कहानी-39- फ़क़ीरी गुलिस्तान-ए-सा’दी
एक आ’लिम ने अपने वालिद से कहा “वाइ’ज़ो की लच्छेदार बातों का मेरे दिल पर कोई असर नहीं होता क्योंकि उनके क़ौल और फ़े'ल में बड़ा अन्तर होता है। दुनिया को वे दुनिया छोड़ने की नसीहन करते हैं और ख़ुद अनाज और चाँदी बटोरते फिरते हैं। जो वाइ’ज़ सिर्फ़ वा’ज़ ही देना जानता है और ख़ुद उस पर अ’मल नहीं करता उसके वा’ज़ का किसी पर असर नहीं होता। दर-अस्ल आ’लिम वही है जो बुरे काम न करे।
वह नहीं जो महज़ दूसरों को नसीहत करे और ख़ुद उस पर अ’मल न करे। जो आ’लिम ऐ'याशी की ज़िन्दगी गुज़ारता है और ख़ुद भटका हुआ है, वह दूसरों को क्या रास्ता दिखाएगा।”
वालिद ने कहा, ऐ बेटे! महज़ इस ख़याल से कि वाइ’ज़ों के क़ौल और फ़े'ल में फ़र्क़ होता है तुझे उनकी नसीहतों से नफ़रत नहीं करनी चाहिए और न उनके फ़ाइदे से महरूम रहना चाहिए। हर वाइ’ज़ पर सन्देह करना ग़लत है।
तुमने उस अंधे की मिसाल नहीं सुनी? वह कीचड़ में फंस गया था और कह रहा था, ऐ मुसलमानो! मेरे रास्ते में एक चराग़ रख दो।'
किसी ने उससे पूछा, 'जब तुझे चराग़ ही नहीं दीखता, तो चराग़ से तू क्या देखेगा?
'वाइ’ज़ की मज्लिस बज़ाज़ की दुकान की तरह है। जब तक तू कुछ नक़्द लेकर न जाएगा, तुझे कुछ नहीं मिलेगा। अ'क़ीदत के साथ नसीहत सुने बिना तेरे पल्ले कुछ न पड़ेगा।'
'आ’लिम वाइ’ज़ के क़ौल-ओ-फ़े'ल में फ़र्क़ हो, तो भी उसकी बात दिल से सुनो।
तू यह ग़लत कहता है कि सोया हुआ सोए हुए को नहीं जगा सकता।
'तुझे चाहिए कि नसीहत यदि दीवार पर लिखी हुई हो, तो उसे भी अपने कानों में डाल ले।
एक उदार हृदय व्यक्ति फ़क़ीरों की बस्ती छोड़कर मदरसे में आया और शिक्षकों के साथ रहने लगा। मैंने उससे पूछा, “तूने आ'बिद और आ'लिम में क्या फ़र्क़ पाया जो तू उन्हें छोड़कर इनके साथ रहने लग गया?
वह बोला, आ'बिद तो तूफ़ान से अपनी गुदड़ी बचाने की चिन्ता करता है और आ’लिम डूबते को बचाने के लिए ख़ुद पानी में कूद पड़ता है।”
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