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एक अमीर का घोड़ा ख़्वारिज़्म शाह को पसंद आना और इ’मादुलमुल्क की तदबीर- दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

एक अमीर का घोड़ा ख़्वारिज़्म शाह को पसंद आना और इ’मादुलमुल्क की तदबीर- दफ़्तर-ए-शशुम

रूमी

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    रोचक तथ्य

    अनुवादः मिर्ज़ा निज़ाम शाह लबीब

    एक अमीर के पास ऐसा ख़ूबसूरत घोड़ा था कि ख़्वारिज़्म शाह के गल्ले में भी उस का सानी ना था। एक रोज़ वो अमीर सवार हो कर जा रहा था। इत्तिफ़ाक़न ख़्वारिज़्म शाह की नज़र उस पर पड़ गई। उस की दौड़ और रंग बादशाह की आँखों में बस गया और वापसी तक उस घोड़े पर टिकटिकी लगी रही। घोड़े के जिस जोड़-बंद पर नज़र पड़ती थी एक से एक बेहतर नज़र आता था। चुसती, बश्शाशी और इठला कर क़दम मारने के अ’लावा ख़ुदा ने और नादिर सिफ़तें भी उस में रखी थीं। बादशाह ने ग़ौर किया कि क्या बात है जो इसी घोड़े की ख़ूबी और कशिश मेरी अक़्ल को काफ़ मुतहय्यिर कर रही है। मैं घोड़ों से सेर चश्म और बे परवाह हुं और मेरे पास ऐसे ऐसे दो सौ सूरजों की रोशनी मौजूद है। अरे मैं तो वो हूँ कि बादशाहों का चेहरा भी मुझे प्यादे का चेहरा मा’लूम होता है। ये मा’मूली जानवर क्यों मेरी निय्यत बिगाड़े देता है? लेकिन उस के सीने में शौक़ बढ़ता ही चला गया।

    जब बादशाह सैर से वापस हुआ तो सिपाहियों को हुक्म दिया कि इसी वक़्त घोड़ा मेरे घर से ले आएं ।उसका दीवाना बन गया। रंज और बे इ’ज़्ज़ती के ग़म से उस की जान लबों पर गई। अब उस को इ’मादुल मुल्क के सिवा कोई पनाह नज़र ना आई क्योंकि वही हर मज़लूम और ग़मज़दा का रफ़ीक़ था। दरबार में कोई अमीर उस से ज़ियादा बा’इ’ज़्ज़त ना था और बादशाह उस का निहायत अदब करता था। बे-तमा’ शरीफ़ुन-नसब और पार्सा, इ’बादत-गुज़ार, रातों को जागने वाला और सख़ावत में हातिम-ए-वक़्त था। साहिब-ए-तदबीर और नेक-दिल था। उस की राय हर मुआ’मले में आज़माई जा चुकी थी। वो हर मोहताज के लिए मिस्ल बाप के था, और सुल्तान के पास हर एक का सिफ़ारशी था। वो बुरों के लिए हुक्म-ए-ख़ुदा की तरह पर्दापोश था उस के अख़लाक़-ओ-आ’दात दूसरों से जुदा थे। कई बार पहाड़ पर अकेला जा बैठा और बादशाह बड़ी ख़ुशामद दर-आमद से वापस लाया था।

    अल-ग़र्ज़ वो अमीर सख़्त परेशानी में इ’मादुल मुल्क के पास पहुंचा और कहा कि चाहे मेरा सारा माल-ओ-मता’ बादशाह ले-ले मगर वो एक घोड़ा जिस पर मेरी जान फ़िदा है अगर वो मुझसे छीन लिया गया तो यक़ीनन मर जाऊंगा चूँकि ख़ुदा ने अब आपसे मुझे वाबस्ता कर दिया है लिहाज़ा मसीहा ज़रा आप मेरे सर पर हाथ रखिए। इ’मादुल्मुल्क ये हाल सुनकर रोता और आँखें मलता बुरे हाल-ओ-अहवाल सुल्तान के हुज़ूर में पहुंचा और चुपका मुँह-बंद किए हुए खड़ा हो गया और ये दुआ’ कर रहा था कि ख़ुदा अगर बादशाह टेढ़ा रास्ता इख़्तियार करे तो सिवा तेरे कौन बचा सकता है। वो इसी तरह दिल में दुआ’एं करता तरह तरह के अंदेशों में मुब्तला था कि बादशाह के आगे सिपाही घोड़े को खींच लाए, सच ये है कि आसमान के नीचे ऐसे क़द और क़दम का कोई घोड़ा ना था। उस का रंग हर आँख में खब जाता था। जब बादशाह थोड़ी देर तक उस को देख देख कर हैरत करता रहा तो उस के बा’द इ’मादुल-मुल्क की तरफ़ मुख़ातिब हुआ और कहा कि भाई ये भी क्या घोड़ा है। ये तो बहिश्त का मा’लूम होता है ज़मीन का नहीं।तब इ’मादुल-मुल्क ने अ’र्ज़ की कि बादशाह अगर आप शैतान पर इल्तिफ़ात करें तो फ़रिश्ता हो जाए अगरचे ये घोड़ा बहुत ख़ूबसूरत और बांका जानवर है मगर इस का सर ऐसे जिस्म पर बिलकुल बद-नुमा है। मा’लूम होता है जैसे गाय का सर लगा दिया हो।

    इस बात ने ख़्वारिज़्म शाह के दिल पर असर किया और यकायक घोड़ा बादशाह की नज़रों से गिर गया। इ’माद-उल-मुल्क से जो उसकी की मज़म्मत और ऐ’ब सुना तो बादशाह के दिल में उस घोड़े के मोहब्बत फीकी पड़ गई। अपनी आँख छोड़ी और उस की आँख इख़्तियार की। अपने होश तर्क किए और उस की बात मानी। ये बहाना था। बात ये थी कि उस साहिब-ए-दियानत बुज़ुर्ग ने अपने इ’ज्ज़ से बादशाह के दिल को सर्द कर दिया और बादशाह की आँख पर ऐसे नुक्ते का पर्दा डाला कि जिससे चांद भी हो तो सियाह नज़र आए। सुल्तान ने हुक्म दिया कि फ़ौरन घोड़े को वापस ले जाओ और इस ज़ुल्म-ए-सरीह से मुझे नजात दिलाओ। इ’माद-उल-मुल्क ने इस मौक़ा’ पर जो चाल चली वो ऐ’न ख़ैर-ओ-इन्साफ़ के लिए थी। इस को नेक-अंजाम बहाना कहते हैं। लेकिन तुझे चाहिए कि बद और नेक में तमीज़ करे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिकायात-ए-रूमी हिस्सा-1 (पृष्ठ 224)
    • प्रकाशन : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द) (1945)

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