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शे'र
निकल कर ज़ुल्फ़ से पहुँचूँगा क्यूँकर मुसहफ़-ए-रुख़ परअकेला हूँ अँधेरी रात है और दूर मंज़िल है
अकबर वारसी मेरठी
फ़ारसी कलाम
अज़ सुकूतत बर सवाल-ए-वस्ल फ़ह्मीदेम मालन-तरानी बुद ज़े-मा मक़्सूद मूसा रा ख़िताब
मयकश अकबराबादी
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कलाम
न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म न हिकायतें न शिकायतेंतिरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कलाम
आरज़ू-ए-वस्ल-ए-जानाँ में सहर होने लगीज़िंदगी मानिंद-ए-शम्अ' मुख़्तसर होने लगी