ख़िज़ाँ पर अशआर
ख़िज़ाँ: ख़िज़ाँ असलन
फ़ारसी ज़बान का लफ़्ज़ है। फ़ारसी से उर्दू में दाख़िल हुआ है। उर्दू में बतौर-ए-इस्म मुस्ता’मल है। 1609 ई’स्वी में इसका इस्ति’माल मिलता है। लुग़त में उस मौसम को ख़िज़ाँ कहते हैं जिसमें दरख़्तों के पत्ते झड़ जाते हैं। तसव्वुफ़ में ख़िज़ां उस वक़्त बोला जाता है जब मुब्तदी को बू-ए-मा’रिफ़त मिलने लगे।
फ़स्ल-ए-बहार में तो क़ैद-ए-क़फ़स में गुज़री
छूटे जो अब क़फ़स से तो मौसम-ए-ख़िज़ाँ है
वो बहार-ए-उ’म्र हो या ख़िज़ाँ नहीं कोई क़ाबिल-ए-ए'तिना
न यक़ीं था मुझ को सुरूर पर न है ए'तिबार ख़ुमार पर
मिरी सम्त से उसे ऐ सबा ये पयाम-ए-आख़िर-ए-ग़म सुना
अभी देखना हो तो देख जा कि ख़िज़ाँ है अपनी बहार पर
न नशात-ए-विसाल न हिज्र का ग़म न ख़याल-ए-बहार न ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ
न सक़र का ख़तर है न शौक़-ए-इरम न सितम से हज़र न करम से ग़रज़
अफ़्सुर्दगी भी रुख़ पे है उन के निखार भी
है आज गुल्सिताँ में ख़िज़ाँ भी बहार भी
वो अदा-शनास-ए-ख़िज़ाँ हूँ मैं वो मिज़ाज-दान-ए-बहार हूँ
न है ए'तिबार-ए-ख़िज़ाँ मुझे न यक़ीन फ़स्ल-ए-बहार पर
नौ-असीर-ए-फ़ुर्क़त हूँ वस्ल-ए-यार मुझ से पूछ
हो गई ख़िज़ाँ दम में सब बहार मुझ से पूछ
जोश-ए-जुनूँ में दाग़-ए-जिगर मेरे भरे
गुलचीं हमारे बाग़ को ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ नहीं
ख़िज़ाँ का ख़ौफ़ था जिन को चमन में
उन्हीं फूलों के चेहरे ज़र्द निकले
लूटेगा सब बहार तिरी शहना-ए-ख़िज़ाँ
बुलबुल पर कर ले तू ज़र-ए-गुल को निसार शाख़
गिर्या-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ का वक़्त आ पहुँचा क़रीब
ऐ गुलो देखो ये बे-मौक़ा' हँसी अच्छी नहीं
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
बाग़ से दौर-ए-ख़िज़ाँ सर जो टपकता निकला
क़ल्ब-ए-बुलबुल ने ये जाना मेरा काँटा निकला
फ़रोग़-ए-हसरत-ओ-ग़म से जिगर में दाग़ रखता हूँ
मिरे गुलशन की ज़ीनत दौर-ए-हंगाम-ए-ख़िज़ाँ तक है
मेरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा,मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
जिसे तेरे ग़म से हो वास्ता वो ख़िज़ाँ बहार से कम नहीं
ऐ असीरान-ए-क़फ़स आने को है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
चार-दिन में और गुलशन की हवा हो जाएगी
मैं वो गुल हूँ न फ़ुर्सत दी ख़िज़ाँ ने जिस को हँसने की
चराग़-ए-क़ब्र भी जल कर न अपना गुल-फ़िशाँ होगा
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere