Sufinama

शाह अकबर दानापुरी

सुमन मिश्रा

शाह अकबर दानापुरी

सुमन मिश्रा

MORE BYसुमन मिश्रा

    सूफ़ी संत नदी के घाटों की तरह होते हैं जिन से होकर ईश्वरीय कृपा का पानी हर पल बहता रहता है और इस पानी से हर प्यासे की प्यास बुझती है.इन घाटों का नाम अलग अलग होता है, इनकी सजावट अलग अलग होती है परन्तु बहने वाला पानी सब घाटों पर एक ही होता है, और इस तरह सूफ़ियों के प्रेम सन्देश घाट-घाट बहते हुए समंदर में मिल जाते हैं.

    हज़रत शाह अकबर दानापुरी ऐसे ही एक महान सूफ़ी संत और शायर हुए जिन्होंने तसव्वुफ़ की इस नदी में अपनी शायरी के अनगिनत दिए बहाए जो घाट घाट जगमग करते आज भी बह रहे हैं.

    हज़रत शाह अकबर दानापुरी की वंशावली बिहार के शुरूआती सूफ़ियों में से एक हज़रत इमाम मुहम्मद ताज फ़क़ीह से जा कर मिलती है. बिहार में तसव्वुफ़ के विकास में इस ख़ानदान की बड़ी अहम भूमिका है. इमाम ताज फ़क़ीह के पुत्र मख्दूम अब्दुल अज़ीज़ हुए जिनके पुत्र हज़रत सुलेमान लंगर ज़मीन बड़े प्रसिद्ध सूफ़ी हुए और उनकी शादी बिहार की राबिया कही जाने वाली प्रसिद्ध महिला सूफ़ी मख्दूमा बीबी कमाल से हुई. बीबी कमाल बिहार के प्रसिद्ध सुहरावर्दी सूफ़ी हज़रत शहाबुद्दीन पीर जगजोत की बेटी थीं. यह ख़ानदान पहले मनेर में बसता था पर अब काको नाम की बस्ती में आकर बस गया. हज़रत सुलेमान लंगर ज़मीन के पुत्र हज़रत शाह अताउल्लाह हुए जो काको से कंजावा नामक गाँव में जा कर बस गए.कंजावा से यह ख़ानदान नवां बादा पहुंचा, नवां बादा से मोड़ा तालाब और मोड़ा तालाब से यह ख़ानदान शह टोली, दानापुर में कर बस गया.

    यह खानदान इल्म आदाब के लिए पूरे बिहार में मशहूर था. हज़रत शाह अकबर दानापुरी के चचा हज़रत शाह क़ासिम दानापुरी पहली बार घर से बाहर नौकरी करने निकले. वह कचहरी में पेशकार थे.सदर दीवानी जो पहले कलकत्ता में हुआ करती थी अब इलाहाबाद गई थी.कुछ ही दिनों में यह खबर फैली कि सदर दीवानी अब आगरा भी जाने वाली है. यह सुन कर हज़रत क़ासिम दानापुरी की ख़ुशी का ठिकाना रहा. आगरे के प्रसिद्ध सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत सय्यदिना अमीर अबुल उला में उनकी बड़ी श्रद्धा थी. वह सिर्फ़ 50 रूपये मासिक तनख्वाह पर आगरा गए और वहीं हज़रत अमीर अबुल उला की दरगाह पर रहने लगे. कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने भाई हज़रत मख्दूम शाह सज्जाद को भी वहीं बुला लिया और इस तरह आगरे के नई बस्ती में 1843 ई. में शाह अकबर दानापुरी का जन्म हुआ.

    हज़रत शाह क़ासिम दानापुरी ने स्वाधीनता संग्राम में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. जब अंग्रेजों को इस बात का पता चला तब उन पर मुक़दमा चलाया गया और मुरादाबाद जेल में उन्हें छह महीनों तक क़ैद मैं रखा गया.

    देश और समाज दिन-दिन बदल रहा था. ऐसे परिवेश में शाह अकबर दानापुरी की प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई. शाह अकबर दानापुरी बचपन से ही शायरी में रूचि रखते थे. अपनी शायरी के लिए वह वहीद इलाहाबादी से इस्लाह लिया करते थे. वहीद इलाहाबादी के पिता मौलाना अमरुल्लाह साहब की शाह अकबर दानापुरी के पिता मख्दूम शाह सज्जाद पाक र.अ. के प्रति बड़ी श्रद्धा थी. वहीद इलाहाबादी के दो शागिर्द बड़े मशहूर हुए - अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापुरी. स्वयं वहीद इलाहाबादी फ़रमाया करते थे कि उन्हें अपने दोनों अकबर पर गर्व है.

    अकबर इलाहाबादी और शाह अकबर दानापुरी दोनों सूफ़ी संत हज़रत शाह क़ासिम दानापुरी के मुरीद थे.

    आगे चलकर हज़रत शाह अकबर दानापुरी दानापुर में ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल उलाइया के सज्जादा नशीन बने और उन्होंने बिहार की सूफ़ी परंपरा को समृद्ध किया. आप का पूरा जीवन सादगी की एक मिसाल है. आप हमेशा एक ख़ालता-दार पायजामा, नीचा कुर्ता, कांधे पर एक बड़ा रुमाल, पल्ले की टोपी और अंगरखा पहनते थे.

    अपने दीवान में शाह अकबर दानापुरी लिखते हैं -

    फ़क़ीर-ख़ाना के देखो तकल्लुफ़ात कर

    कि फ़र्श-ए-ख़ाक है उस पे बोरिया भी है

    एक सूफ़ी का जीवन विशाल वटवृक्ष की तरह होता है जिस की छाँव में सब को सुकून मिलता है. हज़रत अकबर दानापुरी का जीवन भी ऐसा ही था. आप लोगों को कर्ज-ए-हसना दिया करते थे. यह ऐसा कर्ज होता था जिसे लौटाना ज़रूरी नहीं होता था.

    शाह अकबर दानापुरी की ख़ानक़ाह के दरवाज़े सब के लिए खुले थे. यहाँ समाअ महफिलें भी हुआ करती थी जिस में पटना और आगरे के प्रसिद्ध क़व्वाल कलाम पढ़ते थे. हज़रत की ख़ानक़ाह में कलाम पढने वाले प्रमुख क़व्वालों में मदार बख़्श ख़ां, मुहम्मद याक़ूब ख़ां और मुहम्मद सिद्दीक़ ख़ां थे जिनके विषय में हमें बहुत मालूमात मिलती हैं.

    याक़ूब ख़ां फुलवारी शरीफ में रहा करते थे दूर-दूर तक उनकी शोहरत थी। सितार ला-जवाब बजाते थे।जब क़व्वाली पढ़ना शुरू करते थे तो पहले सिर्फ सितार बजाते और ऐसा बोल काटते कि लोग अचंभित रह जाते थे। फिर वह कलाम पढ़ते थे। बदन पर शीरवानी, काँधे पर पटका और दो पल्ले की टोपी पहनते थे ।बिहार की तक़रीबन तमाम ख़ानक़ाहों में कलाम पढ़ा करते थे। आज भी इनकी औलादों ने इस फ़न को जारी रखा है। याक़ूब ख़ां बीसवीं सदी में बिहार के प्रथम क़व्वालों में से एक हैं।इनके साथ अबदुर्रहीम ख़ां क़व्वाल भी गाया करते थे जो इनके छोटे भाई थे। इस तरह एक पूरी टीम आपके पास तैयार रहती थी ।मुहम्मद याक़ूब ख़ां क़व्वाली की शुरुआत ज़्यादा-तर शाह अकबर दानापुरी द्वारा लिखित इस हम्द से करते थे-

    बेनियाज़ मालिक मालिक है नाम तेरा

    मुझको है नाज़ तुझ पर मैं हूँ ग़ुलाम तेरा

    मदार बख़्श ख़ां बिहार के एक कामयाब और बेहतरीन क़व्वाल थे। उनकी आवाज़ बड़ी मधुर थी। इनका ज़माना वह था वह जब बिहार में सूफ़ियों का बड़ा प्रभाव था। इस ज़माने में कव्वालों को नज़राना दूसरी तरह दिया जाता था. अगर कोई कलाम या शे’र पसंद आता तो सूफ़ी अपनी कोई पसंदीदा चीज़ क़व्वाल को नज़र कर दिया करते और उसे नवाब लोग अच्छी क़ीमत देकर ख़रीद लिया करते थे। तज़किरतुल-अबरार में भी मदार बख़्श का ज़िक्र आता है जिसमे छपरा के मुहल्ला करीम चक में हज़रत हकीम शाह फ़रहत हुसैन मुनएमी की ख़ानक़ाह में उर्स की मजलिस का वाक़या दर्ज है।

    सिद्दीक़ ख़ां इस्लामपूर के रहने वाले थे. वह सितार लाजवाब बजाते और बिला मिज़्राब बोल काटते और राग बजाते थे। इनका ख़ानदान गवैयों का है। ये पहले मुलाज़िम थे फिर हज़रत शाह अकबर दानापूरी के मुरीद हो गए और क़व्वाली भी पढ़ने लगे। क़व्वाली में अक्सर अपने पीर-ओ-मुर्शिद के कलाम पढ़ते थे।

    धीरे धीरे इनकी शौहरत में इज़ाफ़ा होता गया और लोग आपके इस अनोखे अंदाज़ की तारीफ़-ओ-तौसीफ़ करते गए। जब शोहरत ख़ासी बढ़ गई तो आगरा के फ़क़ीरों से दूर हैदराबाद के निज़ाम के जानिब माइल हुए। निज़ाम इनसे मुतास्सिर हुआ और अपने यहां रहने की दावत दी लिहाज़ा एक लंबे अर्से तक निज़ाम के पास रहे और ख़ूब माल कमाया

    इस दौरान अपने पीर-ओ-मुर्शिद से बहुत दूर हो गए। जब ज़िंदगी ढलने लगी तो आवाज़ भी वक़्त के साथ तबदील होने लगी इस तरह आप आगरा अपने पीर की बारगाह में हाज़िर हुए। हज़रत शाह अकबर दानापूरी ने आप को देखते ही आगरे की नरम ज़बान में फ़रमाया -अरे मियां सिद्दीक़ कहाँ थे? सुनो! ये ताज़ा ग़ज़ल लिखी है ज़रा इस पर धुन तो बिठाओ ! एक अर्से बाद हाज़िर होने पर भी पीर के लहजे में ज़रा भी दबदबा नहीं था। अपनी धुन में ये हज़रत की यह ग़ज़ल पढ़ने लगे-

    तालिब-ए-वस्ल ना हो आप को बेदार ना कर

    हौसला हद से ज़्यादा दिल-ए-नाशाद ना कर

    ख़ाक जल कर हो पर उफ़ दिल-ए-नाशाद ना कर

    दम भी घुट कर जो निकल जाए तो फ़र्याद ना कर

    जब इस शे’र पर सिद्दीक़ ख़ां क़व्वाल पहुंचे तो रोते हुए अपने पीर के क़दमों को थाम लिया-

    आके तुर्बत पे मेरी ग़ैर को याद ना कर

    ख़ाक होने पे तो मिट्टी मेरी बर्बाद ना कर

    उस के बाद इन्होने अपने पीर के क़दमों में ही अपना पूरा जीवन गुज़ार दिया.

    आगरे की मशहूर गायिका ज़ोहरा बाई आगरेवाली भी हज़रत शाह अकबर दानापुरी की मुरीदा थी. ज़ोहरा बाई पटना में बस गयी थी और अपनी एकलौती बेटी के देहांत के पश्चात उनका रुझान आध्यात्म की ओर हो गया था. वह पहले शाह अकबर दानापुरी से शायरी की इस्लाह लेती थी मगर बाद में वह हज़रत की मुरीद हो गई. ज़ोहरा बाई ने हज़रत का कलाम अपनी आवाज़ में पढ़ा है-

    जो बने आईना वो तेरा तमाशा देखे

    कहते हैं कि ज़ोहरा बाई ने इन अशआर पर हज़रत शाह अकबर दानापुरी से इस्लाह ली थी -

    पी के हम तुम जो चले झूमते मयखाने से

    झुक के कुछ बात कही शीशे ने पैमाने से

    हम ने देखी किसी शोख़ की मय-गूं आँखें

    मिलती जुलती हैं छलकते हुए पैमाने से

    ज़ोहरा बाई का इंतिक़ाल 1910 के आस पास हुआ. इनका मज़ार पटना सिटी में स्थित है।

    हज़रत शाह अकबर दानापुरी नक़्शबंदिया अबुल-उलाईया सिलसिले के महान सूफ़ी संत थे. नक़्शबंदी सूफ़ियों में भ्रमण करना आध्यात्मिक साधना का ही एक अंग है. हज़रत ने भी अपनी ज़िन्दगी में बहुत यात्राएं कीं. ये यात्राएं कई दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. हज़रत द्वारा लिखित सफ़रनामों में सैर-ए-दिल्ली प्रमुख है जिस में ग़दर के बाद की दिल्ली के हालात का उल्लेख है. इस किताब में सिर्फ़ उस समय के सूफ़िया और दिल्ली की प्रसिद्ध दरगाहों का ज़िक्र है बल्कि हज़रत ने एक कुशल वास्तुकला विशेषज्ञ की तरह दिल्ली की प्रसिद्ध इमारतों का वर्णन भी बखूबी किया है. उन्होंने जहाँ हुमायू के मक़बरे के गुम्बद की तुलना इटली के सैंट पीटर चर्च से की है और इसे उस से बड़ा बताया है, वहीं जामा मस्जिद की तुलना अकबराबाद (आगरा) की जामा मस्जिद से करते हुए लिखते हैं कि पहले तो यह आगरे की मस्जिद से छोटी मालूम पड़ी मगर जब नापा तब बड़ी निकली. वह आगे लिखते हैं कि पूरब से पश्चिम की तरफ़ दिल्ली की जामा मस्जिद 154 क़दम है वहीं आगरे की मस्जिद 100 क़दम है. हज़रत आगे इसकी तुलना हैदराबाद की मक्का मस्जिद से भी करते हैं और लिखते हैं कि मक्का मस्जिद की लम्बाई 114 क़दम है और चौड़ाई 84 क़दम है।

    हज़रत शाह अकबर दानापुरी के कई मुरीद प्रसिद्ध हुए परन्तु इनकी शायरी की परंपरा में कुछ नाम उल्लेखनीय हैं. हज़रत निसार अकबराबादी आप के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे जिन्हें बेदम शाह वारसी अपना उस्ताद मानते थे. आप के बेटे और ख़लीफ़ा हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी भी अपने समय के प्रसिद्ध शायर थे.

    नज़र-ए-महबूब में एक ख़त अकबर इलाहाबादी का हज़रत शाह अकबर दानापुरी के नाम शाए हुआ जिसकी तहरीर यूँ है:-

    “सरताज-ए-बिरादारान-ए-तरीक़त, मस्नद आरा-ए-बज़्म–ए-मारिफ़त ज़ादल्लाहु इरफ़ानुहु।

    तस्लीम।

    आपकी तहरीर के वरूद ने इज़्ज़त बख़्शी। आप का ख़्याल निहायत उम्दा है। आप ही के घर का फ़ैज़ है कि इस ज़माना में और इन हालात में भी मेरे अक़ाइद महफ़ूज़ हैं ।”

    शाह अकबर दानापुरी ने देश की बेहतरी और खुशहाली का स्वप्न देखा था. एक स्वतंत्र भारत का स्वप्न जहाँ सभी धर्मों के लोग एक साथ मिलकर देश की तरक्की में भागीदार बनें.आप ने बच्चों के लिए हुनर नामा नाम से एक बड़ी नज़्म लिखी थी.यह नज़्म सब को साथ मिलकर रहने और पढने की शिक्षा देती है. हम ने यह नज़्म इस किताब में भी शामिल की है. इस का एक अंश हम यहाँ लिख रहे हैं -

    क़ौम के वास्ते सामान-ए-तरक़्क़ी है हुनर

    बादशाहों के लिए जान-ए-तरक़्क़ी है हुनर

    अहल-ए-हिर्फ़त के लिए कान-ए–तरक़्क़ी है हुनर

    बाग़-ए-आ’लम में गुलिस्तान-ए-तरक़्क़ी है हुनर

    क़द्र जिस मुल्क में इसकी हो बर्बाद है वो

    जिस जगह अहल-ए-हुनर होते हैं आबाद है वो

    हज़रत अकबर दानापुरी की शायरी में हज़रत अमीर ख़ुसरौ का भी रंग दिखता है. उनके यह शेर देखें -

    आ'शिक़ो पाँव उखड़े वहीं ठहरे रहना

    पर्दा उठता है रुख़-ए-यार से सँभले रहना

    डूब कर बहर-ए-मोहब्बत में निकलना कैसा

    पार होने की तमन्ना है तो डूबे रहना

    अपनी शायरी में शाह अकबर दानापुरी ने तसव्वुफ़ के विभिन्न विषयों पर भी शायरी की है. उदाहरणार्थ -

    तवक्कुल - (ख़ुदा पर यक़ीन; ईश्वर पर निर्भरता) -

    है तवक्कुल मुझे अल्लाह पर अपने अकबर

    जिस को कहते हैं भरोसा वो भरोसा है यही

    और देखें -

    क्यों मारे मारे फिरते हो अकबर इधर उधर

    बैठो तो घर में पहूंचेगा अल्लाह का दिया

    दुनिया - (संसार) ׃इच्छाओं का घर-

    फ़क़ीरी और दुनिया की मोहब्बत

    ख़ुदा ऐसी फ़क़ीरी से बचाए

    और देखें -

    फ़क़ीर वो है जो दुनिया को छोड़ बैठा है

    ख़ुदा की याद में मुँह सब से मोड़ बैठा है

    वहदतुल-वुजूद- (अद्वैतवाद) ׃ वहदतुल-वुजूद के अनुसार वास्तविक सत्ता ‘एक’ है. उस सत्ता के सिवा अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व नहीं और वह एक मात्र सत्ता ईश्वर है.

    कोई शय ख़ाली नज़र आई इस्म-ए-ज़ात से

    नक़्श-बंदी हूँ नज़र आता है नक़्श अल्लाह का

    और देखें -

    देखें ख़ुश हो के क्यूँ आप तमाशा अपना

    आईना अपना है अ’क्स अपना है जल्वा अपना

    इ'श्क़-(प्रेम) ׃आध्यात्मिक प्रेम, सूफ़ी साधना का केंद्र बिंदु इश्क़ है. कई सूफ़ियों में इश्क़ पहले किसी सुंदर वस्तु से प्रारंभ होता है, इसे इश्क़-ए-मजाज़ी (लौकिक प्रेम) कहते हैं. यही इश्क़-ए-हक़ीक़ी (परम प्रेम) की सीढ़ी है. इ’श्क़ ईश्वर का भी प्रतीक होता है, क्योंकि सूफ़ी इश्क़, आशिक़ ओर माशूक़ को एक ही चीज़ समझते हैं.

    इ'श्क़ अ'ता कर दे ऐसा मुझे काशाना

    जो का'बे का का'बा हो बुत-ख़ाने का बुत-ख़ाना

    दाइम उन्हीं हाथों से पीते रहे हैं मतवाले

    या-रब यही साक़ी हो या-रब यही मय-ख़ाना

    “पहला शे’र मुज़्तर ख़ैराबादी की ग़ज़ल के मतले से मेल खाता है. मगर शाह अकबर दानापुरी के यहां भी यह शेर मिल जाता है. मुज़्तर ख़ैराबादी उम्र में शाह अकबर दानापुरी से 19 साल छोटे हैं“

    फ़ना-(आत्मलय की अवस्था) ׃साधक का अपने अस्तित्व को खो कर अपने आपको परम सत्ता में विलीन करना.

    हम तिरी राह में मिट जाएँगे सोचा है यही

    दर्द-मंदान-ए-मोहब्बत का तरीक़ा है यही

    और देखें -

    हम साथ लेते आए हैं तस्वीर-ए-यार को

    क्यूँ कर कहें ख़ल्वत-ए-जानाँ मज़ार को

    ये मुश्त-ए-ख़ाक बा'द-ए-फ़ना हद से बढ़ गई

    कहते हैं लोग ढेर हमारे मज़ार को

    शाह अकबर दानापुरी का ज़्यादातर समय आगरे में बीता. उनके लहजे में भी आगरे की बोली का स्पष्ट प्रभाव दिखता है. जब शाह अकबर दानापुरी की उम्र 62 साल की हुई तब उनकी तबीयत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी. इलाज होता रहा मगर धीरे-धीरे बीमारी भी बढ़ती रही. आख़िर-कार 1909 ई. में हज़रत इस जगती के पालने से कूच कर गए और अपने हक़ीक़ी महबूब से जा मिले. विसाल के बाद जब हज़रत को ग़ुस्ल के लिए लेकर जाने की तैयारी हो रही थी तब तकिये के नीचे एक पर्ची मिली जिस पर यह अश'आर लिखे थे -

    ख़ुदा की हुज़ूरी में दिल जा रहा है

    ये मरना है इस का मज़ा रहा है

    तड़पने लगीं आशिक़ों की जो रूहें

    ये क्या रूहुल-क़ुदुस गा रहा है

    अ’दम का मुसाफ़िर बताता नही कुछ

    कहाँ से ये आया कहाँ जा रहा है

    आप के विसाल के बा’द इस अ’जीब-ओ-ग़रीब बात का इन्किशाफ़ हुआ कि आपने दानापुर शरीफ़ और आगरा में बेवाओं का माहाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर रखा था। आप हर शख़्स से मोहब्बत से पेश आया करते थे.हज़रत की दरगाह दानापुर में स्थित है।

    हज़रत शाह अकबर दानापुरी ने आने वाली नस्लों के लिए प्रेम का जो पौधा लगाया था आज वह विशाल वटवृक्ष बन चुका है. उन्होंने जिस हिन्दुस्तान का स्वप्न देखा था वह हिन्दुस्तान आज 75 साल का हो चुका है. आज भी हज़रत के कलाम सूफ़ी ख़ानक़ाहों पर कसरत से पढ़े जाते हैं और सुनने वालों को प्रेम के सफ़र पर चलने का आमंत्रण देते हैं.

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए