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ना'त-ओ-मनक़बत
मशरिक़-ए-अनवार-ए-दीं है मदफ़न-ए-शम्सुज़्ज़ुहामग़रिब-ए-महर-ए-रिसालत तुर्बत-ए-बदरुद्दुजा
कौसर ख़ैराबादी
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फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ख़ुरशीद-ए-मय ज़े मशरिक़-ए-साग़र तुलूअ' कर्दगर बर्ग-ए-ऐ'श मी-तलबी तर्क-ए-ख़्वाब कुन
हाफ़िज़
ना'त-ओ-मनक़बत
जुनूबी या शुमाली सम्त हो मशरिक़ कि मग़रिब होहर इक जानिब मिला जल्वा निज़ामुद्दीन चिश्ती का
नूरुल हसन नूर
ना'त-ओ-मनक़बत
मशरिक़ से ता ब-मग़्रिब फैला है ’इश्क़-ए-मौला'आलम में छा रहा है अनवार चिश्तियों का
अफ़ज़ल हुसैन अस्दक़ी
ना'त-ओ-मनक़बत
मशरिक़ मग़रिब तेरी धूम 'अर्श ’उला पर है मर्क़ूमनाम तिरा सब को मा'लूम हज़रत-ए-पीर निज़ामुद्दीन
अज्ञात
कलाम
सर-ए-मशरिक़ से मग़रिब तक जो नाज़िर आप हैं अपनेमुनव्वर ऐनमा से मुसहफ़-ए-रुख़्सार रखते हैं
आशिक़ हैदराबादी
ना'त-ओ-मनक़बत
आप ने जब मशरिक़-ए-अनवार से फ़रमाया तुलूअ'दामन शब फट गया मेहर-ए-’अजम माह-ए-'अरब
मुस्तफ़ा रज़ा ख़ान
ग़ज़ल
हम तुझ को कहाँ ढूँडें ऐ जल्वा-ए-जानानामग़रिब में जो का'बा है मशरिक़ में है बुत-ख़ाना