ईमान पर अशआर
ईमान: ईमान अ’रबी ज़बान
से मुश्तक़ इस्म है। उर्दू में ब-तौर-ए-इस्म ही इस्ति’माल होता है और तहरीरन 1609 ई’स्वी में इसका इस्ति’माल मिलता है। तसव्वुफ़ में ईमान दर-अस्ल तस्दीक़ बिल-क़ल्ब का नाम है। हुज्जत-ओ-इस्तिदलाल सहीह ईमान की ज़िद है। सालिक ज़ाहिरी और इज्माली इस्लाम पर क़नाअ’त नहीं करता बल्कि मुसलसल आगे बढ़ते रहने की ख़्वाहिश करता रहता है। सूफ़िया के नज़दीक वो ईमान जिसका हक़ीक़त से कोई तअ’ल्लुक़ न हो वो ईमान नहीं बल्कि कुफ़्र है।
एक ईमान है बिसात अपनी
न इबादत न कुछ रियाज़त है
यही ईमान है अपना यही अपना अ’मल 'काविश'
सनम के इक इशारे पर हर इक शय को लुटा देना
किस तरह छोड़ दूँ ऐ यार मैं चाहत तेरी
मेरे ईमान का हासिल है मोहब्बत तेरी
नुक्ता-ए-ईमान से वाक़िफ़ हो
चेहरा-ए-यार जा-ब-जा देखा
कर अपनी नज़र से मिरे ईमान का सौदा
ऐ दोस्त तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम है
तू लाख करे इंकार मगर बातों में तिरी कौन आता है
ईमान मिरा ये मेरा यक़ीं तू और नहीं मैं और नहीं
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा’लूम होती है
मगर फिर दुश्मन-ए-ईमान-ओ-दीं मालूम होती है
आग़ाज़ तू है अंजाम तू है ईमान तू ही इस्लाम तू है
है तुझ पे 'अज़ीज़'-ए-ख़स्ता फ़िदा ऐ नूर-ए-मुहम्मद सल्लल्लाह
ईमान दे के मोल लिया इश्क़-ए-फ़ित्ना-गर
बाज़ी लगा के जीत का घर देखते रहे
जिस ने ईमान कर दिया कामिल
वो तुम्हारा ही मुसहफ़-ए-रू है
तुम्हारे घर से हम निकले ख़ुदा के घर से तुम निकले
तुम्हीं ईमान से कह दो कि काफ़िर हम हैं या तुम हो
बा-होश वही हैं दीवाने उल्फ़त में जो ऐसा करते हैं
हर वक़्त उन्ही के जल्वों से ईमान का सौदा करते हैं
काम का’बा से न है ने देर से
दीन-ओ-ईमान याँ बिरादर और है
ख़ुदा से डर ज़रा 'कौसर' कि तू तो खोए बैठा है
सरापा दीन-ओ-ईमान इक बुत-ए-काफ़िर की चाहत में
कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम
मोहब्बत तिरी अपना ईमान है
आपका ये आ’रिज़-ए-मुतलक़ नहीं क़ुरआन है
बात ये ईमान की है ये मिरा ईमान है
हुस्न-ए-बुताँ का इ’श्क़ मेरी जान हो गया
ये कुफ़्र अब तो हासिल-ए-ईमान हो गया
उस का ईमान लूटते हैं सनम
जिस को अपना शिकार करते हैं
दीन-ओ-ईमान पर गिरी बिजली
लग गई आग पारसाई में
झूटे वा'दे तू रोज़ करता है
तेरा ईमान एक हो तो कहूँ
रहज़न-ए-ईमान तू जल्वा दिखा जाए अगर
बुत पुजें मंदिर में मस्जिद में ख़ुदा की याद हो
मैं हूँ बेचता धर्म-ओ-ईमान-ओ-दींं
अगर कोई आ कर ख़रीदार हो
इलाही ख़ैर ज़ोरों पर बुतान-ए-पुर-ग़ुरूर आए
कहीं ऐसा न हो ईमान-ए-आ’लम में फ़ुतूर आए
इ’ल्म और फ़ज़्ल के दीन-ओ-ईमान के अ’क़्ल पर मेरी 'काविश' थे पर्दे पड़े
सारे पर्दे उठा कर कोई अब मुझे अपना जल्वा दिखाए तो मैं क्या करूँ
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere