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माहिरुल क़ादरी
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ग़ज़ल
हरम और दैर की जब से परस्तिश छोड़ दी हम नेहर इक ज़र्रे में देखी सिर्फ़ तेरी रौशनी हम ने
अज़ीज़ वारसी देहलवी
कलाम
फ़ना बुलंदशहरी
ना'त-ओ-मनक़बत
जब भी फ़ितरत से किसी का राब्ता हो जाएगाउस का चेहरा फूल जैसा ख़ुश-नुमा हो जाएगा
अली नज़र वसीम
शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
ना'त-ओ-मनक़बत
अयाज़ वारसी
शे'र
माहिरुल क़ादरी
ना'त-ओ-मनक़बत
है ’अक्स-ए-हरम रौज़ा महबूब-ए-इलाही कामरक़द है दर-ए-तैबा महबूब-ए-इलाही का
ख़्वाजा नाज़िर निज़ामी
ना'त-ओ-मनक़बत
पयाम सैहालवी
ग़ज़ल
क्या ख़ुद-परस्त-ओ-दैर-परस्त-ओ-ख़ुदा-परस्तजब ख़ूब देखिये तो ये सब हैं हवा-परस्त