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Sufinama

आ’शिक़ पर अशआर

हर कि आ’शिक़ दीदयश मा'शूक़-दाँ

कू ब-निसबत हस्त हम-ईन-ओ-हमाँ

रूमी

आ’शिक़ हज़ारों सूरत-ए-परवानना गिर पड़े

उल्टी नक़ाब रुख़ से जो महफ़िल में यार ने

औघट शाह वारसी

अर-रूहो फ़िदाका फ़ज़िद हरक़ा यक शो'ला दिगर बर-ज़न इश्क़ा

मोरा तन मन धन सब फूँक दिया ये जाँ भी पियारे जला जाना

अहमद रज़ा ख़ान

आ’शिक़ों को फिर क़ज़ा आई क़यामत हो गई

फिर समंद-ए-नाज़ को उस तुर्क ने जौलाँ किया

औघट शाह वारसी

मन अगर बे-सर-ओ-सामाँ शुद:-अम ऐ'ब मकुन

आ'शिक़ अज़ रोज़-ए-अज़ल बे-सर-ओ-सामाँ उफ़्ताद

जामी

क़त्ल कुछ आ’शिक़ हुए मक़्तल में उस के हाथ से

कुछ फिरे मायूस और शौक़-ए-शहादत ले चले

औघट शाह वारसी

दिल का आ’लम आ’शिक़ी में क्या कहूँ क्या हो गया

रंज सहते सहते पत्थर का कलेजा हो गया

औघट शाह वारसी

इतना तो जानते हैं कि आशिक़ फ़ना हुआ

और उस से आगे बढ़ के ख़ुदा जाने क्या हुआ

आसी गाज़ीपुरी

मुँह फेरे हुए तू मुझ से जाता है कहाँ

मर जाएगा आ’शिक़ तिरा आरे आरे

शाह अकबर दानापूरी

मोहब्बत जब हुई ग़ालिब नहीं छुपती छुपाने से

फुग़ान-ओ-आह-ओ-नाला है तिरे आ’शिक़ का नक़्क़ारा

शाह तुराब अली क़लंदर

तुम ने क़द्र कुछ आशिक़ की जानी

बहुत रोओगे अब तुम याद कर के

आसी गाज़ीपुरी

'औघट' जहाँ में अब दिल-ओ-दीं पूछता है कौन

आशिक़ का इन बुतों में कोई क़द्र-दाँ नहीं

औघट शाह वारसी

दर्द-ए-दिल अव्वल तो वो आ’शिक़ का सुनते ही नहीं

और जो सुनते हैं तो सुनते हैं फ़साने की तरह

अमीर मीनाई

गिर पड़े ग़श खा के आ’शिक़ और मुर्दे जी उठे

दो-क़दम जब वो चले ये हश्र बरपा हो गया

औघट शाह वारसी

हम तो आ’शिक़ हैं तेरे सूरज पे जूँ सूरज-मुखी

हो जिधर तू बस उधर ही मुँह हमारा फिर गया

किशन सिंह आरिफ़

तुम को कहते हैं कि आशिक़ की फ़ुग़ाँ सुनते हो

ये तो कहने ही की बातें हैं कहाँ सुनते हो

मीर मोहम्मद बेदार

उसी को कामयाब-ए-दीद कहते हैं नज़र वाले

वो आशिक़ जो हलाक-ए-हसरत-ए-दीदार हो जाए

अफ़क़र मोहानी

शायद उस आईना-रू के है भरा दिल में ग़ुबार

ख़ाक आ’शिक़ पर जो वो दामन झटक कर रह गया

शाह नसीर

दीन-ओ-मज़हब से तिरे आशिक़ को अब क्या काम है

वो समझता ही नहीं क्या कुफ़्र क्या इस्लाम है

इरफ़ान इस्लामपुरी

लफ़्ज़-ए-उल्फ़त की मुकम्मल शर्ह इक तेरा वजूद

आ'शिक़ी में तोड़ डालीं ज़ाहिरी सारी क़ुयूद

अज़ीज़ वारसी देहलवी

आ’शिक़ हो तो हुस्न का घर बे-चराग़ है

लैला को क़ैस शम्अ' को परवाना चाहिए

बेदम शाह वारसी

इक निगाह जे आ’शिक़ वेखे, लख हज़ाराँ तारे हू

लक्ख निगाह जे आलिम वेखे किसे कद्धी चाढ़े हू

सुल्तान बाहू

कहा उस ने कि 'अकबर' किस के आशिक़ हो कहा मैं ने

तुम्हारी प्यारी आदत का तुम्हारी भोली सूरत का

अकबर वारसी मेरठी

आशिक़ राज़ माही दे कोलों, होण कदीं वांदे हू

नींद हराम तिन्हाँ ते जेहड़े ज़ाती इस्म कमांदे हू

सुल्तान बाहू

ख़बर अपनी नहीं रखते ख़बर ग़ैरों की क्या रखें

कि आ’शिक़ मा-सिवा-ए-यार से बे-ज़ार बैठे हैं

नूर बिहारी

उमीद-वार हैं हर सम्त आ’शिक़ों के गिरोह

तिरी निगाह को अल्लाह दिल-नवाज़ करे

हसरत मोहानी

मुझ को मिल जाये तो तदबीर-ए-तसल्ली पूछूँ

तू ने जिस आँख से आ’शिक़ का तड़पना देखा

मुज़्तर ख़ैराबादी

तेरे आशिक़ तेरे शैदा का ये हाल

हाय कैसे तुझ से देखा जाए है

तपाँ फुलवारवी

आशिक़ है गुल-ए'ज़ार किस का

दिल उस का है दाग़दार किस का

इरफ़ान इस्लामपुरी

आ’शिक़ों के होंगे राह-ए-यार में क्या क्या हुजूम

शौक़ जिन को कारवाँ-दर-कारवाँ ले जाएगा

हसरत मोहानी

दम-ब-दम यूँ जो बद-गुमानी है

कुछ तो आ’शिक़ की तुझ को चाह पड़ी

ख़्वाजा मीर असर

सितमगर बेवफ़ा ये बेवफ़ाई कब तलक

आशिक़ों की तेरे कूचे में दुहाई कब तलक

किशन सिंह आरिफ़

आशिक़ इश्क़ माही दे कोलों फिरन हमेशा खीवे हू

जींदे जान माही नूँ डित्ती दोहीं जहानीं जीवे हू

सुल्तान बाहू

हर नाज़ तिरा ये कहता है हर एक अदा से ज़ाहिर है

कहने को तिरा आ’शिक़ हूँ मगर तू और नहीं मैं और नहीं

आ’शिक़ों के होंगे राह-ए-यार में क्या क्या हुजूम

शौक़ जिन को कारवाँ-दर-कारवाँ ले जाएगा

हसरत मोहानी

कहाँ दामन-ए-हुस्न आ’शिक़ से अटका

गुल-ए-दाग़-ए-उल्फ़त में काँटा नहीं है

आसी गाज़ीपुरी

है आशिक़ को अपने सनम की क़सम

मुझे तेरे ख़ाक-ए-क़दम की क़सम

किशन सिंह आरिफ़

असीर-ए-गेसू-ए-पुर-ख़म बनाए पहले आशिक़ को

निकाले फिर वो पेच-ओ-ख़म कभी कुछ है कभी कुछ है

बा हम: ख़ूबरूईयम आ‘शिक़-ए-रू-ए-कीस्तम

रुस्त: ज़े-दाम-ए-जिस्म-ओ-जाँ बस्त:-ए-मू-ए-कीस्तम

शाह नियाज़ अहमद बरेलवी

गर आशिक़-ए- सादिक़ है उस का मत उल्फ़त तू ग़ैर से जोड़

ज़ुल्म करे या सितम करे तू इश्क़ से उस के मुँह मत मोड़

कवि दिलदार

अगर वो पिलावे शराब-ए-विसाल

तो क्या उस का आ’शिक़ मय-ख़्वार हो

किशन सिंह आरिफ़

दम तोड़ रहा है देख ज़रा आ’शिक़ है तिरा कुश्ता है तिरा

मोहनी सूरत वाले हसीं महबूब को यूँ बर्बाद कर

महबूब वारसी गयावी

जो आ’शिक़ हैं तेरे तड़पते नहीं हैं

कभी आह-ओ-नाले वो करते नहीं हैं

संजर ग़ाज़ीपुरी

मा'शूक़-ए-पा-बोस में आशिक़ ने बिछाई आँखें

फ़र्श-ए-गुल पर कभी इस शोख़ को चलने दिया

कौसर ख़ैराबादी

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है

सिमटे तो दिल आ’शिक़ फैले तो ज़माना है

जिगर मुरादाबादी

दिल के हर गोशे में तू हो आशिक़ी ऐसी तो हो

मैं तेरा हो कर रहूँ अब ज़िंदगी ऐसी तो हो

सदिक़ देहलवी

हैं शौक़-ए-ज़ब्ह में आशिक़ तड़पते मुर्ग़-ए-बिस्मिल से

अजल तू ही ज़रा कह आना ये पैग़ाम क़ातिल से

शाह अकबर दानापूरी

इ’श्क़ में आ’शिक़ की ये मेराज है

क़त्ल हो क़ातिल का मुँह देखा करे

शाह अकबर दानापूरी

उन की हसरत के सिवा है कौन इस में दूसरा

दिल की ख़ल्वत में भी वो आ’शिक़ से शरमाते हैं क्यूँ

आसी गाज़ीपुरी

पीरी ने भरा है फिर जवानी का रूप

आ’शिक़ हुए हम एक बुत-ए-कम-सिन के

शाह अकबर दानापूरी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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