Sufinama

गुनाह पर अशआर

गुनाहः अस्लन फ़ारसी

ज़बान का लफ़्ज़ है। उर्दू में फ़ारसी से माख़ूज़ है और बतौर-ए-इस्म इस्ति’माल होता है। 1611 ई’स्वी में “कुल्लियात-ए-क़ुली क़ुतुब शाह” में इसका इस्ति’माल मिलता है। लुग़त में इसका मा’नी है ऐसा फ़े’ल जिसका करने वाला मुस्तहिक़-ए-सज़ा हो। जुर्म, ना-पसंदीदा फ़े’ल, फ़े’ल-ए-मम्नूआ’, बुरी बात वग़ैरा को गुनाह से ता’बीर किया जाता है। तरीक़त में अपने आपको दुनिया में मुंहमिक रखने और हक़ से ग़ाफ़िल होने को गुनाह कहा जाता है।

तुफ़ैल-ए-आल-ए-मुहम्मद नजात होगी नजीब

सियाह-कार अगर और गुनाह-गार हूँ मैं

नजीब लखनवी

यही ख़ैर है कहीं शर हो कोई बे-गुनाह इधर हो

वो चले हैं करते हुए नज़र कभी इस तरफ़ कभी उस तरफ़

अकबर वारसी मेरठी

फ़रिश्ते मरे बाँट लें कुछ गुनाह

कमी हो गर अम्बारी दोश में

रियाज़ ख़ैराबादी

गुनाह करता है बरमला तू किसी से करता नहीं हया तू

ख़ुदा को क्या मुंह दिखाएगा तू ज़रा बे-हया हया कर

फ़क़ीर मोहम्मद गोया

बे-पिए भी सुब्ह-ए-महशर हम को लग़्ज़िश है बहुत

क़ब्र से क्यूँ कर उठें बार-ए-गुनाह क्यूँ कर उठे

रियाज़ ख़ैराबादी

शरमिंदा हूँ गुनाह से अपने मैं इस क़दर

क्या चश्म-ए-पुर-गुनह को तेरी दू-बदू करें

अता हुसैन फ़ानी

मा’सूमी-ए-जमाल को भी जिन पे रश्क है

ऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

जिगर मुरादाबादी

जानता हूँ मैं कि मुझ से हो गया है कुछ गुनाह

दिलरुबा या बे-दिलों से दिल तुम्हारा फिर गया

किशन सिंह आरिफ़

जो माँगना हो ख़ुदा से माँगो उसी से बख़्शिश की इल्तिजा हो

गुनाह ढल कर हो पानी पानी सँभल के चलिये क़दम क़दम पर

संजर ग़ाज़ीपुरी

करो रिंदो गुनाह-ए-मय-परस्ती

कि साक़ी है अ’ता-पाश-ओ-ख़ता-पोश

बेदम शाह वारसी

दिल को बिठाए देती है तकलीफ़ राह की

क्यूँ कर कोई उठाए ये गठरी गुनाह की

कौसर ख़ैराबादी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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