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गूजरी सूफ़ी काव्य
यूसुफ़ ज़ुलेख़ा
ज़माने कूँ नहीं यक ज़र्रा इन्साफ़,अब तो ज़ालिम अहे बे-शीन व बे-काफ़।
अमीन गुजराती
नज़्म
सी-हर्फ़ी
काफ़ कलाम पर कल कामिल कुन कलिमा सिमरन करकुफ़्र किब्र का छोड़ पिचानो करीम पर मयर
तुराब अली दकनी
कलाम
मिरे लाशे को भी पैवंद-ए-ख़ाक-ए-का'बा कर देनामिलाया तूने या-रब जिस तरह से काफ़ का'बा में
हाजी वारिस अली शाह
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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
मगर बे-चूँ ख़ुदावंदे कि अहल-ए-हर-दो-आलम राब-क़ुदरत दर वजूद आवुर्द ब-आलत ब-काफ़-ओ-नून
हकीम सनाई
ग़ज़ल
वही बैठा हुआ था काफ़ में और नून में छुप करवही कुन कह के ख़ुद बन आया था कौन-ओ-मकाँ हो कर
असग़र निज़ामी
सूफ़ी लेख
सतगुरू नानक साहिब
ज़ुल्फ़ों वाले नानक, आँखों वाले नानक की ता’लीम बुलंद हो कि उसकी बुलंदी हिन्दुस्तान के गुरु