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ग़ज़ल
मिलते हैं 'अख़्तर' से ख़ुद ही माह-वश ज़ोहरा-जबींये करामत क्या नई उस मुर्शिद-ए-कामिल में है
अख़तर नगीनवी
फ़ारसी कलाम
दिल अज़ मेहर-ए-जहाँ बरदाशतम ता रू-ए-ऊ दीदमज़ुलेखा-वश ’अज़ीज़ी रश्क-ए-माही कर्द:-अम पैदा
फ़र्द फुलवारवी
कलाम
हस्ती के हम चमन में हैं चश्म-ए-मिस्ल-ए-नर्गिस'दाग़'-ए-फ़िराक़-ए-मह-वश क्या गुल खिला रहा है
दाग़ देहलवी
कलाम
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैंकि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
शे'र
गर मिले इक बार मुझ को वो परी-वश कज-अदाउस को ज़ाहिर कर दिखाऊँ दिल का मतलब दिल की बात
किशन सिंह आरिफ़
ग़ज़ल
सर पे है धानी दुपट्टा दिल-पसंद ऐ हूर-वशला'ल-ए-लब पर है तबस्सुम फिर न क्यूँ हो दिल का ख़ूँ
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
गर मिले इक बार मुझ को वो परी-वश कज-अदाउस को ज़ाहिर कर दिखाऊँ दिल का मतलब दिल की बात
किशन सिंह आरिफ़
फ़ारसी सूफ़ी काव्य
ऐ ख़ुश आँ रोज़े कि मा बा यार-ए-खुद ख़ुश बूद:-एमबादः-नोशाँ ज़ाँ लब-ए-ला'ल-ए-शक्कर-वश बूदः-ऐम