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दोश अज़ मस्जिद सू-ए-मय-ख़ानः आमद पीर-ए-मा

हाफ़िज़

दोश अज़ मस्जिद सू-ए-मय-ख़ानः आमद पीर-ए-मा

हाफ़िज़

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    रोचक तथ्य

    अनुवाद: शंकर महेशवरी

    दोश अज़ मस्जिद सू-ए-मय-ख़ानः आमद पीर-ए-मा

    चीस्त यारान-ए-तरीक़त बा'द-अज़ीं तदबीर-ए-मा

    कल हमारा पीर, मस्जिद से मय-ख़ाना की तरफ़ गया

    यारान-ए-तरीक़त उस के बा’द हमारी क्या तदबीर है

    दर ख़राबात-ए-मुग़ाँ मा नीज़ हम-मंज़िल शवेम

    कीं चुनीं रफ़्तस्त दर अहद-ए-अज़ल तक़दीर-ए-मा

    आतिश परस्तों के शराब-ख़ाने में हम भी पीर के हम-मंज़िल हो जाएं

    इसलिए कि अज़ल में हमारी तक़दीर इसी तरह बनी है

    मा मुरीदाँ रू-ब-सू-ए-का'बः चूँ आरेम चूँ

    रू-ब-सू-ए-ख़ानः-ए-ख़म्मार दारद पीर-ए-मा

    हम-मुरीद, का’बा की तरफ़ रुख़ कैसे करें जब कि

    हमारा पीर, भट्टी की जानिब रुख़ रखता है

    अ'क़्ल अगर दानद कि दिल दर बंद-ए-ज़ुलफ़श चूँ ख़ुशस्त

    आ'क़िलाँ दीवानः गर्दंद अज़ पय-ए-ज़ंजीर-ए-मा

    अ’क़्ल को अगर ये मा’लूम हो जाए कि दिल उस की ज़ुल्फ़ की क़ैद में

    कैसा ख़ुश है तो हमारी बेड़ी के लिए, अ’क़्ल-मंद दीवाने बन जाएं

    रू-ए-ख़ुबत आयते अज़ लुत्फ़ बर मा कश्फ़ कर्द

    ज़ाँ सबब जुज़ लुत्फ़-ओ-ख़ूबी नीस्त दर तफ़्सीर-ए-मा

    तेरे हसीन चेहरे ने मेहरबानी की एक आयत हम पर खोल दी है

    इसलिए मेहरबानी और भलाई के सिवा हमारी तफ़्सीर में कुछ भी नहीं है

    बा-दिल-ए-संंगीनत आया हेच दर गीरद शबे

    आह-ए-आतिश-बार-ओ-सोज़-ए-नालः-ए-शबगीर-ए-मा

    तेरे संगीन दिल में किसी रात को क्या कुछ असर करेगी

    हमारी आग बरसाने वाली आह, और तमाम रात के नाले की जलन

    मुर्ग़-ए-दिल रा सैद-ए-जमई’य्यत ब-दाम उफ़्तादः-बूद

    ज़ुल्फ़ ब-कुशादी-ओ-बाज़ अज़ दस्त शुद नख़्चीर-ए-मा

    दिल के परिंदे के लिए इतमीनान का शिकार जाल में फंसा था

    तूने ज़ुल्फ़ खोल दी, हमारा शिकार फिर हमारे हाथ से निकल गया

    बाद बर ज़ुल्फ़-ए-तू आमद शुद जहाँ बर मन सियाह

    नीस्त अज़ सौदा-ए-ज़ुल्फ़त बेश अज़ीं तौफ़ीर-ए-मा

    तेरी ज़ुल्फ़ को हवा लगी, जहान हम पर तारीक हो गया

    तेरी ज़ुल्फ़ के इ’श्क़ में इस से ज़्यादा हमारा हासिलुल-वुसूल नहीं है

    तीर-ए-आह-ए-मा ज़े गर्दूं ब-गुज़रद जान-ए-अ'ज़ीज़

    रहम कुन बर जान-ए-ख़ुद परहेज़ कुन अज़ तीर-ए-मा

    जान-ए-अ’ज़ीज़ हमारी आह का तीर आसमान से गुज़र जाता है

    अपनी जान पर रहम कर, हमारे तीर से बच

    बर दर-ए-मय-ख़ान: ख़्वाहम गश्त चूँ 'हाफ़िज़' मुक़ीम

    चूँ ख़राबाती शुद यार-ए-तरीक़त पीर-ए-मा

    मैं भी ’हाफ़िज़’ की तरह शराब-ख़ाना के दरवाज़ा पर मुक़ीम हो जाऊँगा

    जब कि यार-ए-तरीक़त हमारा पीर ख़राबाती हो गया है

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