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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
दाऊद गुफ़्त ऐ पादशाह चूँ बे-नियाज़े तू ज़े-माहिकमत चे बूद आख़िर ब-गो दर ख़िल्क़त-ए-हर-दोसरा
रूमी
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दोहरा
हजरत कुतुबुद्दीन की देख जागती जोत
हजरत कुतुबुद्दीन की देख जागती जोत“शाहे-आलम” पादशाह की इच्छा पूरन होत
शाह आलम सानी
दकनी सूफ़ी काव्य
वाह वाह बुलबुले गुलज़ार इश्क़
मैं कहाँ सीमुर्ग़ की दरगाह कहाँ ?हर गदा को पादशाह तक राह कहाँ ?
वजदी
कवित्त
कमन चित हत सरूप के चरण रहौ
कीजिए दुरस न्याउ हिन्दू पति पादशाह,कौन को उराहनो द्यौं कौन को कह्यो करौ।।
महताब
दोहरा
गौंड, चलता तिताला- या हज़रत पीर दस्तगीर, अपनी मिहर की नज़र कीजे
या हज़रत पीर दस्तगीर, अपनी मिहर की नज़र कीजे“शाहे-आलम” पादशाह मुरीद के मन की सब दीजे !
शाह आलम सानी
सूफ़ी लेख
लिसानुल-ग़ैब हाफ़िज़ शीराज़ी - मोहम्मद अ’ब्दुलहकीम ख़ान हकीम।
हाफ़िज़ ने सुल्तान की आवाज़ पहचान कर झट जवाब दिया।‘दर अ’ह्द-ए-पादशाह-ए-ख़ता-बख़्श-ओ-जुर्म-पोश’
निज़ाम उल मशायख़
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
यार अगर न-नशिस्त बा मा नीस्त जा-ए-ए'तिराज़पादशाह-ए-कामराँ बूद अज़ गदायाँ आ'र दाश्त