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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
मिटाया अकबरी-फ़ित्ना मुजद्दिद-अलफ़-ए-सानी नेबजाया दीन का डंका मुजद्दिद-अलफ़-ए-सानी ने
रश्क फ़ारुक़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
जिस को हासिल है जबीं-साई-ए-दरगाह-ए-नजफ़क़ाबिल-ए-रश्क न क्यूँ उस का मुक़द्दर हो जाए
अख़्तर महमूद वारसी
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ग़ज़ल
बहे हैं अश्क-ए-ख़ूँ रश्क-ए-हिना-ए-यार पर क्या क्यापिसे उ’श्शाक़ के दिल दस्त-ओ-पा-ए-यार पर क्या क्या