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Qawwalo'n ke Qisse - Aziz Naza'n Qawwal ka Qissa

सुमन मिश्रा

Qawwalo'n ke Qisse - Aziz Naza'n Qawwal ka Qissa

सुमन मिश्रा

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    क़व्वाली का सबसे रोचक पक्ष यह है कि हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब की जब नीव डाली जा रही थी, क़व्वाली ने उस काल को भी अपने रस से सींचा है. क़व्वाली ने हिन्दुस्तानी साझी संस्कृति को सिर्फ़ बनते देखा है बल्कि इस अनोखी संस्कृति के पैराहन में ख़ूबसूरत बेल बूटे भी लगाये हैं और अपने कालजयी संगीत से इस संस्कृति की नीव भी मज़बूत की है. क़व्वालों को यह संस्कृति विरासत में मिली है. क़व्वालों के क़िस्से आज के दौर में इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्यूंकि इन्हों ने हमारी इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को अपना स्वर दिया है.

    ज़्यादातर क़व्वालों को जहाँ एक सीमित क्षेत्र में ही प्रसिद्धि मिल पायी वहीँ कुछ क़व्वाल ऐसे भी थे जिन्होंने बड़े-बड़े उस्ताद गायकों को भी पीछे छोड़ दिया. 1975 में जब सोने का भाव 520 रूपये प्रति तोला हुआ करता था उस दौर में एक क़व्वाल ऐसे भी थे जिन्होंने कलकत्ता के कला मंदिर में अपने एक प्रोग्राम के लिए 1,80,000 रूपये की राशि ली थी. इनकी प्रसिद्धि का आ’लम यह था कि उनकी राँची यात्रा के दौरान लोगों ने ट्रेन रोक दी थी ताकि इनसे एक बार हाथ मिलाने का मौक़ा’ मिल सके. 1977 में दोबारा झांसी में ट्रेन रोकनी पड़ी और लोगों ने इनका इस्तिक़बाल किया. ये क़व्वाल थे अ’ज़ीज़ नाज़ाँ जिन्हें ‘बाग़ी क़व्वाल’ भी कहा जाता है .

    अ’ज़ीज़ नाज़ाँ (7 मई 1938- 8 अक्टूबर 1992) मुंबई के एक प्रतिष्ठित मालाबारी मुस्लिम परिवार में पैदा हुए. घर में संगीत सुनने और गाने की सख्त़ मनाही थी. इस माहौल में भी उन्होंने चोरी-छिपे संगीत की शिक्षा जारी रखी. हर बार जब वह गाते-बजाते पकड़े जाते तो उनकी जम कर पिटाई होती पर कलाकार वह क्या जो समाज के विरोध से कला को छोड़ दे ! उनके पिता का जब देहांत हुआ तब अ’ज़ीज़ 9 साल के थे. उस के बा’द ही वह ऑर्केस्ट्रा में शामिल हो गए और लता जी के गीत गाने लगे. कुछ ही समय बा’द वह प्रसिद्ध क़व्वाल इस्माइ’ल आज़ाद के सानिध्य में गए जो अपनी क़व्वाली ‘हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने’ से फ़िल्म जगत में अपनी धाक जमा चुके थे. धीरे धीरे अ’ज़ीज़ नाज़ाँ की ख्याति बढ़ने लगी और उन्हें स्वतंत्र क़व्वाल के रूप में जाना जाने लगा. 1962 में उन्होंने ग्रामोफ़ोन कंपनी के साथ क़रार पर हस्ताक्षर किये .

    1962 अ’ज़ीज़ के लिए बड़ा भाग्यशाली वर्ष रहा. उन्होंने ‘जिया नहीं माना’ रिकॉर्ड किया जो लोगों के बीच बड़ा प्रसिद्ध हुआ. 1968 में उन्होंने ‘निग़ाह-ए-करम’ रिकॉर्ड किया जिसे क़व्वाली पसंद करने वालों ने ख़ूब सराहा. उन्हें अस्ल मायनों में सफलता 1970 में मिली जब कोलंबिया म्यूज़िक कंपनी द्वारा ‘झूम बराबर झूम’ रिलीज़ किया गया और इस गाने नें सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.1973 में फ़िल्म ‘मेरे ग़रीब नवाज़’ को इसी गाने की ब-दौलत अपार सफलता मिली. उस समय प्रचलित रेडियो प्रोग्राम बिनाका गीत माला में ‘झूम बराबर झूम’ कई हफ़्तों तक पहले नंबर पर रहा था.

    झूम बराबर झूम ने अ’ज़ीज़ नाज़ाँ की गायकी को जन मानस के दिलों में सदा के लिए स्थापित कर दिया था.इस गाने के बा’द अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने कई फ़िल्मों में ब-तौर प्ले बैक सिंगर भी कार्य किया जिनमें रफ़ू चक्कर (1975), लैला मज्नूँ (1976 ), फ़कीरा (1976) और तृष्णा (1978 ) आदि उल्लेखनीय हैं.

    जीवन के शुरूआ’ती दिनों में अ’ज़ीज़ नाज़ाँ उस्ताद बड़े ग़ुलाम अ’ली ख़ान साहब के घर पर चले जाया करते थे जो उनके घर के पास ही भिन्डी बाज़ार में स्थित था. बड़े ग़ुलाम अ’ली ख़ान साहब के यहाँ संगीत के विद्वानों का तांता लगा रहता था. अ’ज़ीज़ उन्हें बैठ कर धंटों सुना करते थे. उन्होंने यहाँ बैठ कर शास्त्रीय संगीत की बारीकियाँ सीखीं. बा’द में वह मुहम्मद इब्राहीम ख़ान साहब के शागिर्द बन गए जो म्यूज़िक डायरेक्टर ग़ुलाम मुहम्मद साहेब के छोटे भाई और नौशाद साहब के असिस्टेंट थे. कुछ समय बा’द उन्हें प्रसिद्ध म्यूज़िक डायरेक्टर रफ़ीक़ ग़ज़नवी साहब से संगीत सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो मदन मोहन, ग़ुलाम मुहम्मद और उनके पूर्व उस्ताद मुहम्मद इब्राहीम ख़ान साहब के गुरु रह चुके थे.

    नाज़ाँ मालाबारी थे और उनकी मातृभाषा मलयालम थी. उन्होंने औपचारिक शिक्षा गुजराती माध्यम से पूरी की थी. क़व्वाली पढ़ने के लिए उन्होने उर्दू शाए’र सादिक़ निज़ामी से उर्दू शाए’री की बारीकियां सीखीं.अ’ज़ीज़ नाज़ाँ को शाए’री का बड़ा शौक़ था. उनकी निजी लाइब्रेरी में हज़ारों किताबें थीं और वह हर महीने पाकिस्तान और भारत के प्रकाशकों से 50- 60 नयी किताबें मंगवाते थे.कई प्रसिद्ध शाए’र यथा बशीर बद्र, मख़मूर सई’दी, मे’राज फ़ैज़ाबादी, कृष्ण बिहारी नूर, वसीम बरेलवी, मुज़फ़्फ़र वारसी, मुनव्वर राणा आदि उनके ख़ास दोस्तों में से थे. हालाँकि उन्होंने ज़्यादातर कलाम क़ैसर रत्नागिरवी,हसरत रूमानी और नाज़ाँ शोलापुरी के पढ़े हैं परन्तु मंच पर उन्हें याद हज़ारों शे’र लोगों को रोमांचित कर देते थे. सूफ़ीनामा पुस्तकालय में हमें नाज़ाँ शो’लापुरी के कलाम मिले. जल्द ही उन कलाम को भी वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जायेगा.

    अ’ज़ीज़ नाज़ाँ बड़े प्रयोगधर्मी क़व्वाल थे. उन्होंने क़व्वाली में कई ऐसे प्रयोग किये जो पहले कभी नहीं हुए थे यही कारण है कि इन्हें बाग़ी क़व्वाल भी कहा जाता है.1983 में उन्होंने मुंबई के सारे क़व्वालों को एक साथ मिला कर ‘The Bombay Qawwal Association’ की स्थापना की लेकिन उनकी बीमारी और तादुपरान्त मृत्यु के पश्चात यह संगठन टूट गया.

    1978 में अ’ज़ीज़ नाज़ाँ साहब की पत्नी का स्वर्गवास हो गया. 1982 में HMV रिकार्ड्स के बैनर तले उनका एक और प्रसिद्ध गाना –‘चढ़ता सूरज’ रिलीज़ हुआ जिसने सफ़लता से सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.कुछ ही समय बा’द HMV से कुछ विवादों के फलस्वरूप उन्होंने अपना क़रार तोड़ लिया और वीनस कैसेट्स के साथ क़रार-नामे पर हस्ताक्षर किये. उन्होंने अपना पहला एल्बम इस कम्पनी के साथ ‘हंगामा’ के नाम से रिकॉर्ड किया. 1992 में रिकॉर्ड हुआ गाना ‘मैं नशे में हूँ’ उनकी आख़िरी रिकॉर्डिंग थी.

    ‘चढ़ता सूरज’ के बोल कुछ यूँ थे

    हुए नामवर बेनिशां कैसे कैसे

    ज़मीं खा गयी नौजवान कैसे कैसे

    आज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा

    चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा

    ढल जायेगा ढल जायेगा

    तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है

    चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है

    जुन ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा

    खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा

    जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने

    अपनी उम्र फ़ानी पर तन रहा है दीवाने

    किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे

    तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे

    आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है

    ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है

    मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है

    क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है

    अपनी अपनी फ़िक्रों में

    जो भी है वो उलझा है

    ज़िन्दगी हक़ीकत में

    क्या है कौन समझा है

    आज समझले

    आज समझले कल ये मौका हाथ तेरे आयेगा

    गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा

    चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा

    ढल जायेगा ढल जायेगा

    मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला

    कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला

    याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे

    जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे

    अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं

    जंग जो कोरस है और उसके हाथी हैं

    कल जो तनके चलते थे अपनी शान–ओ–शौकत पर

    शमा तक नही जलती आज उनकी क़ुरबत पर

    अदना हो या आला हो

    सबको लौट जाना है

    मुफ़्हिलिसों का अन्धर का

    कब्र ही ठिकाना है

    जैसी करनी

    जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा

    सरको उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा

    चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा

    ढल जायेगा ढल जायेगा

    मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है

    तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है

    साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे

    बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे

    तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे

    छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे

    जिनको अपना कहता है कब ये तेरे साथी हैं

    कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं

    ला के कब्र में तुझको उरदा पाक डालेंगे

    अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे

    तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे

    तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे

    इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में

    क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में

    कर गुनाहों पे तौबा

    आके बस सम्भल जायें

    दम का क्या भरोसा है

    जाने कब निकल जाये

    मुट्ठी बाँधके आनेवाले

    मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा

    धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा

    चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा

    1992 में उनकी तबीअ’त ख़राब हुई और इसी साल 8 अक्टूबर को अ’ज़ीज़ नाज़ाँ इस जहान-ए-फ़ानी से कूच कर गए.

    अ’ज़ीज़ नाज़ाँ की क़व्वाली शुरुआ’त में इस्माईल आज़ाद की शैली का अनुकरण करती मा’लूम पड़ती है लेकिन बा’द में उस्ताद बड़े ग़ुलाम अ’ली और उस्ताद सलामत अ’ली साहब के सानिध्य में आने के बा’द उनकी गायकी में शास्त्रीय संगीत का गहरा प्रभाव दिखता है.अ’ज़ीज़ नाज़ाँ की को हज़ारों शे’र ज़बानी याद थे और उनका प्रयोग क़व्वाली पढ़ने के दौरान वह बड़ी ख़ूब-सूरती से किया करते थे. उनका संगीत संयोजन उस समय के हिसाब से काफ़ी आधुनिक था. 1969 में उन्होंने झूम बराबर झूम की रिकॉर्डिंग की. जहाँ उस समय तक क़व्वाल अपनी क़व्वाली में सिर्फ़ हारमोनियम और तबले का ही प्रयोग किया करते थे, अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने पहली बार क़व्वाली में मेंडोलिन, गिटार, कोंगो, आदि आधुनिक वाध्यों का प्रयोग किया था.1971 में उन्होंने अपने गीत ‘मस्ती में पिए जा’ में पहली बार इलेक्ट्रिक गिटार और इलेक्ट्रॉनिक साउंड इफ़ेक्ट्स का प्रयोग किया था, फ़िल्म इंडस्ट्री में 70 और 80 के उत्तरार्ध में कल्याण जी, R.D. बर्मन साहब और बप्पी लाहिरी ने इलेक्ट्रॉनिक धुनों का प्रयोग शुरू किया जबकि अ’ज़ीज़ नाज़ाँ यह काम 70 के दशक की शुरुआ’त में ही कर चुके थे.

    अ’ज़ीज़ नाज़ाँ ने कई महान संगीतकारों के साथ काम किया और नए नए प्रयोग किये. उन्होंने पहली बार सितार और मेंडोलिन का फ़्यूज़न अपने गीत ‘तेरी नज़र का दिलदारा’ में किया और इस गाने को अमर कर दिया .उनके अंतिम एल्बम ‘मैं नशे में हूँ’ में कुछ गानों में पाश्चात्य प्रोग्रामिंग का प्रयोग किया गया था जो आगे चलकर कई संगीतकारों के लिए प्रेरणास्रोत बना. अ’ज़ीज़ नाज़ाँ को भारत में क़व्वाली के पुनरुत्थान का श्रेय जाता है. हम अपने ऐसे महान संगीतकारों के ऋणी हैं जिन्होंने कला के साथ साथ संस्कृति को भी सहेजा और उसमे नए योगदानों से उसे आने वाली पीढ़ी के लिए सुग्राह्य बनाया.

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