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ना'त-ओ-मनक़बत
बिखर गया था मिरा मुक़द्दर नबी के सदक़े निखर गया हूँफ़ज़ाओं ने भी गले लगाया दरूद पढ़ कर जिधर गया हूँ
ख़्वाजा शायान हसन
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ना'त-ओ-मनक़बत
मलें ख़ाक-ए-दर-ए-सरकार हम जो अपने चेहरों परतो अपनी ज़िंदगी का और आईना निखर जाए
डॉ. मंसूर फ़रिदी
ग़ज़ल
तिरे जल्वों को वक़्त-ए-सुब्ह मैं ने ख़ूब देखा हैनिखर कर ख़ुल्द बन जाना सँवर कर हूर हो जाना
क़ातिल अजमेरी
ग़ज़ल
ज़हीन शाह ताजी
कलाम
तिरे दीद से ऐ सनम चमन आरज़ुओं का महक उठातिरे हुस्न की जो हवा चली तो जुनूँ का रंग निखर गया
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
जो हयात-ए-इ’श्क़-सोज़ गई तो हयात-ए-हुस्न निखर गईकभी तेरे हुस्न-ए-ख़िराम से कभी मेरे सोज़-ए-दवाम से
अज़ीज़ वारसी देहलवी
कलाम
ताबिश कानपुरी
सूफ़ी लेख
मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर
उपर्युक्त विवेचन से मेरे निवेदन करने का अभिप्राय यह है कि ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों के
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
व्यंग्य
मुल्ला नसरुद्दीन- तीसरी दास्तान
सुब्ह की किरनों से रात का अंधेरा भाग गया था। शबनम से धुली, चमकदार, साफ़ और