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ग़ज़ल
मिलाया जज़्बा-ए-दिल ने इस अदना में उस आ'ला को
जिसे पाना है बस मुश्किल करामत उस को कहते हैं
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
निगाहें तो बहुत कुछ कर चुकीं मिलने की तदबीरें
मगर अब काम बाक़ी रह गया है जज़्बा-ए-दिल का
अफ़सर सिद्दीक़ी अमरोहवी
ग़ज़ल
अल-मदद जज़्बा-ए-दिल ऐ कशिश इ'श्क़-ए-मदद
मुझ से फिर रूठ कै वो ग़ैर कै घर जाते हैं
जगेशवर प्रसाद ख़लिश
कलाम
नहीं एहसास ऐ 'सीमाब' मुझ को अ'हद-ए-पीरी का
ख़ुदा रखे अभी तो जज़्बा-ए-दिल है जवाँ मेरा
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
ए'तिबार जज़्बा-ए-दिल या ग़म-ए-अफ़्सुर्दगी
कौन होता है शब-ए-फ़ुर्क़त में पुरसाँ देखिए
हादी मछली शहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
ऐ जज़्बा-ए-दिल तू ही पहुँचाता मुझे वाँ तक
मा'लूम नहीं तुझ में क्यूँ बे-असरी निकली
शाह फ़ाइक़ शहबाज़ी
कलाम
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से