मुईन-उल-अर्वाह
तर्जुमा
मूनिस-उल-अर्वाह
मुतर्जिम: मौलवी अबदुस्समद
बिसमिल्लाहिर रहमानिर रहीम
नहमदुहु व नुसल्ली अ’ला रसूलिहिल करीम व अ’ला आलिही व अस्हाबिही वाजिबिल-तकरीम वल-ता’ज़ीम अ’म्मा बाद आ’सी-ए-पुर मआ'सी मुहम्मद अ’बदुस्समद कलीम क़ादरी उवैसी मुतवत्तिन-ए-अ’लीगढ यह अह्ल-ए-हक़ीक़त की ख़िदमत में अ'र्ज़ करता है कि जब यह बंदा रूहुल-अर्वाह तर्जुमा-ए-अनीसुल-अर्वाह और इरशादुल-क़ादरी तर्जुमा-ए-फ़ुयूज़ुल-क़ादरी और शमाइलुल-औलीया तर्जुमा-ए-ख़साइलुल-औलिया से फ़ारिग़ हुआ तो सय्यद मीर हसन साहिब मालिक-ए-मत्बा'-ए-रिज़वी देहलवी अदामल्लाहु बक़ाअहु ने अपने मतबा’ से रिसाला-ए-मूनिसुल-अर्वाह जो शाहज़ादी जहाँ आरा बेगम रहमतुल्लाहि अलैहा की तालीफ़ है तर्जुमा के वास्ते दिल्ली से इनायत फ़रमाया। मैंने उन किताबों का तर्जुमा फ़सीह-ओ-सलीस इबारत में फ़ाएदा-ए-आ’म और सवाब-ए-उख़्रवी के वास्ते किया है। अल्लाह ता’ला क़ुबूल फ़रमाए बहुरमते हबीबिहिर रसूल नबीइलमुकर्रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम।
आग़ाज़-ए-तर्जुमा
हद्द-ए-क़यास से ज़्यादा हम्द-ओ-सिपास उस साने'-ए-क़दीम को जिस ने अपनी क़ुदरत–ए-कामिला से तमाम अंबिया और रसूल को अह्ल-ए-अनाम का हादी और रहनुमा मुक़र्रर फ़रमाया और इहाता-ए-तहरीर से बाहर शुक्र-ओ-सना उस ख़ालिक़-ए-रहीम को जिस ने अपनी सिफ़त-ए-शामिला से औलिया और मशाइख़ को दीन-ए-इस्लाम का मुक़्तदा और पेशवा बनाया। ऐ साहिब, ऐ ख़ुदा-वंद, ऐ बादशाह जब कि अंबिया-ए-मुर्सलीन और मलाइका-ए-मुक़र्रबीन की ज़बान तेरी ता’रीफ़ में आ’जिज़ है, इस ज़ईफ़ा की क्या मजाल कि तेरे औसाफ़ में ज़बान खोले।
अशआ'र
ऐ ब-वस्फ़त बयान-ए-मा हम: हेच
हम: आँ तू ज़ान-ए-मा मा हम: हेच
हर-चंद बीनद ख़्याल-ए-मा हम: नक़्स
हर चे गोयद ज़बान-ए-मा हम: हेच
मा ब-कुन्ह-ए-हक़ीक़त न-रसेम
ईं यक़ीन-ओ- गुमान-ए-मा हम: हेच
और सलवात-ए-तैयिबात-ए-बे-इंतिहा उस पर जिस का लक़ब सय्यदुल अव्वलीन वल-आख़िरीन व रहमतुललिल आलमीन है। और तहियात-ए-ज़ाकियात उस के वास्ते जो बाइस-ए-हस्ती-ए-दो-जहाँ और शफ़ीअ’-ए-गिरोह-ए-आ’लमीयाँ है।
रुबाई
सुल्तान-ए-रुसुल कज़ हम: हा पाक आमद
ज़ातश सबब-ए-ख़िल्क़त-ए-अफ़्लाक आमद
दर शान-ए-शरीफ़-ए-उ हदीस-ए-क़ुदसी
लौलाका लमा ख़लक़्तुल अफ़्लाक आमद
और आप की आल-ए-पाक और अस्हाब-ए-किबार पर जो अख़्तर-ए-बुर्ज-ए-शराफ़त और गौहर-ए-दुर्ज-ए-हिदायत हैं, रिज़वानुल्लाहि ता’ला अलैहिम अजमईन। जान कि हज़रत-ए-हक़ सुब्हानुहु ता’ला ने वुजूद-ए-औलिया को मूजिब-ए-सबात-ए-क़याम-ए-आ’लम बनाया है और इस फ़िर्क़ा की मोहब्बत और इरादत को नजात का वसीला मुक़र्रर फ़रमाया है। मोमिनीन-ओ-मोमिनात को उन के सिलसिलों से मुतअल्लिक़ कर के क़यामत में रिहाई और रुस्तगारी का सबब गरदाना है, उस दिन कि जिस की शान में आयत-ए-करीमा
(यौम यफ़िर्रुलमरउ मिन अख़ीहि –व-उम्मिहि-व-अबीहि-व-साहिबतिहि-व-बनीहि)
(उस दिन या’नी क़यामत के रोज़ भागे का मर्द अपने भाई और माँ और बाप और अपने बेटे और बेटी से)
वारिद है, और उस रोज़ की मिक़दार पच्चास हज़ार साल के बराबर होगी और अह्ल-ए-आ’लम को तरह तरह के ग़म और हौल और मुसीबतें लाहिक़ होंगी और मुरीदों के हल्क़े अपने पीरों के झंडे के नीचे खड़े होंगे और बुज़ुर्गान-ए-दीन की हिमायत में इन आफ़ात से अमन में रहेंगे। हज़ार हम्द–ओ-सना है कारसाज़-ए-बंदः-नवाज़ को कि हल्क़ः-ए-इरादत-ए-सिलसिलः-ए-शरीफ़ः-ए-चिश्तियः को कि मुमालिक-ए-वसीअ’-ए-हिन्दोस्तान बल्कि मामूरा-ए-जहान में रिवाज रखता है और बहुत औलिया-ए-नामदार इस सिलसिला में हुए हैं, इस फ़क़ीरा-ए-हक़ीरा बिंत-ए-शाहजहाँ बादशाह-ए-ग़ाज़ी के गोशा-ए-दिल-ओ-जान में डाला है, ये आ’जिज़ा अगर हर सर-ए-मू ज़बान रखती हो इस अ’तीया-ए-अ’ज़ीमा के शुक्र से आ’जिज़ है और यह आ’सिया क़ुतुबुलमशाइख़, ख़ुलासातुलअस्फ़िया, गज़ीदा-ए-बारगाह-ए-किब्रिया, हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन हसन संजरी चिशती के मुरीदान-ए-बा-ए’तिक़ाद से है और वह ख़्वाजा उसमान हारूनी के मुरीद हैं और वह ख़्वाजा हाजी शरीफ़ ज़नदानी के और वह ख़्वाजा मौदूद चिशती के और वह ख़्वाजा अबू यूसुफ़ चिशती के और वह अपने पिदर-ए-बुजु़र्गवार ख़्वाजा मुहम्मद चिशती के और वह अपने वालिद-ए-अमजद ख़्वाजा अबू अहमद अब्दाल चिशती के और वह ख़्वाजा शैख़ इसहाक़ शामी चिशती के औ रवह ख़्वाजा ममशाद–दमीनूरी के और वह ख़्वाजा हबीरा अलबसरी के और वह ख़्वाजा हुज़ैफ़ा मराशी के और वह सुल्तान इब्राहीम अदहम बलख़ी के और वह फ़ुज़ैल इब्न-ए-ईयाज़ के और वह ख़्वाजा अबदुलवाहिद बिन ज़ैद के और वह ख़्वाजा हसन बस्री के और वह अमीरुल मोमिनीन अली इब्न-ए-अबी तालिब के और वह ख़ैरुलख़ल्क़ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मुरीद थे। इस सिलसिला-ए-मुतबर्रका का शजरा-ए-तय्यबा सफ़ी नातुल-औलीया से जो इस हक़ीरा के भाई और मुर्शिद, सुल्तान मुहम्मद दाराशिकोह क़ादरी की तसनीफ़ात से है, नक़्ल किया और इस रिसाला का मूनिसुल-अर्वाह नाम रखा, उम्मीदवार है कि हज़रत ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ रहमतुल्लाहि अलैहि की इनायत-ए-बेग़ायत मुरीदान-ए-सादिक़ुल-ए'तिक़ाद के हाल पर मब्ज़ूल रहे और दुनिया-ओ- आख़िरत में दस्त-गीरी करे वल्लाहुल मुवफ़्फ़िक़ुल फ़ी कुल्ल्लिल उमूर।
नक़्ल है कि हज़रत मुहम्मद हसन अल-हसनी अल-सनजरी अल-चिशती मशाइख़-ए-किबार में करामत और कमाल और दर्जात-ए-आ’लीया के साथ मशहूर-ओ-मारूफ़ हैं, की विलादत-ए-बा-सआ’दत विलायत-ए-सिजिस्तन में हुई और दयार-ए-ख़ुरासान में नशव-ओ-नुमा पाई। आप के पिदर-ए-बुजु़र्गवार नक़ावा-ए-दुदमान-ए-नबवी, ख़ुलासा-ए-ख़ानदान-ए-मुस्तफ़वी, ताजुलस्सालिकीन हज़रत ख़्वाजा ग़ियासुद्दीन हसन संजरी चिशती रहमतुल्लाहि अलैहि साहिब-ए-ज़ोह्द-ओ-तक़्वा, आबिद-ओ-पारसा थे, जब उन्हों ने इंतिक़ाल फ़रमाया हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिशती की उम्र पंद्रह बरस की थी।
वालिद-ए-माजिद की मीरास से आप को एक बाग़ और एक पन-चक्की पहुँची थी। आप उस के महसूल से अपनी और मुताअ’ल्लिक़ीन की औक़ात-बसरी करते थे। कहते हैं कि वहाँ एक मज्ज़ूब अहल-ए-हाल साहिब-ए-कश्फ़-ओ-कमाल रहता था। उस को इब्राहीम क़नदोज़ी कहते थे एक रोज़ हस्ब-ए-इमा-ए-ग़ैबी ख़्वाजा साहिब के बाग़ में आया। आप दरख़्तों को पानी दे रहे थे जब मज्ज़ूब को देखा सामने जा कर रस्म-ए-अदब –ओ-ताज़ीम बजा लाए और उस के हाथ चूम कर एक साया-दार दरख़्त के नीचे बिठलाया और चंद ख़ोशाहा-ए-अंगूर पेश किए। इब्राहीम ने खा कर एक फ़ल का टुकड़ा बग़ल से निकाला और उस पर दाँत मार कर हज़रत ख़्वाजा साहिब को खिलाया। खाते ही आप के दिल में एक नूर ज़ाहिर हुआ और दुनिया-ओ-माफ़ीहा की मोहब्बत दिल से ज़ाइल हुई। बाग़ और मुल्क को फ़रोख़्त कर के फ़ुक़रा-ओ-मसाकीन को नफ़्क़ा किया और समरक़ंद-ओ-बुख़ारा की तरफ़ रवाना हुए। एक मुद्दत तक वहाँ रह कर इल्म-ए-ज़ाहिरी की तकमील फ़रमाई और क़ुरआन-ए-मजीद हिफ़्ज़ किया फिर इराक़-ओ- अ'रब की तरफ़ मुत्वाज्जिह हुए। जब क़स्बा हारून में कि नवाही-ए-नेशापूर में है, पहुँचे मंबा-ए-जूद-ओ-एहसान, क़ुतुब-ए-आसमान-ए-उराफ़ा ख़्वाजा उसमान हारूनी की ख़िदमत में हाज़िर हुए। ख़्वाजा हारूनी रहमतुल्लाहि अलैहि अकाबिर-ए-मशाइख़ से हुए हैं। लिखा है कि एक वक़्त हज़रत ख़्वाजा उसमान का गुज़र मुग़ों के मस्कन में हुआ वहाँ बहुत बड़ा आतिश-ख़ाना था, उस में हर-रोज़ बीस छकड़े लकड़ियाँ डाली जाती थीं उस के क़रीब फ़िरोकश हुए। आप का ख़ादिम चाहता था कि इफ़्तार के वास्ते रोटी पकाए। आग लेने के वास्ते जब उधर गया मुग़ों ने पहचाना कि मुसलमान है, माने' हुए। ख़ादिम ने आ कर हज़रत से हाल अ'र्ज़ किया। आप वुज़ू कर के आतिश-कदे की तरफ़ तशरीफ़ ले गए। मुख़्तार नाम, जो आतिश परस्तों का सरदार था, उस की गोद में एक सात बरस का लड़का था, आप ने उस मुग़ से पूछा कि तुम लोग इस आग की परस्तिश किस वास्ते करते हो और जो कि आग और कुल मख़्लूक़ का ख़ालिक़ है उस की इबादत नहीं करते। उस ने जवाब दिया कि हमारे दीन में आग का बड़ा रुत्बा है और हम इस वास्ते उस की परस्तिश करते हैं कि क़यामत के रोज़ हम को ना जलाए। आप ने कहा कि इतने साल से तुम आतिश- परस्ती करते हो ऐसा भी हो सकता है कि तुम आग को हाथ पर रखो और ना जलाए, उस ने कहा कि आग की ख़ासीयत जलाना है।ऐसा नहीं हो सकता ये कह कर आप ने उस लड़के को उस मुग़ की बग़ल से अपनी गोद में ले कर आग का क़स्द फ़रमाया। मुग़ों ने शोर किया कि ऐ शैख़ ये क्या करता है। हज़रत बिसमिल्लाहिर रहमानिर रहीम पढ़ कर ज़बान पर लाए क़ुल्ना या नारू कूनी बरदन व सलामन अ’ला इब्राहीम व अरादू बिहि कयदन फ़-जअ’लनाहुमुलआख़रीन। (तर्जुमा:हम ने कहा कि ए आग ठंडी हो जा और इब्राहीम पर सलामती और उन्हों ने इब्राहीम के साथ फ़रेब का इरादा किया पस उस को बहुत ख़सारा पाने वालों में से किया) और आग में दाख़िल हुए। कई हज़ार आतिशपरस्त वहाँ मौजूद थे। सब ने ग़ुल मचाया, थोड़ी देर बाद आप तिफ़्ल के साथ आग से बाहर आए और लड़के और आप के जामा-ए-मुबारक पर भी आग का असर ना पहुंचा। मुग़ों ने लड़के से पूछा तू ने उस आतिश-ख़ाना में क्या देखा, कहा कि वहाँ एक बाग़ था, उस में तरह तरह के फूल खिले थे और अ’जीब बहार थी। मुग़ों ने जब ये करामत देखी सभों ने इख़्लास की रू से अपना सर पा-ए -मुक़द्दस पर रखा और सिद्क़ दिल से कलिमा पढ़ कर मुसलमान हुए। आप ने मुख़्तार का नाम शैख़ अबदुल्लाह और लड़के का नाम इब्राहीम रखा। ये दोनों कामिल वली हुए। फिर मुग़ों ने उस आतिश-ख़ाना को ख़ाना-ए-ख़ुदा बनाया और इबादत में मशग़ूल हुए।ढाई बरस तक आप वहाँ मुक़ीम रहे। हज़रत ख़्वाजा उसमान हारूनी की वफ़ात मक्का मुअज़्ज़मा में माह-ए-शव्वाल की छट्ठी तारीख़ वाक़े' हुई। अल-ग़र्ज़ हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन रहमतुल्लाह अलैहि ने बीस साल और छः माह हज़रत की ख़िदमत में रियाज़त और मुजाहिदा के साथ बसर किए और काम को अंजाम पर पहुंचाया। आप सफ़र-ओ-हज़र में अप ने पीर-ओ- मुर्शिद का जामा-ए-ख़्वाब और छागल और जानमाज़ वग़ैरा अपने सर पर लिए फिरते थे, फिर मुर्शिद से ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त हासिल कर के क़स्बा संजर में तशरीफ़ लाए। दो माह और पंद्रह रोज़ वहाँ रह कर जीलान में पहुँचे और शैख़ मुहीउद्दीन अबदुलक़ादिर जीलानी की ख़िदमत में हाज़िर हुए। कस्बा जील बग़दादशरीफ़ से सात रोज़ की राह है। आप पाँच महीने और सात रोज़ ग़ौसुल आ'ज़म रहमतुल्लाहि अलैहि की सोहबत में रहे। ख़्वाजा साहिब का हुजरा-ए-मुतबर्रका उस मक़ाम-ए-फ़र्रुख़ में अब तक मौजूद है। फिर वहाँ से हमदान में और हमदान से तबरेज़ में पहुँचे और वहाँ के बुज़ुर्गों से मुलाक़ात की। नक़्ल है कि शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊद गंज शक्र रहमतुल्लाहि अलैहि ने फ़रमाया कि मैंने अपने पीर ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन अहमद बिन मूसा ओशी से सुना कि फ़रमाते थे कि मेरे पीर-ओ-मुर्शिद ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिशती अलैहिर रहमत रियाज़त-ओ-मुजाहिदा-ए-अ’ज़ीम रखते थे। सात रोज़ के बाद एक रोटी के टुकड़े को जो पाँच मिस्क़ाल से ज़्यादा (एक मिस्क़ाल साढे़ चार माशा का होता है)ना होता था, पानी में भिगो कर इफ़्तार करते थे और शैख़ निज़ामुद्दीन बदाओनी से मन्क़ूल है कि ख़्वाजा दोताई बख़ीया-ज़दा पहनते थे और हर जिन्स के पुराने कपड़ों से पैवंद लगाते थे और शैख़ शक्र गंज ने फ़वाइदुलफ़वाद में तहरीर फ़रमाया है कि मैंने इस दोताई को देखा है। लिखा है कि वह जामा-ए-मुतबर्रका शैख़ निज़ामुद्दीन को मिला और कहते हैं कि ख़िर्क़ा भी पाया और हज़रत ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ ने जब हज़रत ख़्वाजा उसमान अलैहिर रहमत से ख़िर्क़ा हासिल किया आप की उम्र बावन साल की थी और मशग़ूली-ए-कामिल रखते थे और अक्सर क़दम तज्रीद-ओ-तफ़्रीद के साथ सफ़र करते और जहाँ पहुँचते अक्सर क़ब्रिस्तान में रहते और हर रोज़ क़ुरआन-ए-मजीद के दो ख़त्म लाज़िम फ़रमाए थे और आप चाहते थे कोई शख़्स आप के हाल से वाक़िफ़ ना हो। जब कोई मुत्तला’ हो जाता फिर वहाँ तवक़्क़ुफ़ ना फ़रमाते और इज़हार-ए-करामत-ओ- ख़वारिक़ से इज्तिनाब रखते थे और ख़्वाजा हारूनी रहम्तुल्लाहि अलैहि ने फ़रमाया कि मुईनुद्दीन, अल्लाह ता’ला का महबूब है और मुझे उस के मुरीद होने से फ़ख़्र है और जब आप अपने पीर-ए-बर-हक़ से मुरख़्ख़स हुए बग़दाद शरीफ़ और तबरेज़ और अस्तराबाद और हिरात में एक मुद्दत तक क़याम पज़ीर रहे। अक्सर रातों को शैख़ उल-इस्लाम शैख़ अबदुल्लाह अंसारी रहमतुल्लाहि अलैहि के बुक़्आ-ए-शरीफा में रहते और दिन को सैर में गुज़ारते थे और एक मक़ाम में कम क़याम फ़रमाते थे और एक ख़ादिम के सिवा दूसरा ख़िदमत में नहीं रहता था और अक्सर सुब्ह की नमाज़ इशा के वुज़ू से अदा करते थे। जब हिरात में शोहरत पाई क़दम-ए-मुबारक से सब्ज़वार को रौनक़ बख़्शी। वहाँ का हाकिम मुहम्मद यादगार नाम बे- दियानती और बद-ख़ुल्क़ी और ज़ुल्म के साथ मशहूर था। आप उस के बाग़ में तशरीफ़ ला कर हौज़ के किनारे पर बैठे। वो भी वहाँ आया,जब उस की आँख हज़रत पर पड़ी, उस के तमाम आ’ज़ा में लर्ज़ा पड़ा और औंधे मुंह गिर कर बेहोश हो गया और उस के रफ़ीक़ों पर ख़ौफ़ ग़ालिब हुआ। आप ने उस हौज़ का पानी उस के मुँह पर मारा, वह होश में आया। फिर हज़रत ने बुलंद आवाज़ से फ़रमाया कि तूने तौबा की। उस ने इज्ज़-ए-तमाम के साथ कहा कि मैंने तौबा की और जो लोग उस के हमराह थे, वो ताइब हुए।फिर आप ने फ़रमाया कि वुज़ू कर के दोगाना-ए-शुक्र अदा करो सब ने अदा किया और फिर मुहम्मद यादगार अपने ताबईन के साथ आप का मुरीद हुआ और जो कुछ उस के तसर्रुफ़ में था राह-ए-ख़ुदा में सर्फ़ किया फिर हज़रत ख़्वाजा वहाँ से बलख़ को तशरीफ़ ले गए। उस जगह एक हकीम था, ज़ियाउद्दीन नाम, वह अह्ल-ए-तसव्वुफ़ की तरफ़ से बद-ए’तिक़ाद था। कहता था कि इल्म-ए-तसव्वुफ़ एक हिज़्यान है कि तब-ज़दा और दीवाना ज़बान पर लाते हैं और आप के ख़ादिम के साथ तीर-ओ-कमान और चक़माक़ और नमकदाँ के साथ रहता था। जब कभी आबादी से दूर पड़ते, जंगल में गुज़रते और क़ूत के वास्ते शिकार कर के बे-शुबहा लुक़्मा से इफ़्तार फ़रमाते एक दिन एक कुलंग का शिकार किया था। जब शहर में दाख़िल हुए जहाँ हकीम ज़ियाउद्दीन इल्म-ओ-हिक्मत का दर्स कहता था, वहाँ आप का गुज़र हुआ। एक दरख़्त के नीचे बैठे ख़ादिम कबाब बनाता था और हज़रत मख़दूम नमाज़ में मशग़ूल थे। हकीम ने देख कर चाहा कि वहाँ जा कर बैठे और कबाब से एक हिस्सा पाए। आप के दीदार के मुशाहिदे से हकीम के दिल में असर-ए-अ’ज़ीम पैदा हुआ। जब आप नमाज़ से फ़ारिग़ हुए हकीम ने सलाम किया और ख़ादिम ने हज़रत की ख़िदमत में कबाब हाज़िर किए। आप हकीम की ख़्वाहिश पर वाक़िफ़ हुए और बिस्मिल्लाह कह कर कबाब से एक रान अ’ता किया और आप कबाब खाने में मशग़ूल हुए। उस के खाते ही ज़ियाउद्दीन के सीना से फ़ल्सफ़्यात की तारीकी यक-बारगी ज़ाइल हुई। नूर-ए-मा’रिफ़त दिल में चमका और बे-ख़ुदी तारी हुई। उस हाल में आप ने उस कबाब का कुछ गोश्त दहन-ए-मुबारक से झूटा कर के उस के मुँह में डाला, वह होश में हुआ। हासिल-ए-कलाम फ़ल्सफ़ा की तमाम किताबों को पानी में डाल कर अपने शागिर्दों के साथ ताइब और आप का मुरीद हुआ। बादहु आप ने लाहौर का क़स्द फ़रमाया। फिर दिल्ली में तशरीफ़ लाए। चंद रोज़ वहाँ इक़ामत की। जब ख़िल्क़त का हुजूम बहुत हुआ, अजमेर की तरफ़ मुतवज्जिह हुए। नक़्ल है कि जब आप अपने पीर से ने'मत हासिल कर के मक्का में पहुँचे और उस जगह से मदीना को तशरीफ़ ले गए, एक मुद्दत तक वहाँ मशग़ूल रहे। एक रोज़ हज़रत सल्लालाहु अलैहि वसल्लम के रौज़ा-ए-मुक़द्दसा से आवाज़ आई कि ऐ मुईनुद्दीन तू हमारे दीन का मुईन है, हिन्दोस्तान की विलायत तुझ को हवाला हुई। वहाँ जा कर अजमेर में इक़ामत कर, उस सरज़मीन में कुफ़्र का बहुत ग़लबा है। तेरे जाने से इस्लाम क़ुबूल होगा। ये सुन कर ख़्वाजा साहिब को हैरत हुई कि अजमेर किधर है। इस फ़िक्र में आप को कुछ ग़ुनूदगी पैदा हुई और रसूल-ए-मक़बूल को वाक़िआ' में देखा। सय्यदुस-सक़लौन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक तुरफ़ातुल-ऐन में तमाम आ’लम, अज़्म-ए-मुसम्मम से मग़रिब तक ख़्वाजा साहिब को दिखाया और अजमेर के क़िला और पहाड़ों का निशान बतलाया और एक अनार अ'ता कर के कहा कि जा मैंने तुझे ख़ुदा को सौंपा। अल-क़िस्सा आप ने मदीना से मुल्क-ए-हिन्द का अज़्म-ए-मुसम्मम फ़रमाया और आप शहरों की सैर करते हुए और मशाइख़ और दरवेशों से मिलते हुए आते थे और चालीस आदमी मो'तक़िदीन और मुरीदों से हमराह थे। उस वक़्त अजमेर का हाकिम पिथौरा नाम का था। उस की माँ इल्म-ए-नुजूम से बहरा-ए-वाफ़िर रखती थी। उस ने आप के वहाँ पहुँचने से बारह बरस पहले पिथौरा से कहा था एक मर्द-ए-बुज़ुर्ग पैदा होगा जिस के सबब तेरी दौलत और सल्तनत बर्बाद होगी। इस सबब से वह हमेशा अंदोहगीं रहता था और पिथौरा की वालिदा ने आप का हुल्या लिख कर उस को दिया था। उस ने वह हुल्या लिखवा कर जा बजा भेजा था और हुक्म दिया था कि जिस को इस हुल्या के मुताबिक़ पाओ उस को गिरफ़्तार कर लाओ। रिवायत है कि जब आप क़स्बा समाना में तशरीफ़ लाए पिथौरा के आदमीयों ने आप को इस हुल्या के मुताबिक़ पा कर अज़ राह-ए-फ़रेब, तमल्लुक़–ओ-तवाज़ो’ से पेश आ कर कहा कि हम ने आप के वास्ते एक मुनासिब जगह मुअ’य्यन की है, आप यहाँ तशरीफ़ रखें। ख़्वाजा साहिब ने मुराक़िबा किया और मुकाशफ़ा के आ’लम में रसूल-ए-करीम सल्लललाहु अलैहि वसल्लम को देखा कि फ़रमाते हैं कि मुइनुद्दीन इस गिरोह-ए-ना-हंजार के क़ौल का ए’तबार ना कर ये तुझ को मज़र्रत पहुँचाना चाहते हैं। आप ने इस अम्र से ख़बरदार हो कर उन से इंकार किया और अपने हम-राहियों को इस हाल से इत्तिला' बख़्शी फिर अजमेर का क़स्द फ़रमाया। जब आप अजमेर में पहुँचे चाहा कि एक दरख़्त के तले क़याम करें, एक शख़्स ने आवाज़ दी कि यहाँ राजा के ऊंट बाँधे जाते हैं और कहीं ठहरो। आप ने फ़रमाया कि अच्छा हम और जगह जाते हैं बा’दहु ख़्वाजा साहिब अन्ना सागर के किनारे पर पहाड़ के मुत्तसिल फ़िरोकश हुए और राजा के ऊंट जो वहाँ बाँधे गए, हर-चंद सारबानों ने उठाया अपनी जगह से ना हिले। पृथ्वी राज यह बात सुन कर बहुत मलूल हुआ। लिखा है कि उस वक़्त कई हज़ार बुत-ख़ाना सागर के किनारे पर थे और उन में कई मन रोग़न और फूलों का रोज़मर्रा सर्फ़ था। नक़्ल है कि जब अन्ना सागर के किनारे क़याम पज़ीर हुए, एक ख़ादिम ने एक शिकार के कबाब तैयार किए। हुनूद का जिगर आतिश-ए-ग़ैरत से कबाब हुआ और आप के आदमी जब वुज़ू और ग़ुस्ल के वास्ते उधर गए, वो लोग माने' हुए। ख़्वाजा वाला सिफ़ात ने जब ये बात सुनी, एक मुरीद से कहा कि इस छागल में तालाब से पानी भर ला। जब उस ने भरा तो तमाम सागर का पानी ख़ुश्क हो और उस शहर और उस के हवाली में जहाँ कोई चश्मा या पानी था बे-आब हुआ, बल्कि चौपायों और बच्चा-दार औरतों का दूध भी पिस्तानों में सूख गया। कहते हैं कि एक जिन जिस को पिथौरा और उस का बाप और अह्ल-ए-शहर पूजते थे और अपना इक़बाल-ओ-दौलत उस की बदौलत जानते थे और चंद परगना उस के ख़र्च के वास्ते वक़्फ़ किए थे वह जिन तरसाँ और लर्ज़ां आप के पाँव पर आ गिरा और मुसलमान हुआ। हज़रत ने मुनादी उस का नाम रखा। अल-हासिल जब यह ख़बर पिथौरा को पहुँची उस की वालिदा ने कहा कि ये वही शख़्स है जिस के आने की ख़बर मैंने तुझे दी थी। ख़बरदार उस शख़्स से कुछ झगड़ा ना करना बल्कि उस को बहुत ख़ुश रखना। रिवायत है कि रानी पिथौरा ने अजय पाल जोगी के पास जो बड़ा जादूगर था, अपना आदमी भेजा। उस ने ये जवाब दिया कि इस साहिब से यूँ अ’र्ज़ करना कि आप इतमीनान रखें, ये सब जादू है, मैं इस का ईलाज ब-ख़ूबी तमाम करूँगा। यह सुन कर पिथौरा ने कहला भेजा कि मैं वहाँ जाता हूँ तू अपना बंद-ओ-बस्त कर के जल्द आ। राजा अस्ना-ए-राह में ख़्वाजा साहिब की निस्बत इज़ा-रसानी का इरादा करता था, अंधा हो जाता था और जब उस क़स्द से बाज़ आता बीनाई पाता था। इस तरह सात बार बीना और नाबीना हुआ। आख़िर इरादा-ए-फ़ासिद दिल से बाहर किया और ख़िदमत में हाज़िर हुआ। अजय पाल भी सात सौ मार-ए-ख़ूँख़ार जो जादू से उस के मुसख़्ख़र थे और एक हज़ार पाँच सौ चक्कर कि हवा में मुअ'ल्लक़ हो कर दुश्मनों के सर पर गिरते थे और सात सौ शागिर्दों के हमराह आ पहुंचा और तरह तरह के जादू चलाए मगर कोई कारगर ना हुआ और जब चक्करों को हवा पर पहुँचा कर आप की तरफ़ पहुँचता था वह बर्गशता हो कर उस के शागिर्दों पर गिर कर हाथ-पाँव तोड़ते थे और ज़ख़्मी करते थे और जो साँप जादू के ज़ोर से चलाता था वह सब ज़मीन में समा जाते थे और लिखा है कि अजय पाल जब किसी से जंग करता,कोई शख़्स उस से लश्कर-ए-ग़नीम के मग़्लूब करने के वास्ते मदद चाहता वह उन चक्रों को कोसों तक रवाँ करता था, वह जा कर दुश्मनों के सर उड़ा देते थे। अल-क़िस्सा जब अजय पाल हर तरह से आ’जिज़ हुआ तो उस ने फ़िलहाल हिरन की खाल हवा पर फेंकी वो मुअल्लक़ ठहर गई और आप दम खींच कर और जस्त मार कर उस पर जा बैठा और दम ब-दम आसमान की तरफ़ अड़ा जाता था और उस के आदमी बहुत ख़ुश होते थे। हज़रत ने थोड़ी देर के बाद मुराक़िबा से सर उठा कर फ़रमाया कि अजय पाल कहाँ तक पहुंचा है। आप के मो'तक़िदीन से एक ने अ’र्ज़ किया कि एक परिंदा के बराबर मा’लूम होता है। फिर आप ने एक लम्हा के बाद इस्तिफ़सार किया कि अब कितनी बुलंदी पर है, कहा कि नज़र से ग़ायब है। ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान ने अपने ना’लैन को इशारा किया वह फ़िल-फ़ौर हवा की तरफ़ उड़ा और जोगी के सर पर पहुँच कर ज़द-ओ-कूब शुरू कर दिया। अजय पाल के नाला-ओ- फ़रियाद की आवाज़ हाज़िरीन-ए-जल्सा सुनते थे। अल-मुख़्तसर वह ना’लैन उस को मारते मारते हवा से ज़मीन पर उतार लाए। अजय पाल हज़रत के पाँव पर गिरा और अमान चाही। आप ने इशारा से मनअ' फ़रमाया। ज़र्बें मौक़ूफ़ हुईं। जब पिथौरा और अजय पाल ने ये हाल देखा तज़र्रोअ’ और ज़ारी करने लगे और सागर के पुर-आब होने और ऊंटों के बारे में इल्तिजा की। ख़्वाजा साहिब ने अजय पाल से फ़रमाया कि छागल को ऊठा ला। उस ने हर-चंद ज़ोर किया उठा ना सका। फिर आप ने शादी जिन से ईमा किया वह उठा लाया। आप ने उस से थोड़ा सा पानी सागर की तरफ़ छिड़का। उस फ़ैज़-मआब के फ़ैज़ से सब हौज़ और चश्मे और कुँवें पुर-आब हो गए और ऊंट भी उठ कर चरागाह को गए। इन करामतों के ज़ाहिर होने और मुत्तला’ हो जाने से मुख़ालिफ़ीन बहुत हैरान और पशेमान हुए और कहा कि हम ने तमाम उम्र उस जिन की परस्तिश और अजय पाल की ख़िदमत की और उन के वास्ते खज़ाने सर्फ़ हुए मगर कुछ काम ना आया। अल-ग़र्ज़ अजय पाल ने दस्त-बस्ता अ’र्ज़ किया कि हज़रत को मक़ामात में कहाँ तक रसाई है। आप ने मुराक़िबा किया और रूह मज़हर-ए-आलम-ए-मलकूत में दाख़िल हुई। अजय पाल बहुत मुजाहिदा और रियाज़त किए हुए था। उस की रूह को क़ुव्वत-ए-इस्तिदराज हासिल थी। उस की रूह आप की रूह-ए-मुबारक के पीछे पीछे जा रही थी यहाँ तक कि वो पहले आसमान पर गुज़री। ख़्वाजा चिशती की रूह ने बाला-ए-फ़लक उरूज फ़रमाया और अजय पाल की रूह आसमान पर ना जा सकी। तज़र्रोअ’-ओ-ज़ारी की कि मुझे भी हमराह ले चलिए आप की रूह-ए-मुक़द्दस उस की रूह को साथ ले कर अर्श-ए-मुअ’ल्ला तक पहुँची और आप की रूह की बरकत से अजय पाल की रूह के सामने से हिजाब उठ गया था। फ़रिश्ते हर मक़ाम पर जो ख़्वाजा साहिब की ताज़ीम-ओ-तकरीम करते थे, यह सब देखते थे। जब रूह-ए-मुतह्हर मंज़िल-ए-क़ुर्ब पर पहुँची अजय पाल की रूह आगे जाने ना पाई। बहुत गिड़गिड़ाई और अ'र्ज़ किया कि मुझे तन्हा ना छोड़िए कि मैं भी हक़-तआ’ला की क़ुदरत का तमाशा करूँ। हज़रत की रूह ने फ़रमाया कि तू जब तक सिद्क़-ए-दिल से ख़ुदा-ए-मुतलक़ और रसूल-ए-बर-हक़ पर ईमान ना लाएगा, आगे दाख़िल ना हो पाएगा। अजय पाल की रूह ने ख़ुलूस-ए-दिल के साथ कहा ला-इलाहा इल-लल्लाह मुहम्मदुर रसूलुल्लाह और ईमान लाया। फिर इल्तिमास किया कि या हज़रत एक ये तमन्ना और है कि मैं क़यामत तक ज़िंदा रहूं। आप ने मुनाजात की, आवाज़ आई कि तेरी दुआ' क़ुबूल हुई। फिर ख़्वाजा साहिब ने अपना हाथ अजय पाल के सर पर रख कर फ़रमाया कि तू क़यामत तक ज़िंदा रहेगा। अल-क़िस्सा दोनों रूहों ने दोज़ख़ और बहिश्त और अर्श-ओ- कुर्सी वग़ैरा की सैर कर के आलम-ए-सिफ़्ली की तरफ़ रुजूअ' किया। जब आप ने आँख मुराक़िबा से खोली अजय पाल कलिमा तय्यबा कहता हुआ क़दमों पर गिरा। वहाँ एक ख़िल्क़त का हुजूम था। यह हाल देख कर सब हैरत में आए और राय पिथौरा और उस के गिरोह के आदमी नादिम-ओ- शर्मिंदा हो कर घर को रवाना हुए। कहते हैं कि अजय पाल अब तक ज़िंदा है और अजमेर के कोहिस्तान में अक्सर मशग़ूल-ए-इबादत रहता है और ख़्वाजा के रौज़ा-ए-मुबारक को आया करता है। मन्क़ूल है कि आप ने राय पिथौरा को इस्लाम की हिदायत फ़रमाई। वह कज-राय, शक़ी-ए-अज़ली ईमान ना लाया और आप की बद-दुआ से लश्कर-ए-इस्लाम के हाथों गिरफ़्तार हो कर दाखिल-ए-जहन्नम हुआ। उस का ज़िक्र आगे आएगा। इंशाअल्लाह ता’ला।
अल-क़िस्सा यह कि अजय पाल और शादी जिन आप को बहुत मिन्नत और आ’जिज़ी कर के शहर में लाए। आप ने शादी जिन का मक़ाम ब-ख़ुशी-ए-तमाम इख़्तियार फ़रमाया और वहाँ इबादत-ख़ाना और मतबख़ बनाया और जहाँ बावरीची-ख़ाना था, अब वहाँ आप का रौज़ा-ए-मुनव्वरा है। हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी से मर्वी है कि मैं बीस साल तक हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान की ख़िदमत में रहा, हरगिज़ ना देखा कि किसी को अपने पास आने दिया हो और जब मतबख़ में कुछ ना रहता तो ख़ादिम आ कर अ’र्ज़ करता। आप मुसल्ला उठा कर फ़रमाते कि इतना ख़र्च ले कि आज और कल के वास्ते किफ़ायत करे। ख़ादिम उसी क़दर लेता। हमेशा दरवेशों को वज़ीफ़ा आप की तरफ़ से पहुँचता था और जो कोई मुसाफ़िर या मरीज़ आता दिल का मक़्सद पाता। मुसल्ला के नीचे हाथ डाल कर जो कुछ मिलता अ’ता फ़रमाते और चारा-जोई करते। हज़रत क़ुतुबुल-अक़ताब से मज़कूर है कि एक शख़्स पिथौरा के यहाँ से मुरीद होने के इरादे से हाज़िर हुआ। आप ने उस को मुरीद ना किया। वह वापस गया और पिथौरा से आप का शिक्वा किया। उस ने एक शख़्स आप के पास भेजा और पैग़ाम दिया कि आप ने उस शख़्स को किस वास्ते मुरीद नहीं किया। फ़रमाया कि उस की तीन वजहें हैं। अव़्वल यह कि वह बड़ा गुनहगार है। दूसरे यह कि हम उस आदमी को कुलाह नहीं देते जो दूसरे के सामने सर झुका दे। तीसरी ये कि हमने लौह-ए-महफ़ूज़ में लिखा देखा है कि वह इस जहान से बे-ईमान जाएगा। राजा ने जब ये बात सुनी ग़ज़बनाक हो कर कहा कि ये दरवेश ग़ैब की बातें कहता है। इस से कह दो कि इस शहर से बाहर चला जाए। हज़रत ने जब ये पैग़ाम सुना मुतबस्सिम हो कर फ़रमाया कि उस से कह देना कि हमारे और तेरे दरम्यान तीन दिन की मोहलत है। या हम चले जाऐंगे या तू। चुनांचे ऐसा ही हुआ कि तीन रोज़ के बाद सुल्तान मुइज़ुद्दीन बिन साम का लश्कर-ए-इस्लाम अजमेर में आ पहुंचा और फ़तहयाब हो कर राजा को गिरफ़्तार किया और वह शख़्स जो मुरीद होने के वास्ते आया था उसी तहलका में दरिया में डूब कर मर गया। और पिथौरा पर आप के ख़शमगीं होने का सबब इस तरह भी लिखा हुआ देखा कि पिथौरा एक मुसलमान को रंजीदा करता था और वह आप के पास शिकायत लाया।आप ने अपना आदमी भेज कर उस को इस फ़े'ल-ए-शनीअ' से मनअ' फ़रमाया मगर वह बाज़ ना आया। जब आप इस बात से वाक़िफ़ हुए, ग़ुस्सा में आ कर कहा कि हम ने पिथौरा को ज़िंदा गिरफ़्तार कर के दिया। उन्हीं दिनों में सुल्तान ग़ौरी लश्कर-ए-जर्रार के साथ नवाही-ए-अजमेर में आ पहुंचा और पिथौरा लश्कर-ए-इस्लाम से मुक़ाबला कर के ज़िंदा गिरफ़्तार हुआ। तभी से हिन्दोस्तान में दीन-ए-इस्लाम ने क़ुव्वत पाई और कुफ़्र-ओ-ज़लालत की जड़ उखाड़ी गई। ‘अलहमदुलिल्लाहि अ’ला ज़ालिका’
हज़रत ख़्वाजा ग़रीबनवाज़ रहमतुल्लाहि अलैहि के बा’ज़ कलिमात-ए-क़ुदसी
फ़रमाया कि आशिक़ का दिल मोहब्बत का आतिशकदा है जो कुछ इस में आए जल जाये और नाचीज़ हो किस वास्ते कि कोई आग आतिश-ए-मोहब्बत से ज़्यादा नहीं और नदियाँ जब जारी होती हैं, उन से शोर और आवाज़ पैदा होती है और जब दरिया में मिल जाती हैं तो आवाज़ नहीं होती। इसी तरह जब तालिब ज़ात-ए-हक़ से वासिल होता है ख़ामोश रहता है और जोश-ओ-ख़रोश-ए-दुनयवी ज़ाइल हो जाता है और फ़रमाया कि मेरे पीर –ओ-मुर्शिद ने फ़रमाया कि ख़ुदा-ए-ता’ला के ऐसे दोस्त हैं कि अगर दुनिया में थोड़ी देर भी मह्जूब हूँ नाबूद हो जाएं और जिस शख़्स में ये तीन ख़स्लतें होंगी अल्लाह ता'ला उस को दोस्त रखेगा। अव़्वल सख़ावत। सख़ावत दरिया की मानिंद है। दूसरी शफ़क़त। शफ़क़त आफ़ताब की मिसाल है कि तमाम जहान में इस का नूर और फ़ैज़ पहुँचता है। तीसरी तवाज़ो', ज़मीन की तवाज़ो' की तरह और फ़रमाया कि नेकों की सोहबत, कार-ए-नेक से बेहतर है। और मुरीद तौबा में उस वक़्त साबित-क़दम होता है कि बाएं तरफ़ का फ़रिश्ता बीस बरस तक उस का कोई गुनाह ना लिखे और सूफ़ी फ़क़्र का मुस्तहिक़ जब होता है कि आलम-ए-फ़ानी में उस से कुछ बाक़ी ना रहे और मुहिब वह है कि मुतीअ’ हो और इस बात से डरे कि दोस्त मुझ को निकाल ना दे और आरिफ़ का एक मर्तबा यह है कि जब वो इस मुक़ाम पर पहुँचता है तो तमाम आ’लम और कुछ उस में है उसे अपनी दो अंगुश्त के दरम्यान देखता है।
और आरिफ़ वह है कि जो कुछ वह चाहे वह सामने आ जाए और जिस चीज़ से कलाम करे उस से जवाब पाए और फ़रमाया कि हम बरसों इस काम के दर-पे रहे आख़िर-कार हैअत के सिवा कुछ नसीब ना हुआ और इरशाद किया कि गुनाह इतना ज़रर नहीं रखता जितना बिरादर-ए-मुसलमान को ख़्वार रखना और जब तक मोहब्बत, हक़ के सैक़ल से दुनिया के ज़ंगार,दिल के आईना से दूर ना करे और अल्लाह ता’ला के ज़िक्र से मुवानिसत ना पकड़े और जब तक ग़ैर की हस्ती दरम्यान से ना उठे बंदा हरगिज़ वासिल नहीं हो सकता और ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा व जल्ला को पहचानने की शनाख़्त खिल्क़त
से भागना और मा’रिफ़त के हाल में ख़ामोश रहना है और सालिक जब तक मा’रिफ़त को याद ना करे आरिफ़ नहीं और आरिफ़ वह शख़्स है कि ग़ैर -ए -ख़ुदा को दिल से उठा दे कि यगाना हो जाए जिस तरह दोस्त यगाना है और अह्ल-ए-मोहब्बत वह हैं कि उन के और हक़ उताला के दरम्यान कोई हिजाब ना हो और आरिफ़ वह है कि अंदोह्गीन और दर्द मंद हो और जिस ने नेअ’मत पाई सख़ावत –ओ-करम से। और चार चीज़ें गौहर-ए-नफ़्स हैं। अव़्वल दरवेशी को तवंगरी दिखलाए। दूसरी गुर्संगी कि सेरी ज़ाहिर करे। तीसरी अनदोहगीनी कि खुर्रमी का पैराया रखती हो। चौथी वह कि दुश्मन के साथ दोस्ती करे। और फ़रमाया कि हज़रत ख़्वाजा उसमान अलैहिर रहमत फ़रमाते थे कि मोमिन वह है कि तीन चीज़ों को दोस्त रखे। पहली चीज़ फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा का। दूसरी चीज़ बीमारी। तीसरी चीज़ मौत जो शख़्स इन तीन चीज़ों को दोस्त रखेगा अल्लाह ता’ला और उस के फ़रिश्ते उस को दोस्त रखेंगे और बहिश्त उस की जगह होगी और दरवेश वह है कि जो कोई अह्ल-ए-ईमान उस के पास हाजत लाए उस को महरूम ना रखे और आरिफ़ वह है कि जहान से दिल-बर्दाश्ता रहे और मुतवक्किल वह है कि खल्क़ से रंज-ओ-मेहनत को मुंक़तेअ करे ना किसी से हिकायत करे ना शिकायत। और आरिफ़-तरीन खल्क़ वह है कि मुतहय्यिर हो और आरिफ़ वह है कि जब सुब्ह को उठे रात की याद ना आवे और इरशाद किया कि मौत को दोस्त रखना और राहत को छोड़ना और याद-ए-मौला के साथ मानूस होना आरिफ़ की अ’लामत है और फ़ाज़िल-तरीन औक़ात वह है कि वसवास का दरवाज़ा ख़ातिर पर बंधा हुआ हो और ईलम बह्र-ए-मुहीत है और मा’रिफ़त उस की एक नदी है पस ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग कहाँ और बंदा कहाँ, अल्लाह ता’ला को इल्म है और बंदे को मा’रिफ़त और हाल-ए- मा’रिफ़त आफ़ताब की मानिंद हैं कि तमाम आ’लम पर टिकती हैं और आदमी मंज़िल गाह-ए-क़ुर्ब में नहीं पहुँचता मगर एहतिमाम-ए-नमाज़ से इसलिए कि नमाज़ मोमिन की मे’राज है और इरशाद किया कि मैं एक मुद्दत तक का’बा के गिर्द तवाफ़ करता था जब से वासिल-ए-हक़ हुआ हूँ का’बा मेरे गिर्द तवाफ़ करता है और बयान फ़रमाया या कि जसद-ए-हज़रत-ए-आदम अलैहिस-सलाम से लग़्ज़िश वाक़ेअ’ हुई तमाम चीज़ों ने हज़रत-ए-आदम पर ज़ारी की मगर ज़र-ओ-सीम ने नहीं की, रु-ए-हक़ ता’ला ने फ़रमाया कि तुम क्यों नहीं रोए कहा कि इलाही जो तेरा आ’सी हो हम उस पर गिर्या नहीं करते अल्लाह ता’ला ने फ़रमाया कि अपनी इज़्ज़त –ओ-जलाल की क़सम कि मैं तुम्हारी क़ुदरत-ओ-क़ीमत और जो कुछ तुम्हारी क़िस्म से हो फ़रज़ंद-ए-आदम पर आश्कारा करूँगा और उन को तुम्हारा ग़ुलाम बनाऊँगा और फ़रमाया कि मैंने रियाज़ में लिखा देखा है कि एक वक़्त हज़रत रसूल-ए-अकरम सल्लललाहु अलैहि वसल्लम एक जमाअ’त पर गुज़रे वह जमाअ’त हँसती थी। आप ने उन को सलाम किया। सब ता’ज़ीम को उठे और सलाम का जवाब दिया। फिर सरवर-ए-कायनात अलैहिस सलाम ने फ़रमाया कि क्या तुम गोर की मंज़िल से गुज़र चुके हो, कहा नहीं, फिर फ़रमाया कि अ’ज़ाब-ओ- दोज़ख़ से रहा हो गए हो कहा नहीं। इरशाद किया फिर तुम क्यों हंसते हो सभों ने तौबा किया फिर उन को किसी ने ख़ंदाँ ना देखा और ख़्वाजा साहिब ने फ़रमाया कि आरिफ़ उस को कहते हैं कि हर-रोज़ उस पर सौ हज़ार तजल्ली नाज़िल हो और एक शम्मा इज़हार ना करे और साहिब-ए मा’रिफ़त वह है कि सब इल्म जाने और हज़ार मआ’नी बयान करे और हर वक़्त दरिया-ए-मा’रिफ़त मैं शनावरी करे कि एक मोती असरार-ए-इलाही के मोतीयों से बाहर ला दे और अगर जौहरी मुबस्सिर के सामने बयान करे मा’लूम हो कि वह आरिफ़ है और अह्ल-ए-मोहब्बत की तौबा तीन तरह पर है अव्वल नदामत, दूसरी क़त्अ’-ए-मुआ’मलत, तीसरी तर्क-ए-मा’सियत। और ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा-व-जल्ला के दोस्त तीन सिफ़त के साथ क़ायम हैं। एक क़ुव्वत-ए-साइम यानी रोज़ा रखने की क़ुव्वत, दूसरी नमाज़-ए-दाइम, तीसरी ज़िक्र-ए-क़ायम। और तरीक़-ए-मोहब्बत में आरिफ़ वह है कि किसी चीज़ पर उस को उज्ब-ओ- तकब्बुर ना हो इसलिए कि दा’वा और तस्लीम जम्अ’ नहीं हो सकते और फ़रमाया कि हम साँप की तरह केंचुली से बाहर आए और जब निगाह की तो इशक़ और आशिक़ को एक देखा और इरशाद किया कि जब दरवेश को इबादत में हलावत पैदा हो वह हलावत उस के वास्ते हिजाब होगी और आरिफ़ का दर्जा यह है कि उज्ब-ए-ताअ’त से इज्तिनाब करे और बयान फ़रमाया कि जब हम बहुत मेहनत के बाद उस बारगाह में पहुँचे कुछ ज़हमत ना थी। तमाम राहत पाई और हम ने अह्ल-ए-दुनिया को देखा तो उन को दुनिया के साथ मशग़ूल पाया और जब अह्ल-ए-उक़्बा की तरफ़ नज़र की तो उन को उक़्बा की क़ैद में मह्जूब-ए-मुतलक़, देखा और मोहब्बत में सादिक़ वह है कि जब उस पर कोई बला पहुँचे तो ख़ुशी और रग़बत से उस को क़ुबूल करे और फ़रमाया कि मैंने आसारुल-औलीया में लिखा देखा कि एक वक़्त राबिआ’ बस्रीया और मालिक दीनार और शैख़ हसन बस्री और शैख़ शफ़ीक़ बलख़ी रहमतुल्लाहि ता’ला अलैहिम एक जगह में बैठे हुए थे और सिद्क़-ए-बातिन में बात चली थी। हर शख़्स एक एक बात कहता था जब राबिआ’ की नौबत आई तो कहा कि मोहब्बत की राह में सच्चा वह है कि जब उस को कोई दर्द-ओ-अलम पहुँचे तो दोस्त के मुशाहिदे में उस को फ़रामोश करे और बयान किया कि एक-बार मैं एक बुज़ुर्ग के साथ एक क़ब्र के पास बैठा था और साहिब-ए-गोर को अ’ज़ाब हो रहा था। उस बुज़ुर्ग ने जब यह हाल मुशाहिदा किया तो ना’रा मारा और जाँ-ब-हक़ हुआ। थोड़ी देर गुज़री थी कि पिघला और पानी हो कर पदीद हुआ फिर फ़रमाया कि ऐ अ’ज़ीज़ो अगर ख़ुफ़्तगान-ए-ज़ेर-ए-ख़ाक का हाल कि असीर-ए-मोर-ओ-मार और ज़िंदान-ए-गोर के गिरफ़्तार हैं जानो कि उन पर क्या मुआ’मला गुज़रता है, हैबत से नमक की तरह पिघल जाओ और किसी ने आप से सवाल किया कि बक़ा क्या है, जवाब पाया कि बक़ा ऐन-ए-हक़ है। फिर पूछा कि तजरीद क्या चीज़ है फ़रमाया कि ग़ैर से क़त्अ’ करना और दोस्त से मिलना और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी ने तज़्किरा किया कि मैं बीस साल तक हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग अलैहिर रहमा की ख़िदमत-ए-बाबरकत में रहा किसी पर उन को ग़ुस्सा करते हुए नहीं देखा मगर एक रोज़ कहीं जाते थे, आप का एक मुरीद था शैख़ अली नाम, राह में उस को एक शख़्स ने पकड़ा और कहा कि जब तक तू मेरा रुपया ना देगा मैं तुझ को ना छोड़ूँगा। जब आप वहाँ पहुँचे तो उस को मन्अ’ किया और उस ने ना माना। आप ने ग़ुस्सा में आ कर चादर जो दोश-ए-मुबारक पर थी, ज़मीन पर डाल दी। फ़िलहाल वह ज़र-ओ-दीनार से भर गई। इरशाद किया कि जितना तेरा आता है उतना ले ले। उस ने चाहा कि हक़ से ज़ियादा ले और हाथ बढ़ाया। वह हाथ फ़ौरन ख़ुश्क हो गया। चिल्लाया या कि मैंने तौबा की। आप ने दुआ’ फ़रमाई। उस का हाथ हालत-ए-असली पर आ गया। नक़्ल है कि एक दिन एक शख़्स ज़ाहिरन इरादत के वास्ते और बातिनन आप के क़त्ल के इरादे पर सर-ए-मज्लिस आ कर बैठा। उस की बग़ल में छुरी थी। आप जब उस की तरफ़ देखते थे तबस्सुम फ़रमाते थे आख़िर फ़रमाया कि ऐ दरवेश जो शख़्स दरवेशों के पास आता है या रू-ए-ख़ुदा से या रू-ए-ख़ता से, तेरा आना किस वजह से है। जब उस ने ये बात सुनी उठा और हाथ बांध कर अपने इरादा-ए-फ़ासिद का इक़रार किया और छुरी बग़ल से निकाल कर डाल दी और ख़ुलूस-ए-नीयत से आप का मुरीद हुआ। कहते हैं कि उस ने पैंतालीस हज अदा किए। नक़्ल है कि एक दिन हज़रत ख़्वाजा चिशती रहमतु ल्लाहि अलैहि हक़ सुब्हानहु ता’ला की याद में मुसतग़रक़ थे और आ;लम-ए-अ’लवी उन पर मुन्कशिफ़ हो रहा था। इस अस्ना में एक मुरीद ने आ कर वाली-ए-मुल्क का शिक्वा किया कि वह मुझ को शहर से निकालता है। आप ने पूछा कि वह इस वक़्त कहाँ है, कहा सवार हो कर मैदान की तरफ़ गया है फ़रमाया कि जा वह घोड़े से गिर कर मर गया। जब वह शख़्स वहाँ से चला सुना कि वाली-ए-मज़कूर उसी तरह राही-ए-मुल्क-ए-अ’दम हुआ, ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बुख़्तियार ने फ़रमाया कि मैं बीस बरस तक हज़रत-ए-पीर की सोहबत में रहा हरगिज़ ना सुना कि कभी आप ने अपनी सेहत-ए-जिस्मानी चाही हो अक्सर ज़बान-ए-इल्हाम पर आता था कि इलाही जहाँ कहीं दर्द-ओ-मेहनत हो मुईनुद्दीन के नामज़द कर। मैंने अ’र्ज़ किया कि या हज़रत यह क्या दुआ’ है, फ़रमाया कि जब किसी मुसलमान को बला-ए-सख़्त और बीमारी में मुब्तला करते हैं उस की सेहत-ए-ईमान की दलील है वह गुनाहों से ऐसा पाक होता है जैसा तिफ़्ल-ए-मादरज़ाद। ऐज़न नक़्ल है कि एक दिन आप शैख़ औहदुद्दीन किरमानी और शैख़ुश-शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के साथ बैठे हुए थे। इस दरम्यान में सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश आलम-ए-सिग़र-ए-सिन्नी में तीर-ओ-कमान लिए हुए इधर से आ निकला। आप की नज़र-ए-मुबारक उस पर पड़ी, फ़रमाया कि यह लड़का बादशाह-ए-दिल्ली होगा, आख़िर ऐसा ही हुआ। मन्क़ूल है कि एक रोज़ आप अपने अस्हाब के साथ एक जल्सा में थे और सुलूक में बात थी। जब दाहिनी तरफ़ निगाह करते थे खड़े हो जाते और हाज़िरीन इस अम्र में हैरान थे। जब वहाँ से वापस आए मुरीदों में से एक ने अ’र्ज़ किया कि आप के बार-बार उठने का क्या बाइस था। फ़रमाया कि उस तरफ़ मेरे मुर्शिद-ए-बर-हक़ रहमतुल्लाहि अलैहि का मज़ार-ए-मुबारक था। जब मैं उधर नज़र करता था और मर्क़द-ए-मुनव्वरा को मुशाहिदा करता था बे-इख़्तियार ताज़ीम को उठता था। नक़्ल है कि ख़्वाजा बुजु़र्गवार हर रात को ख़ाना-ए-का’बा के तवाफ़ के लिए जाते थे और हज करने वाले हमेशा आप को तवाफ़ में देखते थे और घर के आदमीयों को ये गुमान ना होता था कि आप इबादत-ख़ाना में तशरीफ़ रखते हैं आख़िर मा’लूम हुआ कि आप हर शब मक्का शरीफ़ को तशरीफ़ ले जाते हैं और फ़जर की नमाज़ जमाअ’त-ख़ाना में अदा फ़रमाते हैं। रिवायत है कि ख़्वाजा साहिब सत्तर साल तक नहीं सोए। पहलू-ए-मुबारक ज़मीन से ना लगा और आप साइमुद-दह्र और क़ाइमुल-लैल थे और हज़रत का वुज़ू क़ज़ा-ए-हाजत के सिवा और सबब से ज़ाइल नहीं होता था और आप हमेशा आँखें बंद किए हुए मुराक़िबा में मशग़ूल रहते थे और जब आँख खोलते थे जिस पर नज़र पड़ जाती वासिल-ए-ख़ुदा हो जाता था और जिस फ़ासिक़ की तरफ़ देखते वह गुनाहों से तौबा करता था। मर्वी है कि ख़्वाजा उसमान ने फ़रमाया कि जो कोई मुईनुद्दीन या उस के मुरीदों का मुरीद होगा मुईनुद्दीन हरगिज़ बहिश्त में पाँव ना रखेगा जब तक उन को अपने हमराह ना लेगा और क़यामत तक जो उस के सिलसिला में दाख़िल होगा उस को नजात की उम्मीद है और हज़रत वलीउल-हिंद रहमतुल्लाहि अलैहि ने फ़रमाया कि एक दिन मैं ख़ाना-ए-का’बा में मशग़ूल था। ग़ैब से आवाज़ आई कि ऐ मुईनुद्दीन हम तुझ से ख़ुश हैं और हम ने तुझे बख़्शा। मैं यह सुन कर बहुत ख़ुश हुआ और अ’र्ज़ किया इलाही अगरचे बेचारा मुईनुद्दीन को आतिश-ए-दोज़ख़ से बे-ख़ौफ़ किया लेकिन ये आ’जिज़ एक अ’र्ज़ रखता है अगर क़ुबूल हो, ग़ैब से सदा आई कि तू हमारा दोस्त है, मांग जो कुछ चाहता है। मैंने कहा कि या-रब जो मेरे मुरीद हैं और जो मेरे मुरीदों और फ़रज़न्दों के मुरीद हैं उन को भी बख़श दे। इल्हाम हुआ कि हम उन सब की ख़ता से दर गुज़रे। लिखा है कि हज़रत साहिब-ए-समाअ' थे और मुदाम शराब-ए-इश्क़-ए-इलाही से मस्त रहते थे, जो कोई उन के पास बैठता अहल-ए-समाअ' हो जाता। कहते हैं कि हज़रत कभी हिन्दी राग भी सुनते थे और आप हाफ़िज़-ए-कलाम-ए-मजीद थे और हर रोज़ दो ख़त्म करते थे और हर ख़त्म पर सदा-ए-ग़ैबी सुनते थे कि हम ने क़ुबूल किया। मन्क़ूल है कि जब हज़रत ख़्वाजा उसमान ने ख़्वाजा साहिब को अपनी जगह बिठलाया, फ़रमाया कि तू ने दरवेशों का ख़िर्क़ा पहना है तुझ को चाहीए कि दरवेशों के काम करे और दरवेशी फ़ाक़ा खींचना है और रंज-ओ-अलम देखना,अह्ल-ए-फ़क़्र के नज़दीक ग़म और शादी के बराबर है और राहत –ओ- जराहत यकसाँ, दरवेश को चाहीए कि ग़रीबों और फ़क़ीरों से मोहब्बत करे और मिस्कीनों और दरवेशों से सोहबत रखे और अह्ल-ए-दुनिया से मुहतरिज़ रहे, जब ऐसा किया हज़रत-ए-ज़ूल-जलाल का मुक़र्रब हुआ फिर ख़्वाजा साहिब का हाथ पकड़ कर कहा इलाही मुईनुद्दीन को क़ुबूल फ़र्मा और अपने दरगाह का मुक़र्रब कर, ग़ैब से आवाज़ आई कि हम ने उस का नाम अपने महबूबों के ज़ुमरे में लिखा है और उस कौ सर-क़ौम-ए-मशाइख़ किया। नक़्ल है कि जो कोई तीन दिन तक आप की मुलाज़मत में रहता था वलीउल्लाह और साहिब-ए-करामत हो जाता था। मर्क़ूम है कि बग़दाद में सात तरसा साहब-ए-रियाज़त और अह्-ए-ल मुजाहिदा थे और वह छः महीने के बाद एक लुक़मा-ए-तआ’म खाते थे। ख़ल्क़ उन की मोअ’तक़िद थी। जो कोई उन के पास जाता उस से बात करते। एक दिन वह सातों ख़िदमत-ए-गिरामी में हाज़िर हुए जब नज़र-ए-मुबारक उन पर पड़ी हैबत से पा-ए-मुक़द्दस पर गिरे। आप ने इरशाद किया कि तअ’ज्जुब है कि तुम ग़ैर-ए-ख़ुदा यानी आग की परस्तिश करते हो कहा कि हम इस वास्ते आग की पूजा करते हैं कि क़यामत में हम को ना जलाए और हुर्मत-ए-निगाह रखे। आप ने फ़रमाया कि तुम अगर अल्लाह ता’ला की इबादत करो तो वह आतिश-ए-दोज़ख़ से भी नजात दे और तुम्हारी आबरू भी निगाह रखे। उन्हों ने जवाब दिया कि तुम ख़ुदा को पूजते हो अगर आग तुम को ना जलाए तो हम ईमान लाएंगे। फ़रमाया कि आग हम को तो क्या हमारी जूतीयों को भी नहीं जला सकती। उन्हों ने कहा कि अगर हम अपनी आँख से ऐसा देखें तो ज़रूर दीन-ए-इस्लाम क़ुबूल करें। आप ने अपनी पापोश को आग में डाल दिया और फ़रमाया ऐ आतिश मुईनुद्दीन की कफ़श को हरगिज़ ना जलाना। मअ’न आग सर्द हो गई और पापोश को ज़रा भी ज़रर ना पहुंचा। फिर ग़ैब से आवाज़ हुई कह
आग की क्या मजाल जो हमारे दोस्त की पापोश को जलाए। जब तरसाओँ ने ये हाल देखा डरे और फ़िल्हाल कलिमा-ए-तईबा पढ़ा और आप के मुरीद हो कर औलिया में शामिल हुए।रिवायत है कि एक दफ़ा’ हज़रत ख़्वाजा रहमतुल्लाह अलैहि मुसाफ़िर थे और कहीं कुफ़रिस्तान में पहुँचे। कुफ़्फ़ार को ख़बर हुई कि चंद मुसलमान आए हैं सब तलवारें खींच कर आप की तरफ़ दौड़े। जब उन की नज़र आप के रू-ए-मुबारक पर पड़ी यक-बारगी फ़रियाद की, हम सब हज़रत के फ़रमांबर्दार हैं, हम पर शफ़क़त-ओ-करम कीजिए कि हम मुसलमान हो जाएं। आप ने कलिमा-ए-शहादत उन को तलक़ीन किया फिर वहाँ के तमाम अह्ल-ए-कुफ़्र इस्लाम में दाख़िल हुए। कहते हैं कि आप के अ’ह्द में कुफ़्फ़ार-ए-बेशुमार मुसलमान हुए और जब आप अजमेर को जाते थे लाहौर से दिल्ली पहुँचे और चंद रोज़ वहाँ इक़ामत की फिर अजमेर का क़स्द फ़रमाया। मर्वी है कि सुल्तान शम्सुद्दीन के अह्द में आप दो बार दिल्ली तशरीफ़ लाए थे और मौलाना मसऊद ने मौलाना अहमद, आप के ख़ादिम से रिवायत की है कि आप जब पहली मर्तबा अजमेर से दिल्ली में तशरीफ़ लाए फिर अजमेर में रौनक़ अफ़रोज़ हो कर मुताअह्हिल हुए उस की तफ़्सील यूँ है कि सय्यद वजीहुद्दीन मुहम्मद मशहदी ख़ित्ता-ए-अजमेर में दारोग़ा थे। उन की एक दुख़्तर साहिब-ए-इस्मत और बा-जमाल थी। मुबारक बी-बी इस्मत नाम, वह हद्द-ए-बुलूग़ पर पहुँची थी, सय्यद साहिब चाहते थे कि किसी बुज़ुर्ग-ज़ादे से उस का निकाह कर दें मगर उस के लायक़ कोई शख़्स नहीं मिलता था। इसी फ़िक्र में रहते थे एक रात हज़रत इमाम-ए-जाफ़र सादिक़ को ख़्वाब में देखा कि फ़रमाते हैं कि ऐ फ़र्ज़ंद-ए-जिगर पैवंद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ईमा इस तरह पर है कि तू इस दुख़्तर-ए-नेक अख़्तर को हमारे नूर-ए-नज़र मूईनुद्दीन हसन संजरी के अक़्द-ए-निकाह में लाए। सय्यद वजीहुद्दीन साहिब ने ये वाक़िआ ख़्वाजा-ए-दीन पर ज़ाहिर किया। आप ने फ़रमाया कि अगरचे मेरी उम्र आख़िर हुई है मगर जब कि सय्यद-ए-अनाम अलैहिस सलाम का यही इशारा है मैं इंकार नहीं कर सकता। रिवायत है कि निकाह के बाद हज़रत सात साल तक ज़िंदा रहे। उम्र-ए-मुबारक सतानवे साल की थी, और आप की रेहलत दो-शंबा के दिन छट्ठी माह-ए-रजब 633 छः सौ तेंतीस हिज्री में हुई। ये मुक़द्दमा सेयारुल-आरिफ़िन से लिखा गया। माह-ए-रजब की छट्ठी तारीख़ को आप का उर्स बड़ी धूम धाम से होता है। खिल्क़त-ए-कसीर अतराफ़-ए-मुमालिक से ज़ियारत को आती है और फ़ैज़ पाती है। यह फ़क़ीरा-ए-हक़ीरा भी तारीख़-ए-मज़कूरा पर इस आली मर्तबत का उर्स करती है। और एक नुस्ख़े में यूँ लिखा है कि आप तअह्हुल के बाद सतरह साल तक रौनक़ अफ़रोज़-ए-आ’लम-ए-दुनिया रहे और सिन्-ए-शरीफ़ एक सौ सतरह बरस तक पहुंचा था। और मल्फ़ूज़ात में आया है कि इंतिक़ाल के बाद आप की पेशानी-ए-नूरानी पर लिखा हुआ ज़ाहिर हुआ हाज़ा हबीबुल़्लाह माता फ़ी हुब्बिल्लाह. शैख़ अबदुल-हक़ देहलवी ने भी अख़्बारुला-अख़्यार में इसी तरह क़लम-बंद फ़रमाया है। और एक क़ौल से माह-ए-ज़िलहिज्जा और सन्-ए-मज़कूर में आप की रेहलत हुई। क़ौल-ए-अव़्वल सही है। और अजमेर में आप अपनी इक़ामत की जगह मदफ़ून हुए हैं। पहले मर्क़द-ए-मुनव्वर ख़िश्ती था, एक ज़माना के बाद उस पर पत्थर का संदूक़ बनाया गया और क़ब्र-ए-शरीफ़ को ब-दस्तूर छोड़ा, इस सबब से मरक़द-ए-मुअ’ल्ला ऊंचा है। अव़्वल ख़्वाजा हुसैन नागौरी ने इमारत की बा’दहु और बादशाहों ने ख़ानक़ाह का दरवाज़ा बनवाया। मन्क़ूल है कि जब आप इस जहान-ए-फ़ानी से आज़िम-ए-आ’लम-ए-जाविदानी हुए बुज़्रगान-ए-दीन से एक जमाअ’त ने हज़रत सवर-ए-आ’लम को आलम-ए-रोया में देखा कि फ़रमाते हैं कि ख़ुदा का दोस्त मुईनुद्दीन हसन संजरी आता है, हम उस के इस्तिक़बाल के वास्ते खड़े हैं। और कहते हैं कि एक बुज़ुर्ग ने रेहलत के बाद आप को ख़्वाब में देखा, दरयाफ़त किया कि नज़ाअ’ और क़ब्र का हाल और फ़रिश्तों का सवाल क्यूँ-कर था, फ़रमाया कि ख़ुदा-ए-रहीम-ओ-करीम के फ़ज़्ल से सब आसान हुआ मगर जब मुझ को अर्श के नीचे ले गए आवाज़ आई कि तू इतना किस वास्ते डरा, मैंने कहा कि इलाही तेरी क़ह्हारी और जब्बारी से। फ़रमान आया कि ऐ मुइनुद्दीन जो शख़्स दसवीं माह-ए-ज़ीलहिज्जा को सूरा-ए-बक़रा पढ़े उस को ख़ौफ़ से क्या काम, मैंने तुझे बख़्शा और अपने वासिलों से किया। और अजमेर की वज्ह-ए-तस्मीया यह है कि आजा नाम राजा ने जो हद्द-ए-ग़ज़नीं तक तसर्रुफ़ रखता था अजमेर को आबाद किया और मेर हिंदी में पहाड़ को कहते हैं और अव़्वल जो दीवार हिन्दोस्तान में पहाड़ पर बनाई गई वह कोह-ए-अजमेर है और पहले जो हौज़ हिन्दोस्तान में खोदा गया पुहकर है जो अजमेर से चौदह कोस पर होगा और अनीसुल-अर्वाह में हज़रत ख़्वाजा साहिब ने अपनी बैअ’त का हाल इस तरह तहरीर फ़रमाया है कि बग़दाद शरीफ़ में ख़्वाजा जुनैद की मस्जिद में ये दरवेश ख़्वाजा उसमान की क़दम-बोसी से मुशर्रफ़ हुआ, मशाइख़-ए-किबार हाज़िर थे, इस आ’सी ने ज़मीन पर सर रखा और खड़ा हुआ। ख़्वाजा उसमान ने फ़रमाया कि दो रका’त नमाज़ पढ़, मैंने पढ़ी, कहा कि क़िबला-रू हो कर बैठ। मैं बैठा फिर इरशाद किया कि सूरा-ए-बक़रा पढ़, बंदा हुक्म बजा लाया। फ़रमाया कि साठ बार सुब्हान-अल्लाह कह, मैंने कहा फिर आप खड़े हुए और आसमान की तरफ़ मुँह कर के मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि आ तुझ को ख़ुदा से वासिल करूँ और कुलाह-ए-चार तुरकी दस्त-ए-मुबारक से मेरे सर पर रखा और अपना ख़ास कम्बल मर्हमत किया, फिर फ़रमान हुआ कि बैठ, ये अहक़र बैठ गया फिर इरशाद किया कि हज़ार बार सूरा-ए-इख़्लास पढ़। मैंने हस्ब-ए-फ़रमान अ’मल किया। फिर फ़रमाया कि हमारे ख़ानवादे में यही एक शबाना रोज़ मुजाहिदा है, जा एक रात-दिन रियाज़त कर, मैंने ऐसा ही किया जब सुब्ह हुई ख़िदमत-ए-सरापा बरकत में हाज़िर हुआ और सर-ए-इज्ज़ ज़मीन पर रखा। फ़रमाया कि बैठ, आ’सी बैठा, इरशाद किया कि आसमान की तरफ़ देख। मैंने देखा, फ़रमाया तू कहाँ तक देखता है।फ़िद्वी ने अ’र्ज़ किया कि अर्श-ए-अ’ज़ीम तक. फिर कहा कि ज़मीन की तरफ़ देख। ख़ाकसार ने देखा फ़रमाया कि कहाँ तक नज़र आता है। इस आ’जिज़ ने अ’र्ज़ किया कि तहतुस-सुरा तक, फिर इरशाद हुआ कि हज़ार बार सूरा-ए-इख़्लास पढ़, जब मैं पढ़ चुका फ़रमाया कि आसमान की तरफ़ देख, मैंने तामील-ए-हुक्म की, इरशाद किया कि कहाँ तक मुन्कशिफ़ हुआ मैंने कहा कि हिजाब-ए-अज़मत तक, फिर हुक्म हुआ कि आँखें बंद कर, मैंने बंद कीं, फ़रमाया खोल। मैंने खोल लीं, फिर दो उंगलियां मुझ को दिखलाईं और फ़रमाया कि तू क्या देखता है, फ़क़ीर ने अ’र्ज़ किया अठारह हज़ार आलम, फिर कहा कि तेरा काम पूरा हुआ, फिर एक ईंट सामने मौजूद थी, इरशाद क्या उस को उठा, जब मैंने उठाया एक मुट्ठी दीनार था। गौहर अफ़्शां हुए कि ले जा और फ़क़ीरों को सद्क़ा कर, दरवेश ने उसी तरह किया। फिर फ़रमान हुआ कि चंद रोज़ हमारी सोहबत में रह, मैंने कहा ब-सर-ओ- चशम हाज़िर हूँ, फिर हज़रत दमिशक़ की तरफ़ मुसाफ़िर हुए और यह फ़रमांबर्दार ख़िदमत में हमराह था। उल-ग़र्ज़ एक शहर में पहुँचे, एक जमाअ’त को पाया कि ये लोग हस्ती से बे-ख़बर थे। सुनने में आया कि ये लोग हमेशा दरिया-ए-तहय्युर में ग़र्क़ रहते हैं, हरगिज़ होशयार नहीं होते, फिर वहाँ से हरमैन-ए-शरीफ़ैन का क़स्द फ़रमाया जब मक्का मुअज़्ज़मा में पहुँचे का’बा के परनाले के नीचे कि क़ुबूलियत-ए-दुआ’ की जगह है मेरा हाथ पकड़ कर मेरे हक़ में दुआ’ की। आवाज़ आई कि हम ने मुइनुद्दीन को क़ुबूल किया। जब मदीना मुनव्वरा में पहुँचे हज़रत सरवर-ए-कायनात के रौज़ा-ए-मुक़द्दसा की ज़ियारत की और मुझ से फ़रमाया कि सलाम कर, मैंने सलाम किया। मर्क़द-ए-मुअ’ल्ला से आवाज़ पैदा हुई कि वा-अलैकस्सलाम या क़ुतुबुलमशाइख़ जा कि तू कमाल को पहुंचा,फिर वहाँ से बुख़ारा में पहुँचे, मैं वहाँ के बुज़ुर्गों से हम-सोहबत रहता था, उल-ग़र्ज़ अहक़र दस बरस तक हज़रत के साथ सफ़र में रहा, फिर आप वहाँ से बग़दाद को तशरीफ़ ले गए और मो’तकिफ़ हुए। चंद रोज़ के बाद फिर मुसाफ़िर हुए, दस साल और सफ़र में रहे। ये दरवेश हज़रत का जामा-ए-ख़्वाब और छागल साथ लिए फिरता था। जब बीस बरस पूरे हुए फिर बग़दाद में आ कर आप ने इक़ामत की और मुझ से फ़रमाया कि अब मैं बाहर नहीं निकलूँगा, तुझ को चाहिए कि हर-रोज़ चाश्त के वक़्त मेरे पास आया करे कि इल्म-ए-फ़क़्र की ता’लीम और दूसरे फ़वाइद बयान करूँ। मैं हर-रोज़ ख़िदमत में हाज़िर होता था और जो कुछ ज़बान-ए-फ़ैज़ बयान से सुनता था लिख लेता था, उल-हासिल इस आ’सी ने अट्ठाईस रोज़ तक हाज़िर हो कर अट्ठाईस मज्लिस लिखी और उस मजमूआ’ को अनीसुल-अर्वाह के साथ मौसूम किया।
खुलासा-ए-कलाम यह है कि हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने ये सब तेरे कमाल के वास्ते कहा, चाहिए कि तू इन सब बातों पर अ’मल करे कि कल क़यामत को शर्मिंदा ना हो, ये ख़िर्क़ा ओ और अ’सा और मुसल्ला मुझ को इनायत कर के इरशाद किया कि ये हमारे मुर्शिदों की यादगार है, इस को हिफ़ाज़त से रखना और जिस को मर्द-ए-राह पाए उस को देना,कहते हैं कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग अफ़राद से थे। नक़्ल है कि आप हमेशा नमाज़-ए-नफ़ल-ए-दोगाना ख़ालिक़-ए-यगाना के वास्ते पढ़ा करते थे और अक्सर दुरूद शरीफ़ हज़रत महबूब-ए-ख़ुदा की रूह-ए-मुबारक पर भेजा करते थे और खाना खाने के वक़्त बिसमिल्लाहिर रहमानिर रहीम कहा करते थे और अक्सर यह बैत और मिस्रा ज़बान-ए-मुबारक पर लाते, बैत: ख़ूब रुयाँ चूं परदा बर-गीरन्द* आशिक़ाँ पेश-ए-शाँ चुनीं मीरन्द। मिस्रा- सोहबत-ए-नेकाँ बिह-अज़ ताअ’त बुवद। और बा’ज़ों ने कहा है कि आप मुताअह्हिल नहीं हुए और बा’ज़ कहते हैं कि आप मुताअह्हिल हुए थे मगर कोई फ़र्ज़ंद नहीं हुआ यह दोनों क़ौल ज़ईफ़ है। सही यह है कि आप दो अह्ल रखते थे और फ़र्ज़ंद भी पैदा हुए जैसा कि शैख़ अबदुल हक़ देहलवी ने अख़बारुला-ख़्यार में लिखा है कि आप की दो मनकूहा थीं। एक बी-बी इस्मत जिन का हाल पहले तहरीर हुआ दूसरी बी-बी अमतुल्लाह। उन के निकाह में आने का सबब यूँ लिखा है कि ख़्वाजा साहिब ने एक शब हज़रत सरवर-ए-आ’लम को ख़्वाब में देखा कि फ़रमाया कि ऐ नूर-ए-नज़र तू ने हमारी सुन्नतों से एक सुन्नत तर्क की है, इत्तिफ़ाक़न हाकिम-ए-किला’ बठली मालिक नाम जो आप का मुरीद था हुदूद-ए-कुफ़्फ़ार पर ताख़्त कर के राजा की लड़की को जो असीर हुई थी हुज़ूर की ख़िदमत में लाया, आप ने क़ुबूल किया और अमतुल्लाह उस का नाम रखा। इन दोनों ख़ातूनों से औलाद हुई हज़रत बी-बी हाफ़िज़ जमाल, बी-बी अमतुल्लाह से पैदा हुईं। बी-बी हाफ़िज़ जमाल की क़ब्र पिदर-ए-बुजु़र्गवार की पाइनती है। उन के शौहर शैख़ रहीमी थे, शैख़ मौसूफ़ का मर्क़द नागौर के क़स्बातन से एक क़स्बा में हौज़ हनदला के किनारे पर है। उस बी-बी से दो लड़के पैदा हुए, वह आलम-ए-तुफ़ूलियत में इंतिक़ाल कर गए और अ’वाम का क़ौल है कि बी-बी हाफ़िज़ जमाल ख़्वाजा साहिब की दुख़्तर-ए-ख़्वान्दा थीं मगर यह बात ना-मोअ’तबर है।लिखा है कि आप के तीन फ़र्ज़ंद थे, शैख़ अबू सईद और शैख़ फ़ख़्रउद्दीन और शैख़ हुसाम उद्दीन। और इस में इख़्तिलाफ़ है कि बी-बी इस्मत से हैं या बी-बी अमतुल्लाह से, सय्यद मुहम्मद गेसू दराज़ कि शैख़ नसीरउद्दीन चिराग़ दिल्ली के मुरीद हैं जमाअ’त-ए-क़लील के साथ इस बात पर हैं ये तीनों फ़र्ज़ंद बी-बी इस्मत से हैं, और सय्यद शम्सुद्दीन ताहिर एक जमाअ’त-ए-कसीर के साथ यूँ मुत्तफ़िक़ हैं कि शैख़ अबू सईद बी-बी इस्मत से हैं और शैख़ फ़ख़्रउद्दीन और शैख़ हुसामउद्दीन बी-बी अमतुल्लाह से। वल्लाहु आलम बिस्सवाब।
बयान करते हैं कि शैख़ फ़ख़र -उद्दीन अलैहिर रहमत बहुत बुज़ुर्ग और साहिब–ए-मक़ामात-ए-आ’ली थे। ज़राअत किया करते थे और मौज़ा माँदन में जो हवाली-ए-अजमेर में है सुकूनत रखते थे। और मल्फ़ूज़ात-ए-मशाइख़-ए-चिश्तिया में लिखा है कि आप के फ़रज़न्दों के मुल्क में एक गांव था और वहाँ का हाकिम मुज़ाहिमत करता था। इस वजह से आप के एक साहबज़ादे दिल्ली को तशरीफ़ ले गए और क़स्बा सरवार में जो अजमेर से सोला कोस है, इंतिक़ाल फ़रमाया। उन का मदफ़न-ए-मुबारक क़स्बा-ए-मज़कूरा में हौज़ के नज़दीक है और शैख़ हुसामउद्दीन आप के छोटे लड़के थे। कहते हैं कि वह ग़ायब हो कर आब्दालों में जा मिले और शैख़ अब्दुल हक़ देहलवी ने मर्क़ूम किया है कि आप को औलाद होना यक़ीनी है और जो कुछ बा’ज़ आदमी कहते हैं कि हज़रत ख़्वाजा साहिब को कोई फ़र्ज़ंद ना था ग़लत है। और आप की औलाद का ज़िक्र मशाइख़-ए-चिशत के मल्फ़ूज़ात में मौजूद है। शैख़ फ़रीद शैख़ हमीदउद्दीन के पोते ने अपने वालिद से नक़्ल किया है कि जब हज़रत ख़्वाजा के फ़र्ज़ंद पैदा हुए मुझ से पूछा कि ऐ हमीद इस की क्या वजह कि इस से पहले जब हम क़वी और जवान थे जो कुछ दरगाह-ए-इज़्ज़त से मांगते थे जल्द मिलता था अब कि पीर-ओ-ज़ईफ़ हुए दुआ’ देर में मुस्तजाब होती है। मैंने अ’र्ज़ किया कि आप पर ज़ाहिर है कि मर्यम अलैहस्सलाम के जब तक हज़रत-ए-ईसा अलैहिस-सलाम पैदा नहीं हुए थे गर्मी के मौसम-ए-सरमा का मेवा मिलता था और बे-सबब मेहराब में हाज़िर होता था जब ईसा अलैहिस-सलाम पैदा हुए हज़रत-ए-मर्यम मुंतज़िर हुईं कि रिज़्क़ उसी तरह दस्तयाब हो, फ़रमान आया कि जा दरख़्त-ए-ख़ुरमा की शाख़ों को हिला कि ख़ुरमा ताज़ा गिरें। अल-हासिल उस हाल में और इस हाल में इस क़दर फ़र्क़ है। ये जवाब उस विलायत-ए-पनाह ने पसंद फ़रमाया। रिवायत है कि आप के फ़र्ज़ंद सय्यद फ़ख़्रउद्दीन के एक फ़र्ज़ंद शैख़ हुसामउद्दीन सोख़्ता नाम साहिब-ए-सोज़ और आ’ली मक़ाम थे और शैख़ निज़ामुद्दीन बदाओनी के साथ सोहबत रखते थे और शैख़ हुसामउद्दीन सोख़्ता का मदफ़न-ए-मुक़द्दस क़स्बा सांभर में मग़रिब की तरफ़ सर-ए-राह-ए-अजमेर है और ख़्वाजा मुइनुद्दीन ख़ुर्द शैख़ हुसामउद्दीन सोख़्ता के बड़े फ़र्ज़ंद हैं। उन को ख़्वाजा-ए-बुज़ुर्ग की निसबत से ख़्वाजा कहते हैं। उन के वास्ते यही मनक़बत और बुजु़र्गी काफ़ी है ख़्वाजा-ए-ख़ुर्द बड़े बुज़ुर्ग थे, मुरीद होने से पहले रियाज़त और मुजाहिदा में यहाँ तक कमाल हासिल किया था कि बे-वास्ता ख़्वाजा-ए-बुज़ुर्ग से इस्तिफ़ाज़ा करते थे, आख़िर हुज़ूर के हुक्म के मुवाफ़िक़ शैख़ नसीरउद्दीन महमूद के मुरीद हुए और आलिम-ए-मुतबह्हिर थे, सुल्तान महमूद खिलजी के अह्द में मुद्दत के बाद सफ़र से आए और हज़रत के साथ निस्बत-ए-फ़र्ज़ंदी का दा’वा किया सुल्तान ने उन को खित्ता-ए-अजमेर में तद्रीस-ए-उलूम-ए-दीन के वास्ते मुक़र्रर फ़रमाया। और शैख़ अहमद मुजर्रद कहते हैं कि जो इख़्तिलाफ़ ख़्वाजा-ए-बुज़ुर्ग की फ़र्ज़ंदी में है उन्हें मशाइख़-ए-बायज़ीद की निस्बत है कि एक ज़माना के बा’द जब अजमेर में आ कर मुक़ीम हुए एक जमाअ’त ने उन के ख़्वाजा साहिब के फ़रज़न्दों में होने से इंकार किया और बादशाह-ए-वक़्त तक ये बात पहुंचाई। बादशाह ने उस वक़्त के उलमा और मशाइख़ से दरयाफ़्त किया, शैख़ हुसैन नागौरी और मौलाना रुस्तम अजमेरी ने कहा कि उल्मा-ए-अ’स्र और क़ुदमा-ए-अजमेर से थे आ’लिमों के साथ गवाही दी कि शैख़ बायज़ीद शैख़ क़यामउद्दीन बिन शैख़ हुसामउद्दीन बिन शैख़ फ़ख़्रउद्दीन बिन हज़रत ख़्वाजा मुइनुद्दीन की औलाद से हैं हम और शैख़ हुसैन ने शैख़ बायज़ीद के फ़रज़न्दों की निस्बत ख़ुशी की है, उस से ज़ाहिर है कि शैख़ हुसैन का ख़्वाजा-ए-हिंद के फ़रज़न्दों में होना मुतहक़्क़क़ है और ख़्वाजा मुइनुद्दीन सादात-ए-हुसैनी और बिला-शुबहा आँ-हज़रत की औलाद-ए-अमजाद से हैं और आप को चिशती इसी सबब से कहते हैं कि चिशत विलायत-ए-ख़ुरासान से एक क़स्बा है। हज़रत ख़्वाजा अबू इसहाक़ चिशती और हज़रत ख़्वाजा अबू अहमद अब्दाल चिशती और हज़रत ख़्वाजा मुहम्मद चिशती और हज़रत नासीरुद्दीन यूसुफ़ चिशती और हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुउद्दीन मौदूद चिशती उस क़स्बा में क़याम रखते थे इस लिहाज़ से उन बुज़ुर्गों को चिशती कहते हैं और हज़रत ख़्वाजा मुइनुद्दीन हसन संजरी इस सिलसिला में मुरीद हुए हैं, आप की निस्बत हज़रत रसूल-ए-ख़ुदा तक पंद्रह वास्ते से पहुँचती है और हज़रत ख़्वाजा मुइनुद्दीन के मुरीद-ए-ख़ास और ख़लीफ़ा-ए-बुज़ुर्ग हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन अहमद बख़्तियार ओशी और उन के मुरीद और ख़लीफ़ा शैख़ फ़रीदुद्दीन मसऊद अजोधनी और उन के मुरीद और ख़लीफ़ा-ए-ख़ास हज़रत निज़ामुद्दीन बदाओनी और उन के मुरीद ख़लीफ़ा शैख़ नसीरुद्दीन महमूद औधी हैं, और साहिब-ए-सियारुल आरिफ़ीन का बयान है कि हज़रत नसीरुद्दीन ने किसी को ख़िलाफ़त नहीं दी, उन की वसीयत के मुवाफ़िक़ दफ़्न के वक़्त ख़िर्क़ा और अ’सा और तस्बीह और कासा-ए-चोबीं और ना’लैन को उन के मुक़ाबिल क़ब्र में रख दिया। अब थोड़ा सा हाल आप के खल़िफ़ा-ए-किबार का जिन के नाम ऊपर लिखे गए हैं, लिखा जाता है। वल्लाहुल मुवफ़िफ़्क़ बिल-इतमाम।
हज़रत क़ुतुबु लमशाइख़ क़ुद्वा-ए-अकाबिर ताजुल आरिफ़ीन ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन ओशी काकी का ज़िक्र
उन का नाम-ए-मुबारक बख़्तियार है और लक़ब क़ुतुबुद्दीन, हज़रत बुजु़र्गवार के मुरीद और ख़लीफ़ा हैं, उन का मस्कन ओश है जो विलायात-ए-मा-वराउन-नहर से एक क़स्बा है, बहुत बुज़ुर्ग और साहिब-ए-करामत और अह्ल-ए-दर्जात थे। उन के पिदर-ए-बुजु़र्गवार कमालउद्दीन अहमद मूसा आप को आलम-ए-तुफ़ूलियत में छोड़ कर आलम-ए-बक़ा की तरफ़ रेहलत फ़र्मा हुए। आप की वालिदा ने जो अफ़ीफ़ा,सालिहा, आबिदा थीं, परवरिश की। जब आप पाँच बरस के हुए आप की वालिदा ने एक मर्द-ए-नेक के साथ आप को एक मुअ’ल्लिम के पास भेजा। राह में उस नेक मर्द से हज़रत ख़्वाजा ख़िज़्र अलैहिस-सलाम की मुलाक़ात हुई और फ़रमाया कि इस लड़के को मेरे हमराह कर कि एक मुअल्लिम-ए-सालिह के सिपुर्द कर दूँ और साथ लेकर शैख़ अबू हफ़्स के पास गए और कहा कि ये लड़का बुज़ुर्ग ख़ानदान से है और बुज़ुर्ग होगा, इस को अच्छी तरह से ता’लीम करना, शैख़ अबू हफ़्स ने ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन से कहा कि जो शख़्स तुझ को यहाँ लाया था वह हज़रत-ए-ख़िज़्र अलैहिस-सलाम थे।
अल-ग़र्ज़ हज़रत-ए-शैख़ की सोहबत की बरकत से उन को फ़ुतूहात-ए-ग़ैबी हासिल हुईं और उलूम-ए-ज़ाहिरी और बातिनी हासिल हुआ और रियाज़त–ओ-मुजाहिदा कर के मुकम्मल हुए, उन्हीं दिनों हज़रत सुल्तानुल-आरिफ़िन ख़्वाजा मुइनुद्दीन चिशती वहाँ पहुँचे और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन अलैहिर रहमत उन के मुरीद हुए और ख़िलाफ़त पाई फिर ओश से बग़दाद की तरफ़ मुराजअ’त फ़रमाई और शैख़ुस शुयूख़ शहाबुद्दीन सुहरवरदी और शैख़ औहदुद्दीन किरमानी रहमतुल्लाहि अलैहि से मुलाक़ात की, जब देखा कि ख़्वाजा हिन्दोस्तान की तरफ़ मुतवज्जिह हुए, आप शैख़ जलालउद्दीन तबरेज़ी के साथ रवाना-ए-हिन्दोस्तान हुए, जब मुल्तान में पहुँचे ज़ुबदातुल-कामिलीन शैख़ बहाउद्दीन ज़करीया अलैहिर रहमत से मिले और उन की सोहबत में रहे, उन दिनों में एक ग़नीम ने मुल्तान के क़िला’ का मुहासिरा किया, वाली-ए-क़िला और शहर वाले बहुत तंग-दिल हुए, हाकिम-ए-शहर ने हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की ख़िदमत में इल्तिमास किया, आप ने एक तीर पर एक दुआ’ पढ़ दी और फ़रमाया कि इस तीर को शाम के वक़्त लश्कर-ए-ग़नीम की तरफ़ फेंकें, उसी शब गिरोह-ए-आ’दा पर ऐसी दहश्त ग़ालिब हुई कि ख़ुद ब-ख़ुद भाग गए, कहते हैं कि हज़रत शैख़ फ़रीदउद्दीन मसऊद गंज शकर ने भी मुल्तानमें आप से इरादत की, फिर ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन मुल्तान से दिल्ली तशरीफ़ लाए और सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश बादशाह दिल्ली आप के क़ुदूम-ए-मैमनत को अ’तिया-ए-इलाही जान कर इस्तिक़बाल को आया और ए’ज़ाज़-ओ-इकराम के साथ आप को शहर में लाया और हज़रत ने मौज़ा’ किलोखरी में क़याम फ़रमाया, हज़रत शैख़ मुहम्मद अ’ता कि हमीदउद्दीन नागौरी के नाम से मशहूर हैं और दूसरे मशाइख़ ख़िदमत में हाज़िर होते थे और सुल्तान शम्सुद्दीन हफ़्ता में दोबार शरफ़-ए-मुलाज़मत हासिल करता था, एक दिन इज्ज़-ए-तमाम के साथ अ’र्ज़ किया कि हुज़ूर करम फ़रमा कर शहर में इक़ामत फ़रमाएं।सुल्तान का इल्तिमास क़ुबूल हुआ, शहर के नज़दीक मलिक मुइज़उद्दीन की मस्जिद में ठहरे और हज़रत क़ुतुबुलमशाइख़ ने ख़्वाजा बुज़ुर्ग की ख़िदमत में इश्तियाक़-ए-तमाम के साथ अ’रीज़ा लिख कर रवाना किया कि अगर ईमा हो सआ’दत-ए-मुलाज़मत हासिल करूँ, ख़्वाजा साहिब ने जवाब में लिखा कि बोअ’द-ए-मकानी क़ुर्ब-ए-जानी का माने’ नहीं है वहीं मशग़ूल रहना चाहिए। इंशाअल्लाह ता’ला हम वहीं आएँगे, मिन-बा’द हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़वाजगान अजमेर से आज़िम-ए-दिल्ली हुए और हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुल-अक़ताब के घर क़याम-पज़ीर हुए, तमाम शहर के अकाबिर-ओ-अहाली ने आ कर सआदत-ए-मुलाज़मत हासिल की और हज़रत शैख़ फ़रीदउद्दीन मसऊद गंज शकर भी उन दिनों अपने पीर-ओ-मुर्शिद ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की ख़िदमत में थे और ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान की क़दम-बोसी से मुशर्रफ़ हुए और ख़्वाजा ग़रीब-नवाज़ ने बारहा फ़रमाया कि बाबा बख़्तियार तू ऐसे शाहबाज़ को दाम में लाया है कि सिदरतुलमुन्तहा के सिवा आशयाना ना पकड़ेगा, चंद रोज़ बा’द ख़्वाजा साहिब फिर अजमेर को तशरीफ़ ले गए और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन भी हमराह रवाना हुए, अहल-ए-शहर जुदाई और हिर्मान की ताब ना ला कर बहुत ज़ार-ओ-गिर्यां थे, सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश भी मुज़्तरिब-उल-हाल ख़िदमत में हाज़िर हुआ और ख़्वाजा क़ुतुबुल-अक़ताब के दिल्ली में रहने के वास्ते ख़्वाजा-ए-हिंद की ख़िदमत में तज़र्रोअ की और ख़्वाजा-ए-बुज़ुर्ग ने मुराजअ’त की इजाज़त दी, ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन हस्बल-हुक्म-ए-पीर-ओ-मुर्शिद दिल्ली में रह कर तालिबों के इरशाद-ओ-हिदायत में मशग़ूल हुए और हरगिज़ किसी से फ़ुतूह क़ुबूल नहीं फ़रमाते थे और अक्सर हज़रत-ए-ख़िज़्र अलैहिस-सलाम के साथ सोहबत रखते थे और आख़िर में मुतअह्हिल हुए अल्लाह ता’ला ने एक सौ दो फ़र्ज़ंद तवामान अ’ता फ़रमाए और एक रिसाला में लिखा है कि जब हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब काकी रहमतुल्लाहि अलैहि हज़रत ख़्वाजा साहिब की ख़िदमत में आए हज़रत ने चालीस रोज़ के बाद उन को ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त और मुसल्ला और अ’सा और ना’लैन मर्हमत कर के दिल्ली को मुरख़्ख़स फ़रमाया और ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन ने दिल्ली में आ कर क़याम किया। थोड़े दिनों के बाद एक आने वाला ख़बर लाया कि आप के वहाँ से चलने के बीस रोज़ बाद ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने इंतिक़ाल फ़रमाया और क़ुतुबुल-मिल्लत को काकी इस सबब से कहते हैं कि उन पर फ़क़्र ग़ालिब था, उन के अह्ल-ए-ख़ाना एक या दो फ़ाक़ों के बाद बनिए की औरत से ब-क़द्र-ए-ज़रूरत क़र्ज़ लेते थे एक रोज़ उस ने कोई सख़्त बात कही, हज़रत क़ुतुब साहिब ने यह बात सुनी, बी-बी से कहा कि अब आइन्दा क़र्ज़ ना लेना, हुज्रे में जो ताक़ है उस में से बिसमिल्लाहिर रहमानिर रहीम कह कर रोटियाँ निकाल लिया करो जब वह ताक़ में हाथ डालती थीं गर्म रोटियाँ निकल आती थीं और अह्ल-ओ-अया’ल और फ़ुक़्रा का क़ूत उन्हीं से होता था, इसी वजह से अब भी रौज़ा-ए-मुनव्वरा के मुजाविर काक पकाते हैं और दरवेशों को तक़्सीम करते हैं। नक़्ल है कि एक रोज़ क़व्वाल यह शेअ’र पढ़ते थे कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम रा *हर ज़माँ अज़ ग़ैब जान-ए-दीगर अस्त* हज़रत क़ुतुबुल -मिल्लतत को वज्द हुआ, तीन रोज़ तक क़व्वाल भी शेअ’र कहते रहे और आप बे-ख़ुद थे मगर नमाज़ के वक़्त होश में आ जाते थे और क़व्वालों से उसी शेअ’र की दरख़्वास्त फ़रमाते थे, चार रोज़ तक यही हाल रहा, चौथी शब ये कैफ़ीयत हुई कि सर-ए-मुबारक क़ाज़ी हमीदउद्दीन नागौरी के बग़ल में और पाँव बदरउद्दीन ग़ज़नवी की गोद में थे, क़ाज़ी हमीदउद्दीन ने जब ये हाल देखा आप से पूछा कि ख़ुलफ़ा-ए-सज्जादा-नशीं कौन होगा और फ़रमाया कि ख़िर्क़ा और अ’सा और मुसल्ला और ना’लैन यह सब चीज़ें जो ख़्वाजा बुज़ुर्ग से मुझ तक पहुँची हैं शैख़ फरीदउद्दीन मसउद को पहुंचा दें और तायर-ए-रूह-ए-मुक़द्दस ने मला-ए-आ’ला की तरफ़ परवाज़ किया, उस वक़्त शैख़ फ़रीदउद्दीन क़स्बा हांसी में थे, उस क़स्बा को वाक़िआ' में देख कर आप की रहलत से तीसरे रोज़ दिल्ली में तशरीफ़ लाए और चेहरा-ए-मुबारक को पीर-ए-बर-हक़ के रौज़ा-ए-मुबारक पर रखा और उसी रोज़ वसीयत के मुवाफ़िक़ ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पहन कर उस मुसल्ला पर नमाज़ अदा की और मुर्शिद की जगह बैठे। आप की वफ़ात दो-शंबा के दिन रबीउल अव्वल की चौदहवीं तारीख़ ईः ६०४ छः सौ चार हिज्री में हुई, मज़ार-ए-मुक़द्दस पुरानी दिल्ली में है।
सुल्तानुत-तारिकीन शैख़ हमीदउद्दीन सूफ़ी नागौरी का लक़ब सुल्तानुत-तारिकीन है, हज़रत ख़्वाजा साहिब के खलीफ़ा-ए-बुज़ुर्ग से हैं, साहिब-ए-हालात और हाल-ए-मक़ामात हुए हैं, तफ़रीद-ओ-तवक्कुल और रियाज़त-ओ- मुजाहिदा में क़दम-ए-रासिख़ रखते थे और हज़रत सईद बिन ज़ैद की औलाद में से जो अशरा-ए-मुबश्शरा से थे, हुए हैं। आप ने उम्र-ए-दराज़ पाई, हज़रत सुल्तानउल-औलीया शैख़ निज़ामुद्दीन के अवायल-ए-अय्याम में ज़िंदा थे।नक़्ल है कि एक रोज़ हज़रत ख़्वाजा मुइनुद्दीन को वक़्त-ए-ख़ुश था, फ़रमाया कि जो कोई जो कुछ चाहता हो तलब करे कि अबवाब-ए-क़ुबूलीयत मफ़्तूह हैं। एक शख़्स ने दीन की आरज़ू की, दूसरे ने दुनिया चाही, शैख़ हमीदउद्दीन ने फ़रमाया कि तू चाहता है कि दुनिया और दीन में मुअ’ज़्ज़-ओ-मुकर्रम हो,अ’र्ज़ किया कि बंदा कोई दरख़ास्त नहीं करता जो कुछ अल्लाह ता’ला चाहे वही दुरुस्त है, फिर हज़रत क़ुतुबुद्दीन की तरफ़ मुतवज्जिह हो कर यही फ़रमाया, उन्हों ने भी वही जवाब दिया फिर हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग ने कहा अत्तारिकुद-दुनिया वल- फ़ारिग़ुल-उक़्बा उस रोज़ से शैख़ हमीदउद्दीन लक़ब-ए-सुल्तानुत तारिकीन के साथ मुलक़्क़ब हुए। कहते हैं कि मौज़ा’ सवाली में जो मुज़ाफ़ात-ए-नागौर से है, एक दो जरीब ज़मीन थी, आप ख़ुद किश्तकारी कर के उस के हासिल से क़ूत-ए-अ’याल करते थे, रिवायत है कि हज़रत ख़्वाजा-ए-ख़वाजगान फ़रमाते थे कि मुइनुद्दीन और हमीदउद्दीन की औलाद एक है और आख़िर ऐसा ही हुआ कि आप की औलाद और शैख़ हमीदउद्दीन की औलाद में निस्बत और ख़्वेशी वाक़े' हुई। और शैख़ हमीदउद्दीन अलैहिर रहमत तसनीफ़ात बहुत रखते हैं, उन का कलाम बहुत आ’ली है, मिनजुमला यह है कि फ़रमाया कि अह्ल-ए-शुबहा के मानिंद हक़ ता’ला का तालिब ना हो और मुअत्तिलों के मानिंद तर्क-ए-तलब ना कर या’नी एक और फ़र्द की तलब ना छोड़, ख़ुदा-ए-ता’ला-ओ-तबारक किसी जिहत में नहीं है कि तू उस तरफ़ ढूंढे और किसी मकान में नहीं कि तू वहाँ जुस्तुजू करे, वह आने वाला नहीं कि कोई उस को बुलाए। वह दूर नहीं कि कोई उस से नज़दीक हो, गुम-शुदा नहीं कि कोई उस को तलाश करे, वह ज़मानी नहीं कि कोई ज़माना का मुंतज़िर हो, यह सब तलब की नफ़ी है पस इस्बात क्या होगा, चाहिए कि अपने अपने औसाफ़ की नफ़ी करे कि बशरिय्यत से गुज़र जाए और हर चीज़ से अलाहदगी पा-ए-तलब यह नहीं है कि उस का इस्बात करे, तलब यह है कि अपनी हस्ती को मिटा दे, तलब वह नहीं कि ताउस की तरफ़ दौड़े, तलब वह है कि आप को उस में फ़ना करे, तलब वह नहीं कि तू उस को ढूंढे, तलब वह है कि ख़ुद गुम हो जाए। आईना को साफ़ कर जब साफ़ हुआ ज़रूरीउल-वुजूद है और फ़रमाया कि सुलूक का पहला मर्तबा यह है कि दो-जहान से फ़ारिग़ हो और मक़सूद यह है ख़ुद ना रहे, एक राह दरपेश है तारीक और दराज़ और तुझ को एक उम्र दी है, बे-सबात और कोताह उस तारीकी में तेरे वास्ते मतला’-ए-इनायत से एक चांद तालिअ’ किया है, उठ और दौड़ और उस माह-ए-मुनीर को ग़नीमत जान और इस उम्र को गुज़रा हुआ पहचान, और अपने को मुर्दा समझ और जो हो सके आप को मरने वाला ख़्याल कर।
शे’र- जानीस्त हर आईन: नख़वाहद रफ़तन* अंदर ग़म-ए-इशक़ तू रवद औला तर* लेकिन तू बिस्तर-ए-राहत पर सोया हुआ है और नहीं जानता कि मोहब्बत का दा’वा करना किस का काम है और जो मोहब्बत का दा’वा करे और जब रात हो सो रहे उस का नाम झूटों के दफ़्तर में लिखेंगे, और आप से पूछा कि शरीअ’त और तरीक़त को किस तरह एक जानें, फ़रमाया कि जिस तरह तुम अपनी जान-ओ- तन को एक जानते हो।और जानो कि तरीक़त जान-ए-शरीयत है। और दरयाफ़्त किया कि अर्बाब-ए-शरीअ’त और अस्हाब-ए-तरीक़त की राह कौन सी है। इरशाद किया कि अह्ल-ए-शरा’ की राह नफ़्स और माल से बाहर आना और राह-ए-वह्दत में क़दम रखना और सवाल किया कि मालिक-उल-मुल्क कहाँ है कि हम उस की तरफ़ तवज्जोह करें। फ़रमाया कि कौन सी जगह है कि वह जहाँ नहीं है अयनमा तववल्लू फ़सम्मा वज्हुल़्लाहि। (जहां तुम होगे अल्लाह ता’ला वहाँ मौजूद होगा)और इस्तिफ़्सार किया कि किसी ने उस को देखा है कि दिखला दे, कहा कि उस ने देखा है जिस की आँखें हैं बल्कि उस ने देखा है कि जिस की आँखें नहीं और पूछा कि आतिश-ए-दोज़ख़ का दरवेशों से कुछ तअ'ल्लुक़ है, फ़रमाया कि नार-ए-दोज़ख़ अह्-एल-फ़क़्र के साथ कुछ आवेज़िश और आमेज़िश नहीं रखती। बहिश्त को भी आतिश-ए-फ़क़्र की ताब नहीं मगर फ़क़ीर कौन और फ़ुक़रा कहाँ और फ़क़्र एक स्याही है कि अलफ़्क़रु सवादुल वजहि फ़िद्दारैन। चेहरा की स्याही चाहिए कि फ़क़्र की रौशनी सीना में चमके और इरशाद किया कि फ़क़्र अम्र-ए-अ’दमी है और अ’दम के साथ फ़ख़्र करना मज़्मूम है और उस के वुजूद के साथ फ़ख़्र करना महमूद है, इसी सबब से हज़रत ख़्वाजा-ए-आलम फ़ख़्र-ए-बनी-आदम ने दुनिया और आख़िरत पर फ़ख़्र नहीं किया जब फ़क़्र से काम पड़ा फ़रमाया कि अलफ़क़्रु अलफ़ख़्री यानी फ़क़्र मेरा फ़ख़्र है।हज़रत सुल्तानुत -तारिकीन की वफ़ात उनतीस्वीं रबीउल-आख़िर सन छः सौ तिहत्तर हिज्री में हुई। मर्क़द-ए-मुक़द्दस नागौर में है।
ज़ुब्दतुल मुक़र्रिबीन शैख़ फ़रीदउद्दीन मसऊद अजोधनी शकर गंज का ज़िक्र
यह हज़रत औलिया-ए-किबार और मशाइख़-ए-नामदार से हैं ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के मुरीद और ख़लीफ़ा-ए-ख़ास हैं, उन के वालिद-ए-बुजु़र्गवार सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के भांजे और उन की वालिदा मौलाना वजीहुद्दीन की दुख़्तर थीं, शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया से मर्वी है कि एक रात एक चोर क़ौम-ए-कुफ़्फ़ार से आप की वालिदा के घर आया और नाबीना हुआ,जाना कि ख़ानक़ाह-ए-बुज़ुर्ग है, अल्लाह ता’ला से अह्द किया कि अगर मेरी आँखें रौशन हो जाएँ कभी दुज़्दी ना करूँ और अह्ल-ए-इस्लाम में शामिल हूँ, जब वह अ’फ़ीफ़ा सालिहा रौशन ज़मीर उस के इरादे पर मुत्तला हुईं, दुआ’ की, उस की आँखें हालत-ए-असली पर आ गईं और वह चला गया दूसरे रोज़ अपनी ज़न-ओ- फ़रज़ंद के साथ ख़िदमत में आ कर मुसलमान हुआ। आप ने उस का नाम अबदुल्लाह रखा और वह कामिलिन में से हुआ। कहते कि शैख़ फ़रीदुल- मिल्लत वद्दीन मुल्तान में मौलाना मिनहाजउद्दीन तिरमिज़ी की मस्जिद में अठारह बरस के सन् में तहसील-ए-उलूम दीन करते थे, उन्हीं अय्याम में ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन वारिद-ए-मुल्तान हुए और उस मस्जिद में तशरीफ़ लाए और शैख़ फ़रीदउद्दीन कि साहिब-ए-सलाह-ओ-तक़्वा थे, कमाल-ए-इख़्लास के साथ हज़रत ख़्वाजा ममदूह की ख़िदमत में हाज़िर हुए, हज़रत क़ुतुबुल-मिल्लत वद्दीन ने पूछा कि तुम्हारे हाथ में कौन सी किताब है, कहा नाफ़े' है इल्म-ए-फ़िक़्ह में, फ़रमाया कि इंशाअल्लाह ता’ला तुम को नाफ़े’ होगी, अ’र्ज़ किया कि मुझ को हुज़ूर की ख़िदमत नाफ़े’ है और उसी मज्लिस में मुरीद हुए, जब हज़रत क़ुतुबुद्दीन मुल्तान से आज़िम-ए-दिल्ली हुए शैख़ फ़रीद उद्दीन तीन मंज़िल तक हमराह आए, आख़िर हसब-ए-इमा-ए-पीर-ओ-मुर्शिद मुराजअ’त की और तहसील-ए-उलूम-ए-शरई में मशग़ूल हुए और शग़्ल-ए-तरीक़त भी रखते थे। जब उलूम-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन हासिल हुए दिल्ली का क़स्द फ़रमाया और पीर-ए-बर-हक़ की ख़िदमत में हाज़िर हुए, हज़रत बख़्तियार काकी उन के आने से बहुत ख़ुश हुए, दिल्ली में आप का बहुत शोहरा हुआ फिर हज़रत मुर्शिद से मुरख़्ख़स हो कर हांसी में तशरीफ़ ले गए और हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन की रेहलत के बाद दिल्ली में आ कर ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त पहना, एक हफ़्ता वहाँ रह कर हुजूम-ए-ख़लाइक़ के सबब फिर हांसी का क़स्द फ़रमाया और चंद रोज़ वहाँ रहे और कसरत-ए-इज़्दिहाम से घबरा कर मौज़ा' अजोधन में कि दीपाल-पूर के नज़दीक है आ कर क़याम पज़ीर हुए, वहाँ के आदमी सुस्त एतिक़ाद थे, इस बाइस से औक़ात में हरज वाक़े' नहीं होता था, ख़ातिरजमा' हो कर मशग़ूल हुए और वहाँ आप को तअह्हुल वाक़े' हुआ और आप की रियाज़त-ओ- मुजाहिदा और करामत की अतराफ़-ए-आ’लम में शोहरत हुई और तालिबान-ए-राह-ए-हक़ ने रू-ए-इरादत आस्ताना-ए-फ़ैज़ निशान पर रखा और शरफ़-ए-बैअ’त से मुशर्रफ़ हो कर मुराद को पहुँचे, आप के ख़वारिक़-ओ-करामात हद से ज़्यादा हैं, इस रिसाला में गुंजाइश नहीं। और हज़रत को गंज शकर इस वजह से कहते हैं कि एक-बार दिल्ली में सात रोज़ तक उन्हें कुछ खाने को ना मिला और इफ़्तार ना किया और हज़रत शैख़ अपने पीर की ख़िदमत में जाते थे। ग़ायत-ए-ज़ो’फ़ से पा-ए-मुबारक ने ना’लैन से लग़्ज़िश पाई और गिर पड़े और थोड़ी सी मिट्टी उन के मुँह में गई वह क़ुदरत-ए-इलाही से दहन-ए-मुबारक में शकर हो गई। शुक्र-ए-ख़ुदा अदा किया जब पीर-ओ-मुर्शिद की ख़िदमत में पहुँचे, उन्हों ने फ़रमाया कि फ़रीद उद्दीन मिट्टी तेरे मुँह में जा कर शकर हुई कुछ तअ’ज्जुब नहीं कि हक़ तआ’ला ने तेरे वुजूद को गंज-ए-शकर बनाया है और तू हमेशा शीरीं होगा। शैख़ शकर गंज ने सर-ए-नियाज़ ज़मीन पर रखा, जब वहाँ से चले जो कोई राह में मिलता था कहता था कि गंज शकर आता है उस की वज्ह-ए-तस्मीया कई तरह से लिखी है।मगर सही यही है और आप साइमुद-दह्र और क़ाइमुल्लैल थे, बीमारी की हालत में भी इफ़्तार नहीं करते थे और उन की ख़ुराक अक्सर जंगली मेवे और कनार-ए-सहराई होती थी और इस सिलसिला के अक्सर बुज़ुर्ग जंगली घांस और मेवों से इफ़्तार करते थे।हज़रत सुल्तानु -मशाइख़ से मन्क़ूल है कि फ़रमाते थे कि एक रोज़ हज़रत गंज शकर ने अपनी रीश-ए-मुबारक पर हाथ फेरा, उस से एक बाल जुदा हुआ मैंने इल्तिमास कर के वह मू-ए-मुबारक ले लिया और ता’वीज़ बना कर अपने पास रखा, जब मैं दिल्ली पहुंचा वहाँ जो कोई बीमार होता था, मैं उस को धो कर पिला देता था, शाफ़ी-ए-मुतलक़ शिफ़ा देता था, अल-ग़र्ज़ दिल्ली में उस का शोहरा था अक्सर अह्ल-ए-हाजत मुझ से मांग कर ले जाते और सेहत पाते और फिर वापस दे जाते थे उस को ब-हिफ़ाज़त-ए-तमाम ताक़ में रख देता था। एक रोज़ एक शख़्स मेरे दोस्तों से मेरे पास आया जौर अपने लड़के की बीमारी के वास्ते वह मू-ए-मुक़द्दस मांगा, हर-चंद मैंने उस ताक़ में और दूसरी जगह तलाश किया ना मिला, वह शख़्स नाउमीद गया और उस लड़के ने उस मरज़ में इंतिक़ाल किया।फिर उस ता'वीज़ को मैंने उसी ताक़ में पाया। और आप फ़रमाते थे कि जब मेरे पीर को बीमारी लाहिक़ हुई मुझ को इनायत से नवाज़ कर दिल्ली की तरफ़ मुरख़्ख़स फ़रमाया और उन की आँखों में पानी भर आया और यह ख़ाकसार भी उस रुख़्सत के वक़्त हर बार की निस्बत ज़्यादा अंदोहगीं और ग़म-नाक हुआ और उसी हाल पर मिला,मैं दिल्ली पहुंचा, नागाह उस हज़रत की रेहलत की ख़बर पहुँची कि एक रात को नमाज़-ए-इशा के बाद बेहोश हुए, जब होश में आए मौलाना बदरुउद्दीन इसहाक़ से इस्तिफ़सार किया कि मैंने इशा की नमाज़ पढ़ी या नहीं, कहा हाँ आप ने नमाज़ पढ़ ली है, मगर एहतियातन नमाज़-ए-मुकर्रर अदा की, फिर ग़शी तारी हुई, जब इफ़ाक़ा हुआ फिर पूछा कि नमाज़-ए-इशा मैंने पढ़ी है या नहीं, कहा हाँ पढ़ ली है, फिर तीसरी बार नमाज़ पढ़ी, फिर फ़रमाया कि निज़ामुद्दीन दिल्ली में है, मैं भी अपने पीर के इंतिक़ाल के वक़्त हांसी में था और मौलाना बदरुद्दीन इसहाक़ से आहिस्ता फ़रमाया कि हज़रत ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन का ख़िर्क़ा जो मुझ को पहुंचा है निज़ामुद्दीन को देना और वुज़ू कर के दोगाना अदा किया और सज्दा में जा कर वासिल हुए, आप की वफ़ात माह-ए-मुहर्रम की पांचवीं सन छः सौ चौसठ हिज्री में वाक़े’ हुई, मर्क़द क़स्बा पट्टन में जो लाहौर से नज़दीक है, वाक़े’ है। मुद्दत-ए-उम्र पचानवे बरस है।
ज़िक्र-ए-सुल्तान उल-औलीया, मलिकुल अतक़िया क़ुदूवा-ए-औलिया-ए-किराम, नुक़ावा-ए-मशाइख़-ए-इज़ाम शैख़ निज़ामुद्दीन मुहम्मद महबूब इलाही बदाओनी अलदेहलवी
इन के पिदर-ए-बुजु़र्गवार शैख़ अहमद इब्न-ए-दानियाल ग़ज़नीं से हिन्दोस्तान में आए थे और क़स्बा बदाओं में इक़ामत रखते थे। उन्हों ने हज़रत निज़ामुद्दीन को पाँच साल की उम्र में छोड़ कर रेहलत फ़रमाई। वालिदा ने आप की परवरिश की, जब बुलूग़ को पहुँचे कमाल-ए-ज़ोह्द-ओ- वरा’ के साथ उलूम-ए-ज़ाहिर के हासिल करने में मशग़ूल हुए और पच्चीस बरस की उम्र में दिल्ली में तशरीफ़ लाए और अपनी वालिदा को साथ रखते थे और दिल्ली में तहसील-ए-उलूम किया। और मौलाना शम्सुद्दीन ख़्वारज़मी के दर्स में जो बड़े फ़ाज़िल और कामिल थे, हाज़िर हुए थे अगरचे बादशाह-ए-अस्र की मुम्लिकत का मदार मौलाना साहिब के सिपुर्द था और शम्सुल-मलिक उन का ख़िताब था मगर आप की ता’ज़ीम और एहतिराम और उल्मा फुज़ला की ब-निसबत ज़्यादा करता था, आप मुताअह्हिल नहीं हुए, हज़रत गंज शकर के भाई हज़रत नजीबउद्दीन मुतवक्किल के घर के नज़दीक आप का हुज्रा था औए उन के साथ जो क़ुर्ब-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी हासिल था अक्सर उन के हम-सोहबत रहते थे और उन से इख़्लास-ए-तमाम रखते थे, आप की वालिदा ने उन्हीं दिनों रेहलत की। एक दिन हज़रत निज़ामुद्दीन ने हज़रत नजीब उद्दीन से इल्तिमास-ए-फ़ातिहा किया कि मैं किसी जगह का क़ाज़ी हो जाऊं कि ख्ल्क़ुल्लाह को अद्ल-ओ-इन्साफ़ से दिलशाद करूँ, हज़रत ने कुछ जवाब ना दिया फिर मुकर्रर अ’र्ज़ किया, शैख़ ने फ़रमाया कि हरगिज़ क़ाज़ी ना हो और चीज़ हो जिस को मैं जानता हूँ, इन दिनों हज़रत गंज शकर के हालात और मक़ामात का आवाज़ा आ’लम को घेरे हुए था, चंद रोज़ के बा’द अजोधन को तशरीफ़ ले गए और हज़रत शैख़ की मुलाज़मत हासिल की। और आप फ़रमाते थे कि मैं शैख़ फ़रीदुल- मिल्लत का मुरीद हुआ। उन अय्याम में उन पर फ़क़्र और उस्रत ग़ालिब थी।चुनांचे हफ़्ता में एक दो रोज़ फ़ाक़ा होता था और मुरीद सहरा को जाते थे। एक शख़्स करेले लाता था, एक पानी और एक लकड़ियाँ और मैं उन को हांडी में उबालता था और प्याली में निकाल कर हज़रत के सामने हाज़िर करता था। और आप उसी से इफ़्तार फ़रमाते थे और दरवेशों को क़िस्मत करते थे। और मुयस्सर ना था कि नमक उन में डाला जावे। एक दिन मैंने थोड़ा सा नमक क़र्ज़ लिया और उन में डाला, जब तैयार कर के सामने रखा, आप ने तनावुल फ़रमाया और कहा कि इस में कुछ शुबहा है, मैंने अ’र्ज़ किया कि मौलाना बदरुद्दीन इसहाक़ और शैख़ जमाल हानसवी और मौलाना हुसामउद्दीन एक एक चीज़ लाते हैं और मैं बड़ी एहतियात से जोश करता हूँ।शुबहा की वजह आप पर ज़ाहिर हो गई फ़रमाया कि दरवेश फ़ाक़ा से मर जायें मगर लज़्ज़त-ए-नफ़्स के वास्ते क़र्ज़ ना लें, इस वास्ते कि क़र्ज़ और तवक्कुल में बो’दल मश्रीक़ैन है, फिर फ़रमाया कि पियाला उठाओ और यह फ़रमान मुझ को था। उस वक़्त से मैंने अह्द किया कि हरगिज़ किसी ज़रूरत के वास्ते क़र्ज़ ना लूँगा फिर जिस कम्बल पर आप बैठे थे मुझ को इनायत किया और दुआ’ की कि तू हरगिज़ किसी का मुहताज ना हो। और जब इस फ़क़ीर को दिल्ली की रुख़्सत दी, वसीयत की कि दुश्मनों को ख़ुश रखना और जो किसी से क़र्ज़ लिया हो उस को ज़रूर अदा करना, में जब दिल्ली में पहुंचा हज़रत नजीबउद्दीन की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अपनी इरादत और मुलाज़मत का हाल अ’र्ज़ किया, बहुत ख़ुशी हुई और सुल्तान उल-औलीया ने फ़रमाया कि ये आ’सी जब दिल्ली में वारिद हुआ कोई जगह ऐसी जहाँ फ़राग़त के साथ मशग़ूल हों ना देखी, सहरा में जा कर मशग़ूल होता था और क़ुरआन शरीफ़ हिफ़्ज़ करता था, एक दिन हौज़ तुग़लक़ के किनारे गुज़र हुआ, एक दरवेश देखा कि साहिब-ए-हाल था, मैंने पूछा कि तुम शहर में रहते हो, कहा कि शहर सुकूनत की जगह नहीं है अगर इबादत की हलावत चाहे तो शहर में ना रह। फिर एक बाग़ में गया और तजदीद-ए-वुज़ू कर के दोगाना अदा किया और मुनाजात की कि इलाही जहाँ मेरे हाल की बेहतरी हो वह जगह मुल्हिम हो कि वहाँ क़याम करूँ, ग़ैब से आवाज़ सुनी कि तेरे रहने कि जगह ग़ियास-पुर है, जब ये इशारा पाया मैं ग़ियास- पुर में जा कर मुक़ीम हुआ। हज़रत सुल्तानुलल-मशाएख़ का रौज़ा-ए-मुबारक वहीं है। अल-हासिल ग़ियास-पुर में हुज्रा बना कर ख़िल्क़त की हिदायत और इरशाद में मशग़ूल हुए। बहुत आदमी आप के साथ अ’क़ीदत और इरादत ला कर मआ’सी और मनाही से ताइब और मुरीद हुए। और अमीर सैफ़उद्दीन ने अपने फ़रज़न्दों अइज़उद्दीन अ’ली शाह और हुसामउद्दीन अहमद और ख़्वाजा अबू-हसन ख़ुसरो के साथ हज़रत सुल्तान- उल-औलीया से बैअ’त की। अमीर सैफ़उद्दीन एक मर्द-ए-सालिह थे और ख़्वाजा ख़ुसरो उन के फ़र्ज़ंद कि तारीफ़ और तौसीफ़ से मुस्तग़नी हैं। वह बीस बरस की उम्र में शैख़ निज़ामुद्दीन के मुरीद हुए। उन का एतिक़ाद और सिद्क़ हज़रत की तरफ़ ब-दरजा-ए-कमाल था और आप सुल्तान उल-शो’रा-और बुरहान –उल- फ़ुज़ला, तर्ज़-ए-सुख़न-ए-नज़म-ओ-नस्र और जुमला उलूम में यगाना-ए-रोज़गार और इल्म-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी के जामे’ थे। रियाज़त और मुजाहिदा-ए-कामिल रखते थे। कहते हैं कि हर रात को सज्दे में सात पारा क़ुरआन-ए-मजीद पढ़ते थे और मन्क़ूल है कि जब वह पैदा हुए उन के वालिदैन को एक कपड़े में लपेट कर एक मज्ज़ूब के पास ले गए, मज्ज़ूब ने कहा कि तू उस शख़्स को लाया है कि ख़ाक़ानी से दो क़दम आगे निकल जाएगा और हज़रत अमीर ख़ुसरो ने कमालात-ए-मज़कूरा के साथ इल्म -ए-मौसीक़ी को जमा’ किया और इस फ़न में यकता थे। क़ौल और तराना की रविश जो इस वक़्त में मशहूर है उन्हों ने वज़ा’ की,उन से पहले ना थे।लिखा है कि हज़रत शैख़ की इनायत उन के बारे में यहाँ तक थी कि एक-बार फ़रमाया कि मैं सब से नाख़ुश हो जाता हूँ मगर तुझ से नहीं। रिवायत है कि सुल्तान अलाउद्दीन बादशाह दिल्ली ने अपने छोटे भाई को एक सरहद की तस्ख़ीर के वास्ते भेजा था। उस पर एक मुद्दत गुज़री मगर कुछ ख़बर ना आई। हज़रत सुल्तान-उल-मशाएख़ की ख़िदमत में अपना आदमी रवाना किया और कहा भेजा कि मैं यही चाहता हूँ कि उधर लश्कर कशी करूँ, आप यहाँ क़दमरंजा फ़रमाएं कि हसबल-इरशाद अ’मल किया जावे और चाहा कि इस तक़रीब से क़ुदूम-ए-फ़ैज़ लज़ूम का शरफ़-ए-उज़्मा पाए। यह सुन कर आप ने मुराक़िबा किया, थोड़ी देर के बाद सर उठा कर फ़रमाया कि जा बादशाह से कह, कल उस मुम्लिकत के फ़त्ह की ख़बर आएगी और तेरा भाई भी ग़नाइम-ए-कसीर के साथ पहुँचेगा। जब यह बशारत बादशाह को पहुँची बहुत ख़ुश हुआ। दूसरे रोज़ दो शुत्र-सवार फ़त्ह का मुज़्दा लाए, बादशाह ने पाँच सौ दीनार-ए-सुर्ख़ हज़रत की ख़िदमत में पेशकश की, वहाँ एक दरेश हाज़िर था असफंदयार नाम उस ने कहा कि अलहदाया मुशतराकुन यानी हदिया बे-शिर्कत ना होना चाहीए, आप ने फ़रमाया मगर अकेले को ही मिलना बेहतर है और वह पाँच सौ दीनार उस को अ’ता किए। नक़्ल है कि वज्द-ओ-ज़ौक़ आप का दर्जा-ए-कमाल पर था और समाअ’ बहुत करते थे और ख़वारिक़-ए-आदत और करामात हद्द-ए-बयान से बाहर हैं। जब सिन्-ए-मुबारक चौरानौवें साल का हुआ मरज़ुल-मौत में आठ माह तक बौल-ओ-बराज़ बंद रहा, ख़ादिम से फ़रमाया जो कुछ नक़्द और जिन्स से हमारे मिल्क में है हाज़िर कर कि मुस्तहिक़ों को तक़्सीम करूँ, ख़ादिम ने अ’र्ज़ किया कि जो कुछ फ़ुतूह में पहुँचता है दूसरे दिन तक नहीं रहता, मगर कई हज़ार मन ग़ल्ला मौजूद है कि फ़क़ीरों के वास्ते लंगर पकाया जाता है, फ़रमाया कि जल्द सर्फ़ कर, फिर अपने ख़ास कपड़े मंगाए और ख़ुलफ़ा को तक़्सीम किए और हर एक को एक एक जगह रवाना किया, शैख़ नसीरउद्दीन हाज़िर थे उन्हें कुछ ना दिया। चार-शंबा के रोज़ उन को तलब फ़रमाया और ख़िर्क़ा और अ’सा और तस्बीह और कासा-ए-चोबीं जो कुछ अपने पीर हज़रत गंज शकर से पाया था उन को सिपुर्द किया और अपना जा-नशीन कर के वासिल-ए-रहमत हुए। आप की वफ़ात चार-शंबा के रोज़ दसवीं रबी–उल-आख़िर सन सात सौ पच्चीस हिज्री में हुई। मर्क़द-ए-मुनव्वर ग़ियास-पुर में है। इंतिक़ाल के वक़्त हज़रत मलिकुश्शुअरा सुल्तान तुग़ल्लुक़ के बंगाला में थे जब ये ख़बर सुनी दिल्ली का क़स्द किया और मज़ार-ए-पुर-नूर पर पहुँच कर क़ब्र के मुक़ाबिल खड़े हुए और कहा कि सुब्हान-अल्लाह आफ़ताब ज़मीन के नीचे और ख़ुसरो ज़िंदा, और रू-ए-गर्द-आलूदा को मर्क़द-ए-मुनव्वर पर घिस कर बेहोश हुए और स्याह कपड़े पहने और तीन माह और पंद्रह रोज़ के बाद ख़ुद भी रेहलत फ़रमाई। और पीर-ओ-मुर्शिद की पायँती मदफ़ून हुए। सन सात सौ पच्चीस हिज्री में चार-शंबा के रोज़ इंतिक़ाल फ़रमाया।
ज़िक्र-ए-क़ुद्वा-ए-आरिफ़ान ज़ुब्दा-ए-कामिलान आसमान-ए-जहान विलायत क़ुतुब-ए-फ़लक-ए-करामत हज़रत शैख़ नसीर उद्दीन महमूद अवधी
सूफ़ियान-ए-बा-तमकीन और बुज़ुर्गान-ए-अह्ल-ए-यक़ीन से हुए हैं। हालात-ए-अलिया ओर और मुकाशफ़ात जलीया रखते थे। उन का तवल्लुद मुल्क-ए-अवध में हुआ। वालिद-ए-बुजु़र्गवार उन को नौ बरस की उम्र में छोड़ कर आज़िम-ए-बहिश्त हुए। वालिदा ने ता’लीम-ए-उलूम-ए-दीन में जहद किया। पच्चीस बरस इस में सर्फ़ किए, फिर कस्ब-ए-कमालात-ए-बातिन की तरफ़ तवज्जोह की। रियाज़त और मुजाहिदा आ’ला दर्जा में था। सात बरस तक एक दो दरवेश के साथ नमाज़-ए-जमाअ’त के ख़्याल से जंगल में जा कर मशग़ूल होते थे और अक्सर बुज़ुर्ग सँभालू से इफ़्तार करते थे। जब तैंतालीस साल गुज़रे दिल्ली में पहुँचे और हज़रत सुल्तान उल-औलीया शैख़ निज़ामुद्दीन से इरादत की और पीर की ख़िदमत में मशग़ूल-ए-तलब रहते थे। उन की एक हमशीरा थी राबिया-ए-वक़्त, उस के नफ़्क़ा की फ़िक्र में पीर से रुख़्सत हासिल कर के अवध में आते-जाते थे और अक्सर शैख़ बुरहानउद्दीन ग़रीब के घर में जो हज़रत सुल्तान-उल-मशाएख़ के ख़लीफों से है, क़याम रखते थे और हज़रत शैख़ निज़ामुद्दीन ने एक कुलाह-ए-नमदी शैख़ बुरहानउद्दीन को इनायत फ़रमाई थी, वह गुम हो गई थी इस सबब से मलूल रहते थे। एक दिन आप मुराक़िबा में थे और शैख़ बुरहानउद्दीन अन्दोहनाक आ कर उन के पास बैठे, जब मुराक़िबा से फ़ारिग़ हुए शैख़-ए-मौसूफ़ को बहुत ग़मगीं देखा। उस का बाइस दरयाफ़त क्या, कहा कि पीर–ओ-मुर्शिद की कुलाह-ए-मुबारक गुम हो गई है, फिर मुराक़िबा कर के सर उठाया और फ़रमाया कि अंदोहगीं ना रहो कि कुलाह मिल जाएगी और दूसरे रोज़ जब शैख़ बुरहानउद्दीन हज़रत सुल्तान-उल-औलीया की ख़िदमत में हाज़िर हुए। आप ने सफ़-ए-ख़ास का मुसल्ला उन को मर्हमत किया, शैख़-ए-मौसूफ़ ख़ुश-ओ- ख़ुर्रम घर को रवाना हुए और मुसल्ला रखने के वास्ते बुक़्चा खोला और कुलाह को उस में पाया, शुक्र-ए-हक़ में सर को झुकाया और शैख़ नसीरउद्दीन ने इरशाद किया कि लिबास-ए-दरवेशी का हक़ यह है कि गंदुम नुमा जौ फ़रोश होना चाहिए। सूफ़ी को जफ़ाकशी और वफ़ादारी लाज़िम है, अगर हज़रत शैख़-उल-मशाएख़ ना फ़रमाते कि शहर में रह और जफ़ा खींच, हरगिज़ मेरी नीयत आबादी में रहने की ना थी, ब्याबान और कोहिस्तान में मशग़ूल रहता। और आप तरीक़-ए-मुर्शिद के मुवाफ़िक़ मुताअह्हिल नहीं हुए और हज़रत सुल्तान-उल-औलीया के ख़ुलफ़ा उन को अपना फ़ख़्र समझते रहे, तस्लीम-ओ- रज़ा और इस्तिग़राक़ हज़रत को बेहद था। नक़्ल है कि एक दिन आप हुज्रे में मशग़ूल थे, नागाह एक क़लंदर तुराब नाम, उस के सर पर ख़ाक, हुज्रे में आया और छुरी से ग्यारह ज़ख़्म जिस्म-ए-मुबारक पर लगाए, ख़ून हुज्रे से रवाँ हुआ, ख़ुद्दाम ख़बरदार हो कर दौड़े, हज़रत को इबादत में मशग़ूल पाया और मुरीदों ने चाहा कि उस बद-बख़्त को ईज़ा पहुंचाएं, आप ने मना’ किया और बीस अशर्फ़ी क़लंदर को इनाम फ़रमाएं और उज़्र किया कि तेरे हाथ को छुरी मारने के वक़्त आज़ार पहुंचा होगा। इस क़ज़ीया के बा’द आप तीन साल तक ज़िंदा रहे, अठारहवीं रमज़ान उल-मुबारक शब-ए-जुमा’ को रेहलत की। इंतिक़ाल के वक़्त मौलाना जैन-उद्दीन अ’ली ने जो उन के मुरीद और ख़ादिम थे अर्ज़ किया कि ख़ुलफ़ा और मुरीद बहुत हैं, एक को ख़िर्क़ा और जा-नशीनी इनायत हो, फ़रमाया कि सब के नाम लिख कर लाओ, जब सब के
नाम पढ़ कर सुनाए फ़रमाया उन से कहो कि अपने ईमान का ग़म खाएं, उस की क्या जगह है कि सब का बोझ उठाएं और वसीयत की कि दफ़्न के वक़्त हज़रत-ए-पीर का ख़िर्क़ा मेरे सीना पर और अ’सा को मेरे बराबर, ना’लैन को बग़ल में और कासा-ए-चोबीं मेरे सर के नीचे ख़िश्त की जगह रख दें और तस्बीह को मेरी उंगलीयों में लपेट दें, मुरीदों और खादिमों ने वसीयत के मुवाफ़िक़ अ’मल किया और अठारहवीं माह-ए-रमज़ान को चाशत के वक़्त सन सात सौ सतानवे हिज्री में वफ़ात पाए। मज़ार-ए-मुबारक दिल्ली से बाहर है।
ख़ातमा
जान कि ये ज़ईफ़ा अदा-ए -फ़राइज़ और वाजिबात और तिलावत-ए-क़ुरआन-ए-मजीद के बाद औलिया-ए-किराम के हालात और मक़ामात के ज़िक्र से किसी इबादत को बेहतर नहीं जानती, इस वास्ते अपने ख़ुलासा-ए-औक़ात को उन किताबों के मुताला’ में जो अह्वाल-ए-बुज़्रगान-ए-दीन - पर मुश्तमिल हैं, गुज़ारती है और कमाल-ए-इख़्लास और अक़ीदतमंदी ने इस हक़ीरा को आमादा किया कि एक मुख़्तसर रिसाला उस सुल्तान-ए-आली-जाह और उस के खल़िफ़ा-ए-हक़ आगाह के हालात में तहरीर करे। अलहम्दु लिल्लाहि वल्मिन्ना कि ख़ुदा-ए-अ’लीम-ओ- क़दीर की तौफ़ीक़ से यह रिसाला सत्ताईसवें माह-ए-मुबाक रमज़ान सन एक हज़ार चौरानवे हिज्री में इख़्तिताम को पहुंचा। इस नुस्ख़ा को मोअ’तबर किताबों से जमा’ किया है, लुत्फ़-ए-इलाही से उमीद है कि नाज़रीन को बहरा-ए-तमाम हासिल होगा। अब यह ज़ईफ़ा रौज़ा-ए-मुतबर्रिका पर हाज़िर हुई और ज़ियारत करने का हाल यहाँ लिखना मुनासिब समझती है। हम्द-ए-हज़रत-ए-किब्रिया और ना'त-ए-मुस्तफ़ा के बा’द कहती है कि फ़क़ीरा जहाँ आरा कि यावरी-ए-बख़्त और फ़ीरोज़ी-ए-तालिअ’ से मैं दार-उल-ख़िलाफ़ा अकबराबाद से अपने वालिद-ए-बुजु़र्गवार के हमराह ख़ित्ता-ए-पाक अजमेर की तरफ़ रवाना हुई, अठारहवीं तारीख़ माह-ए-शा’बान सन एक हज़ार तिरेप्पन में सातवीं तारीख़ माह-ए-रमज़ान-उल-मुबारक को जुमा’ के रोज़ अजमेर की उस इमारत में जो ताल-ए-अन्ना सागर के किनारे पर है,क़याम किया। राह में तौफ़ीक़-ए-इलाही से हर-रोज़ हर मंज़िल पर दो रकअ’त नमाज़-ए-नफ़ल अदा करती थी और एक बार सूरा-ए-यासीन और सूरा-ए-फ़ातिहा इख़्लास-ए-तमाम के साथ पढ़ कर उस का सवाब हज़रत ख़्वाजा मुइनुद्दीन की रूह पर फ़ुतूह को नज़्र करती थी। इमारत-ए-मज़कूरा में चंद रोज़ तवक़्क़ुफ़ हुआ, कमाल-ए-अदब से मैं रात को पलंग पर ना सोई और रौज़ा-ए-मुक़द्दस की तरफ़ पाँव ना फैलाई और अक्सर उस तरफ़ पुश्त ना की और दिनों को दरख़्तों के नीचे गुज़ारती, उस शाह-ए-दीं पनाह की बरकत और सरज़मीन-ए-जन्नत आईन के फ़ैज़ से अ’जीब शौक़-ओ-ज़ौक़ हासिल होता था, एक रात मीलाद-ए-शरीफ़ और चराग़ाँ ख़ुशी का एहतिमाम किया गया, जहाँ तक रौज़ा-ए-आ’लीया की ख़िदमत हो सकी उस में तक़्सीर ना की, सद हज़ाराँ-हज़ार शुक्र कि चौदहवीं रमज़ान-उल-मुबारक को मर्क़द-ए-मुक़द्दस की ज़ियारत हासिल की, एक पहर दिन बाक़ी रहा था कि रौज़ा-ए-मुनव्वरा के अंदर गई और अपने रुख़-ए-ज़र्द को उस आस्ताना की ख़ाक पर मला और दरवाज़ा से गुंबद-ए-मुबारक तक ज़मीन बोस पा-बरहना गई और रौज़ा-ए-जन्नत-निशॉँ में दाख़िल हुई, सात बार क़ब्र-ए-अतहर के गिर्द फिरी और वहाँ की ख़ाक-ए-पाक को आँखों का सुरमा बनाया। उस वक़्त अ’जीब ज़ौक़ और कैफ़ीयत हासिल हुई कि लिखने में नहीं आती। निहायत-ए-शौक़ से सरासीमा हो गई थी और नहीं जानती थी कि क्या कहूँ और क्या करूँ, फिर मैंने अपने हाथ से तुर्बत-ए-मुअत्तर-ओ-मुअंबर पर इत्र मला और फूलों की चादर अपने सर पर रख कर लाई और क़ब्र-ए-मुबारक पर डाली और संग मरमर की मस्जिद में कि मेरे पिदर-ए-बुजु़र्गवार की बनवाई हुई है, दोगाना-ए-शुक्र अदा किया। फिर गुंबद-ए-मुबारक में बैठ कर सूरा-ए-यसीन और फ़ातिहा रूह-ए-मुबारक के वास्ते पढ़ी। नमाज़-ए मग़रिब के वक़्त तक मैं वहाँ रही और मर्क़द-ए-मुनव्वर पर शम्अ’ रौशन कर के रोज़ा पानी से इफ्तार किया, अ’जब शाम देखी कि सुब्ह से बेहतर थी अगरचे इख़्लास और मोहब्बत और हिम्मत इस की मुताक़ाज़ी ना थी कि ऐसी जा-ए-मुताबर्रिका पर जा कर फिर घर को आइए लेकिन क्या चारा :
रिश्ता-ए-दर गर्नम अफ़्गंद: दोस्त * मी बुरद हर जा का ख़ातिर ख़्वाह-ए-उस्त *
ना-चार चशम-ए-गिर्यां और सीना-ए-बिर्याँ सौ हज़ार अफ़्सोस के साथ इस बारगाह से मुरख़्ख़स हो कर क़यामगाह में पहुँची, तमाम रात बे-क़रारी रही, सुब्ह को जुमा’ के दिन वालिद-ए-बुजु़र्गवार ने अकबराबाद की तरफ़ क़स्द फ़रमाया, अब हज़रत ग़रीब नवाज़ के लुत्फ़-ए-अ’मीम से उमीद है कि ये मजमूआ’ दर्जा-ए-क़ुबूलीयत को पहुँचे और इस मुरीदा पर तवज्जोह फ़रमाते रहें। व सल्लल्लाहु अ’ला ख़ैरि ख़ल्क़िहि मुहम्मद व अ’ला आलिहि व असहाबिही अजमईन।
ग़ज़ल दर मनक़बत-ए-हज़रत ख़्वाजा ग़रीबनवाज़, मुसन्निफ़: हज़रत कलीम साहिब मुतर्जिम-ए-किताब
ख़्वाजा-ए-शाह बंदा परवर ले ख़बर
ऐ हबीब-ए-रब्ब-ए-अकबर ले ख़बर
हिज्र में हूँ मिस्ल क़ुमरी ना’रा-ज़न
सर्व-ए-गुलज़ार-ए-पयम्बर ले ख़बर
हो गया है ग़म से ख़ूँ मेरा जिगर
ऐ जिगर पैवंद-ए-हैदर ले ख़बर
क़ुर्रतुल –ऐन-ए-हसन जान-ए-हुसैन
हज़रत-ए-ज़हरा के दिलबर ले ख़बर
मैं हूँ और ग़म की अँधेरी रात
ऐ मेरे माह-ए-मुनव्वर ले ख़बर
गुलशन-ए-दिल है मेरा वक़्फ़-ए-ख़िज़ाँ
बाग़-ए-इरफ़ाँ के गुल-ए-तर ले ख़बर
हूँ असीर-ए-आफ़त-ओ-रंज-ओ-बला
रहम कर मुझ पर करम कर, ले ख़बर
मा’रिफ़त की राह पेचा-पेच है
मेरे मुर्शिद मेरे रह्बर ले ख़बर
हाल बद-तर है कलीम-ए-ज़ार का
जान आ पहुँची है लब पर ले ख़बर
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