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ग़ज़ल
तुम्हारा ये परी-वश हुस्न साहेब क्या कहें इस कोमुसलमाँ देख ले तो साहिब-ए-ज़ुन्नार हो जाए
मुज़म्मिल ख़ान
ग़ज़ल
मिलते हैं 'अख़्तर' से ख़ुद ही माह-वश ज़ोहरा-जबींये करामत क्या नई उस मुर्शिद-ए-कामिल में है
अख़तर नगीनवी
फ़ारसी कलाम
दिल अज़ मेहर-ए-जहाँ बरदाशतम ता रू-ए-ऊ दीदमज़ुलेखा-वश ’अज़ीज़ी रश्क-ए-माही कर्द:-अम पैदा
फ़र्द फुलवारवी
कलाम
हस्ती के हम चमन में हैं चश्म-ए-मिस्ल-ए-नर्गिस'दाग़'-ए-फ़िराक़-ए-मह-वश क्या गुल खिला रहा है
दाग़ देहलवी
कलाम
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैंकि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
शे'र
गर मिले इक बार मुझ को वो परी-वश कज-अदाउस को ज़ाहिर कर दिखाऊँ दिल का मतलब दिल की बात