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दोहा
बैराग का अंग - छाँड़ो बिषै बिकार कूँ राम नाम चित लाव
छाँड़ो बिषै बिकार कूँ राम नाम चित लाव'दयाकुँवर' या जगत में ऐसो काल बताव
दया बाई
साखी
चेतावनी का अंग- यह संजम सैलान कर यह मन यह बैराग ।
यह संजम सैलान कर यह मन यह बैराग ।बन बसती कितही रहौ लगे बिरह का दाग ।।
गरीब दास
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सतसई
।। बिहारी सतसई ।।
बिलखी लखै खरी खरी भरी अनख बैराग।मृगनैनी सैनन भजै लखि बेनी के दाग।।587।।
बिहारी
खंडकाव्य
यूसुफ़ जुलेखा (स्वप्न दर्शन खंड)
मोहि भूलेहु जिनि प्यारी, औ सँवरहु दिन रैन।करहु सदा बैराग जब, तब देखहु भरि नैन।।7।।
शैख़ नज़ीर
क़िस्सा काव्य
हीर वारिस शाह
349. सहतीजोग दस्स खां किद्धरों होया पैदा, कित्थों होया सन्दास बैराग है वे ।
वारिस शाह
शबद
बिरह और प्रेम का अंग - मितऊ मड़ैया सूनी करि लो
जोगिन होइ के मैं बन बन ढूँढ़ौंहमरा के बिरह बैराग दै गैलो
महात्मा धनी धर्मदास जी
नज़्म
जोगी-नामः
किस की उल्फ़त में ये बैराग का पहना अबरनकिस लिए जोग लिया और रंगा कपड़ों को
नज़ीर अकबराबादी
पद
जीव महल में सिव पहुनवाँ कहाँ करत उनमाद रे
जुगन जुगन करै पतिछन साहब का दिल लाग रेसुझत नाहि परम-सुख-सागर बिना प्रेम बैराग रे
कबीर
कृष्ण भक्ति सूफ़ी कलाम
जैसे बर्फ़ की तह में महके ठंडी मीठी आगएक से छलके प्रेम की गागर दूजी से बैराग
साएमा ज़ैदी
पद
मोको कहाँ ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में
ना तो कौन क्रिया-कर्म में नहीं जोग-बैराग मेंना मैं छगरी ना मैं भेंड़ी ना मैं छूरी गाँड़ास में
कबीर
होरी
मन-मोहन प्यारो मोहि बिरहन तज देओ रे
अब मैं को बैराग दियो है आप रहत रंग भीनों रे'नियाज़' को हमरी संगत से सौतन बैरन छीनो रे