़ुद को भी ऐन उसी तरह जाने। मैं और तू के पिन्दार में क़ैद हो कर ना रह जाए। तौहीद-ए-तजल्ली-ओ-ज़ाती की यही हक़ीक़त है। ‘वफ़ी अनफ़ुसिकुम अ-फ़ला तुबसिरून अपनी ज़ात को जानने के लिए ख़ुद को मुलाहिज़ा नहीं करना चाहिए और वह्-ओ-वसवसा की राह भी दिल पर ना खोले और तअ’य्युनात को ज़ात का पर्दा समझे:

    रुबाई:

    हरगिज़ नकुनद आब हिजाब अंदर यख़

    बा आँ कि कुनद नक़्श हुबाब अंदर यख़

    हक़ बह्र-ए-हक़ीक़त अस्त-ओ-कौनैन दर

    चूं यख़ ब-मियान-ए-आब-ओ-आब अंदर यख़

    (पानी कभी बर्फ़ के अंदर छुप नहीं सकता। अगरचे एक बुलबुला बर्फ़ में नक़्श बना सकता है। हक़ भी सच्चाइयों का एक ऐसा ही अज़ीमुश्शान समुंद्र है जिस में दोनों आ’लम उसी तरह मौजूद हैं जिस तरह पानी बर्फ़ में और बर्फ़ पानी में पोशीदा है।)

    अगर ख़तरा पैदा हो तो उसे भी ऐन-ए-ज़ात समझे यहाँ तक कि यह निस्बत कमाल की हद तक पहुंच जाए और ग़लबा हासिल कर ले। जब कमाल तक पहुंच जाएगा तो जिस तरफ़ भी देखेगा अपने आप को देखेगा। जहां ढ़ूंढ़ेगा अपने आप को पाएगा और हरगिज़ उस को महज़ तनज़्ज़ोह-ओ-बे-रंगी-ओ-पाकी से मुत्तसिफ़ ना जाने वर्ना सआ’दत की तश्बीह से बे-नसीब रहे और इसी तरह महज़ तश्बीह से मुत्तसिफ़ ना करे क्योंकि इस तरह तनज़ीह की दौलत से बे-बहरा हो जाएगा पस पाकी-ओ-नापाकी-ओ-तश्बीह-ओ-तनज़ीह सब उस के तअ’य्युनात-ओ-ज़ुहूरात से हैं अगर एक ज़रा भी उस से जुदा तसव्वुर करेगा तो उस के इरफ़ान-ओ-तौहीद की नेअ’मत से महरूम रहेगा।

    यार! जब दरिया-ए-हक़ीक़त हरकत में आया तो उस में मौज और नक़्श पैदा हुए और लाखों हुबाब-ओ-दाइरे आसमान और ज़मीन की मानिंद पैदा हुए और उन सब को उस समुंद्र से जुदाइ नहीं क्योंकि अगर किसी नक़्श और मौज को समुंद्र से जुदा करना चाहेगा तो उस की कोई सूरत नहीं और अगरचे नाम में हर एक अलग है लेकिन ज़ात और हक़ीक़त में सब यकता हैं:

    रुबाई:

    तौहीद ब-गोयम अर ब-फ़हमी यारा

    मौजूद न-बुवद हेच गह ग़ैर-ए-ख़ुदा

    आँहा कि तू मी-बीनी-ओ-मी-दानी ग़ैर

    दर ज़ात हम: यक अस्त-ओ-दर नाम जुदा

    (ऐ यार! मैं तुझे तौहीद का राज़ बताता हूँ शायद तेरी समझ में जाए। यानी ख़ुदा के सिवा दुनिया में कोई दूसरा मौजूद नहीं है। जो कुछ भी तू इस दुनिया में ख़ुदा के अ’लावा देखता है वह सब कुछ हक़ीक़त में वही है अलबत्ता उस के नाम अलग अलग हैं।)

    फ़स्ल-ए-शशुम

    वहदत-ए-वजूद का बयान: पानी जब तक जमा हुआ नहीं है बेरंग और बे सूरत है लेकिन जब जम गया तो कभी यख़ की सूरत इख़्तियार कर लेता है तो कभी बर्फ़ और ओले का लिबास पहनता है। देख लो कि यख़-ओ-बर्फ़ और ओला वही बे-रंग आब-ए-बसीत है या नहीं और जब घुल गया तो वही पानी नाम रखा जाएगा कुछ और नहीं। पस जिस शख़्स ने पहचान लिया वह हक़ीक़त देखने वाली नज़र रखता है और तमाम मरातिब-ओ-कैफ़ियात को पानी ही समझता है।

    रुबाई:

    दरियास्त वजूद सिर्फ़ ज़ात-ए-वह्हाब

    अर्वाह-ओ-नुक़ूश हम चू नक़्श अंदर आब

    बह्रेस्त कि मौज मी-ज़नद अंदर ख़ुद

    गह क़तर: गह अस्त मौज गाहे अस्त हुबाब

    (ख़ुदा की ज़ात एक अ’ज़ीम समुंद्र की मानिंद है। यह तमाम दुनिया पानी पर खींची लकीर की मानिंद है। यह एक समुंद्र की मानिंद है जिस में लहरें उठती हैं। ये कभी क़तरा तो कभी लहर है और कभी बुलबुला है।)

    और वह शख़्स नादान है जो लिबास और कैफ़ीयत की क़ैद में ग़ैर को देखता है। आरिफ़ और जाहिल में यही फ़र्क़ है। पस इरफ़ान इस से ज़्यादा नहीं कि ख़ुद को पहचाने और यह कि तू ख़ुद वही है और सब कुछ वही है उस के सिवा किसी ग़ैर का मौजूद होना मुहाल है।

    इस मतलब की विज़ाहत के लिए बहुत सी मिसालें दी जा सकती हैं जैसा कि नक़्श-ओ-लफ़्ज़ और मा’नी सब स्याही के वजूद से ज़ाहिर होते हैं चुनांचे जड़ और पत्ता, टहनी और फल सब बीज से पैदा होते हैं लेकिन उन का वजूद कसरत में माने’ नहीं :

    रुबाई:

    कर्द: ज़े यगानगी दोई रा ताराज

    बायद कि कुनी कजी-ए-ख़ुद रा तू ईलाज

    वाहिद मुतकस्सिर नशवद अज़ आ’दाद

    दरिया मुताजज्ज़ी न-शवद अज़ अम्वाज

    (वह कसरत में वहदत लिए हुए है।अगर यह बात तेरी समझ में नहीं आती है तो अपनी कजी का ईलाज कर ले।वाहिद आ’दाद से टुकड़े टुकड़े नहीं होता जिस तरह समुंद्र अपनी लहरों की कसरत के बावजूद मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़्सीम नहीं होता।)

    यार! ज़ात-ए-बहत और आफ़ताब-ए-हक़ीक़त और मर्तबा-ए-बे-रंगी जिस की ख़बर ‘कुन्तु कनज़न मख़्फ़ीयन’ से मिलती है और जो फ़ा-अहब्बतु’ की दोस्ती से ज़ाहिर हुआ और ‘इख़्तिफ़ा’ का नक़ाब उठ गया तो वस्ल की लज़्ज़त में और अपने दीदार के मुशाहिदे में तमाम ज़ात क़ैद हो गई अब अगर मुतलक़ की तलब करेगा तो मुक़य्यद में पाएगा चुनांचे गंज-ए-मख़्फ़ी के ज़ुहूर से पहले अगर मुक़य्यद को ढूंढता है तो नहीं पाता लेकिन हमेशा मुतलक़ में मुक़य्यद है और मुक़य्यद मुतलक़ के साथ है और तहक़ीक़ के साथ जान ले कि हिजाब की क़ैद इतलाक़ नहीं और तअ’य्युनात-ए-ज़ात के माने’ नहीं है। लिहाज़ा जिस पर भी तूने हाथ रखा है वह बे-पर्दा ऐन-ए-ज़ात पर हाथ रखा है और जिस पर भी तेरी नज़र पड़ी है वह बे-पर्दा हुस्न-ए-मुत्लक़ नज़र में आया है:

    फ़र्द:

    नीस्त बे-गान: कस दरीं आ’लम

    दस्त बर हर चे मी-नही ख़ुद बीं

    (इस दुनिया में तेरे लिए कोई भी अजनबी नहीं है। जिस चीज़ पर भी तू हाथ डालता है। समझ ले ख़ुद पर ही तूने हाथ डाला है।)

    रुबाई:

    गोयम सुख़ने ज़े रू-ए-तहक़ीक़-ओ-सवाब

    गर मर्द रही क़ुबूल कुन रू-ए-मताब

    हरगिज़ न-बुवद सिफ़ात बर ज़ात हिजाब

    कै नक़्श बर आब माने’ अस्त अज़ मस-ए-आब

    (मैं एक बात हक़ीक़त के तौर पर बताता हूँ। अगर तू इस रास्ते का राही है तो उसे मान ले और हरगिज़ रु-गरदानी ना कर। फ़ुरूई चीज़ीं हक़ीक़तों को छुपा नहीं सकतीं। पानी की मुख़्तलिफ़ सूरतों किस तरह पानी से अलाहदा हो सकती हैं ?)

    यार! शुग़्ल-ए-आख़िर और निहायत-ए-कार इस सिलसिला-ए-शरीफ़ मैं ख़ुद को पकड़ कर बैठना है। तक़य्युदात के बावजूद ख़ुद को सिर्फ ऐन-ए-बहत-ओ-हस्ती जानना और जो कुछ ग़ैर-ए-ख़ुद नज़र में आए उस को ऐन-ए-ख़ुद समझना और दोई की जड़ उखाड़ना, दूरी बे-गानगी के पर्दों को उठाना और सब को एक ज़ात देखना और ख़ुद ब-ख़ुद लज़्ज़त हासिल करना है:

    बैत:

    यार लैला वश-ओ-मन ग़ैर-ओ-मजनून नीस्त

    शम्अ’ अज़ दाइर:-ए-परतौ-ए-ख़ुद बैरून नीस्त

    (मेरा महबूब मुझ से जुदा नहीं जिस तरह लैला मजनूँ से अलग नहीं है। और जिस तरह शम्अ’ अपनी रौशनी के दायरे से बाहर नहीं।)

    और इसी मा’नी पर बा’ज़ अकाबिरीन ने भी इशारा किया है:

    बैत:

    अज़ कनार-ए-ख़्वेश मी-याबम दमादम बू-ए-यार

    ज़ाँ हमी गीरम हमेश: ख़्वेश्तन रा दर-कनार

    (मैं हर सांस के साथ मुसलसल अपने महबूब की ख़ुशबू महसूस करता हूँ और इस लिए हमेशा ख़ुद से हम-आग़ोश रहता हूँ)

    यार! जिस किसी ने इस निस्बत-ए-शरीफ़ को दुरुस्त किया वह अपने वजूद की शनाख़्त के शरफ़ से मुशर्रफ़ हुआ जो कि इक्सीर-ए-आज़म और कीमिया-ए-अकबर है। वह ग़फ़लत-ओ-नादानी के जंगल और जुस्तुजू के रंज और गुफ़्तुगू के वसवसा से फ़ारिग़ हुआ:

    बैत:

    क़तर: क़तर: अस्त ता न-पिंदार कि अज़ दरिया जुदास्त

    बंद: बंद: ख़्वेशतन रा ता नमी-दानद ख़ुदास्त

    (एक क़तरा तब तक एक क़तरा है जब तक वह यह नहीं जानता कि वह एक अ’ज़ीम समुंद्र का हिस्सा है क्योंकि वह ख़ुद को समुंद्र से अलग समझता है। इसी तरह मख़्लूक़ भी मख़्लूक़ है जब तक उसे यह मा’लूम ना हो जाए कि वह ख़ालिक़ है।)

    रुबाई:

    आँ कि ख़ुदाए रा ब-जोइ हर जा

    तू ऐन-ए-ख़ुदाई ना जुदाई ब-ख़ुदा

    इन जुस्तन-ए-तू ब-आँ हमीं मी-मानद

    क़तर: ब-मियान-ए-आब-ओ-जोयद दरिया

    (तू ख़ुदा को हर जगह तलाश करता है। दर अस्ल तू ऐन-ए-ख़ुदा है। ख़ुदा की क़सम तू उस से जुदा नहीं है। तेरी यह तलाश ऐसी है जैसे समुंद्र में रह कर क़तरा पानी को तलाश करे।)

    जब इस मर्तबा तक पहुंच गया तो हक़ीक़त-ओ-वह्दत का आफ़ताब तुलूअ' हो गया और वह्म-ओ-पिन्दार के असर से दूर हुआ और ज़ुल्मत का पर्दा उठ गया और अब:

    रुबाई:

    हर-चंद नक़ाब दरम्यान दारद यार

    रूयश ख़ुश-ओ-ख़ूब मी-नुमायद बिस्यार

    चूँ ऐनक-ए-तू बुवद नक़ाब-ए-रुख़-ए-यार

    ऐनक न-कुनद पेश-ए-चश्म-ए-तू ग़ुबार

    (अगरचे महबूब के चेहरे पर नक़ाब है लेकिन उस में से भी उस का चेहरा ख़ूबसूरत और हसीन नज़र आता है। तेरी ऐनक महबूब के चेहरे के आगे हाइल होती है। तू इस ऐनक को उतार दे ताकि गुमान की धुंद तेरी आँखों के आगे से हट जाए।)

    इस जगह ज़िक्र-ओ-ज़ाकिर और मज़कूर एक हो गए हैं। साहिब-ए-लमआ’त इसी की ख़बर देते हैं:

    बैत:

    मा’शूक़-ओ-आशिक़ हर सिह् यके अस्त ईं जा

    चूं वस्ल दर न-गुन्जद हिज्राँ चे कार दारद

    (आशिक़, माशूक़ और इश्क़ तीनों यहाँ एक हैं। अगर उन का इत्तिहाद यहाँ मौजूद नहीं है तो जुदाई भी नहीं है।)

    जब मुर्शिद ने तालिब-ए-सादिक़ को इस मर्तबा तक पहुँचा दिया और दक़ीक़ा को समझा दिया और उस को ख़ुदा के सिपुर्द कर दिया तो ता’लीम और तअ’ल्लुम की गुंजाइश नहीं रही क्योंकि ख़ुदा को ता’लीम देना जाइज़ नहीं।

    यार!

    जब तू ने जान लिया कि अस्ल काम क्या है और दिलदार की दूरी और महजूरी क्या है तो अब हमेशा ख़ुश रह:

    रुबाई:

    दर हिज्र-ए-तू बूद: अन्दोह-ओ-आज़ारम

    अज़ वस्ल-ए-तू रफ़्त हस्ती-ओ-पिन्दारम

    शादी आमद नसीब-ए-जानम गर्दीद

    अकनूँ तन-ओ-जान-ए-ख़ुद ब-राहत दारम

    (तेरी जुदाई में दुख दर्द सहे हैं। तेरे विसाल से मेरी हस्ती और पिंदार जाते रहे। अब मुझे ख़ुशी हासिल हो गई है। अब मेरे जिस्म-ओ-जान को राहत हासिल है।)

    तेरा वजूद, वजूद-ए-कुल हो गया। रंज-ओ-ख़ौफ़ और दोई-ओ-महजूरी का ग़म तेरे दिल से जाता रहा। अ’ज़ाब के ख़ौफ़ और सवाब के अंदेशे छूट गए। अबदी नजात से पैवस्ता हो गया। अब जो कुछ चाहता है कर सकता है और जिस वस्फ़ के साथ रहना चाहे रह सकता है:

    बैत:

    पादशाहे रा गुज़ार दोस्त आगाही गुज़ीं

    चूं ब-आगाही रसीदी हर चे मी ख़्वाही गुज़ीं

    ( दोस्त दुनिया की बादशाही को छोड़ दे और आख़िरत की आगाही हासिल कर क्योंकि जब तुझे मा’रिफ़त हासिल होगी तो तू जो चाहे गा वह करेगा।)

    क्योंकि ‘ला-ख़ौफ़ुन अलैहिम वला-हुम यहज़ुनून’ की बशारत हालत वालों की शान में ही नाज़िल हुई है। और ‘अनज़ालस-सकीनाता अला क़ुलूबिहिम’ का मुज़्दा उन के हक़ में ही सुनाया गया है।

    यार! बहुत सी आयात-ओ-अहादीस और मशाइख़-ए-सलफ़ के अक़्वाल इस मा’नी पर दलालत करते हैं। अगर तुझे उन को दरयाफ़्त करने का ज़ौक़ हासिल हो तो हर ज़र्रा में आफ़ताब-ए-हक़ीक़त का मुशाहिदा करेगा और जब इस निस्बत को कमाल तक पहुँचा दिया तो तुझे अपने ऐन होने में वह्म नहीं रहेगा और बित-तहक़ीक़ तेरे बातिन से ख़ुद ब-ख़ुद लज़्ज़त-ओ-अमनीयत ज़ाहिर होगी और इस यगानगी की शाहिद होगी और तुझ को जुज़्व से कुल और क़तरा से दरिया और ज़र्रा से आफ़ताब और नीस्त से हस्त बना देगी:

    क़ितआ-ए-तारीख़

    इन रिसाला हक़ नुमा बाशद तमाम

    दर हज़ार-ओ-पन्ज:-ओ-शिश शुद तमाम

    हस्त अज़ क़ादिर मदां अज़ क़ादरी

    आँ चे मा गुफ़्तेम फ़फ़्हम वस्सलाम

    यह रिसाला मुकम्मल तौर पर हक़ नुमा है। एक हज़ार छप्पन हिज्री में यह मुकम्मल हुआ। इस रिसाले की तस्नीफ़ अल्लाह का करम है इस को क़ादरी की तरफ़ से मत समझिए। और जो कुछ हम ने इस रिसाला में कहा है उस को समझने की कोशिश कीजिए। आप सब पर सलाम हो।

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