Sufinama

क़ातिल पर अशआर

क़ातिलः क़त्ल करने वाले

को क़ातिल कहा जाता है। किनायतन महबूब की अ’दाओं को क़ातिल कहते हैं।महबूब को भी क़ातिल कहा जाता है क्यूँकि आ’शिक़-ए-सादिक़ महबूब की अदाओं पर क़ुर्बान होता रहता है।महबूब-ए-हक़ीक़ी की तरफ़ से कभी इल्तिफ़ात और कभी कभी अ’दम-ए-तवज्जोह सालिक के लिए मौत से बदतर है।मा’शूक़-ए-हक़ीक़ी की सिफ़त-ए-जमाल सालिक की हयात है। जलाल सालिक के लिए क़त्ल के मुतरादिफ़ है।जमाल-ओ-जलाल गोया अदाऐं हैं जिनसे सालिक क़त्ल होता रहता है।ये क़त्ल चूँकि सालिक के हाथों होता है इसलिए सालिक के लिए बाइ’स-ए-मुसर्रत है और वो चाहता है कि वो यूँही क़त्ल होता रहे।

मिरा सर कट के मक़्तल में गिरे क़ातिल के क़दमों पर

दम-ए-आख़िर अदा यूँ सज्दा-ए-शुकराना हो जाए

बेदम शाह वारसी

इ’श्क़ में आ’शिक़ की ये मेराज है

क़त्ल हो क़ातिल का मुँह देखा करे

शाह अकबर दानापूरी

कहाँ का नाला कहाँ का शेवन सुनाए क़ातिल है वक़्त-ए-मुर्दन

क़लम हुई है बदन से गर्दन ज़बाँ पे ना'रा है आफ़रीं का

अमीर मीनाई

तिरी आमादगी क़ातिल तबस्सुम है मोहब्बत का

तवज्जोह गर नहीं मुज़्मर तो क़स्द-ए-इम्तिहाँ क्यूँ हो

मयकश अकबराबादी

क़ातिल ने पाएमाल किया जब से ख़ून-ए-'इश्क़'

सब शग़्ल छोड़ कर वो हुआ है हिना-परस्त

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

हैं शौक़-ए-ज़ब्ह में आशिक़ तड़पते मुर्ग़-ए-बिस्मिल से

अजल तो है ज़रा कह आना ये पैग़ाम क़ातिल से

शाह अकबर दानापूरी

सदक़े क़ातिल तिरे मुझ तिश्ना-ए-दीदार की

तिश्नगी जाती रही आब-ए-दम-ए-शमशीर से

बेदम शाह वारसी

क़ातिल रहबर क़ातिल रहज़न

दिल सा दोस्त दिल सा दुश्मन

जिगर मुरादाबादी

छुरी भी तेज़ ज़ालिम ने कर ली

बड़ा बे-रहम है क़ातिल हमारा

आसी गाज़ीपुरी

है वो क़ातिल क़त्ल-ए-आशिक़ पर खड़ा

मार देगा ख़ूँ भरी तलवार से

किशन सिंह आरिफ़

क़ातिल को है ज़ो'म-ए-चारा-गरी अब दर्द-ए-निहाँ की ख़ैर नहीं

वो मुझ पे करम फ़रमाने लगे शायद मिरी जाँ की ख़ैर नहीं

शकील बदायूनी

निकलती है सदाएँ मर्हबा हर ज़ख़्म से क़ातिल

हमें लज़्ज़त मिली क्या जाने क्या शौक़-ए-शहादत में

कौसर ख़ैराबादी

कूचा-ए-क़ातिल में मुझको घेर कर लाई है ये

जीते जी जन्नत में पहुंचा दे क़ज़ा ऐसी तो हो

कैफ़ी हैदराबादी

होती दिल में उल्फ़त अपनी क्यूँ क़ातिल के अबरू की

कि मुझ को तो क़तील-ए-ख़ंजर-ए-सफ़्फ़ाक होना था

अ‍र्श गयावी

क़द-ए-ख़म है गरेबाँ-गीर कंठा बन के क़ातिल का

मगर बे-ताबी-ए-ज़ौक़-ए-शहादत हो तो ऐसी हो

आसी गाज़ीपुरी

अदा-ओ-नाज़-ए-क़ातिल हूँ कभी अंदाज़-ए-बिस्मिल हूँ

कहीं मैं ख़ंदः-ए-गुल हूँ कहीं सोज़-ए-अनादिल हूँ

कौसर ख़ैराबादी

ख़ून-ए-उ’श्शाक़ से क़ातिल ने खेली होली

सफ़-ए-मक़्तल में कभी रंग उछलने दिया

कौसर ख़ैराबादी

नहीं है ये क़ातिल तग़ाफ़ुल का वक़्त

ख़बर ले कि बाक़ी अभी जान है

ख़्वाजा मीर असर

कोई मर कर तो देखे इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत में

कि ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल हयात-ए-जावेदाँ तक है

बेदम शाह वारसी

जिस तरफ़ कूचा-ए-क़ातिल में गुज़र होता है

नज़र आते हैं उधर मौत के सामाँ मुझ को

जिगर वारसी

ये भी इक डर है कहीं रुस्वा हो क़ातिल मिरा

हश्र में ख़ून-ए-तमन्ना का अगर दा'वा करूँ

रज़ा वारसी

निकाले हौसले मक़्तल में अपने बिस्मिल के

निसार तेग़ के क़ुर्बान ऐसे क़ातिल के

बेदम शाह वारसी

मिरे क़ातिल की जल्दी ने मुझे नाकाम ही रखा

तमन्ना देखने की भी निकली तेज़-दस्ती में

मुज़्तर ख़ैराबादी

इम्तिहाँ-गाह-ए-वफ़ा में तू भी चल मैं भी चलूँ

आज शमशीर-ए-क़ातिल मैं नहीं या तू नहीं

मुज़्तर ख़ैराबादी

तरसा उन्हें आब-ए-ख़ंजर को क़ातिल

दु’आएँ तुझे देंगे बिस्मिल हज़ारों

रियाज़ ख़ैराबादी

वो ज़ालिम है बे-दर्द सफ़्फ़ाक-क़ातिल

उसे दर्द-ए-दिल का सुनाने से हासिल

मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन

कूचा-ए-क़ातिल में जाकर हाथ से रक्खें तुझे

दिल-ए-बेताब हमने इसलिए पाला नहीं

मिरर्ज़ा फ़िदा अली शाह मनन

पिएगी ख़ूब क़ातिल ग़ज़ब का रंग लाएगी

लगाई है जो मेहंदी पीस उस को ख़ून-ए-बिस्मिल में

अमीर मीनाई

मियान-ए-तिश्नगी प्यासों ने ऐसी लज़्ज़तें लूटीं

कि आब-ए-तेग़-ए-क़ातिल बे-मज़ा मा’लूम होता है

मुज़्तर ख़ैराबादी

तेग़ ही क्या हाथ में क़ातिल के थी

हिना तू भी तो सानी जाएगी

रियाज़ ख़ैराबादी

हश्र में क़ातिल ने देखी है लहू की कोइ छींट

सू-ए-दामन क्यूँ झुकी है आँख शर्माई हुई

रियाज़ ख़ैराबादी

वाह-रे शौक़-ए-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़

गुनगुनाता रक़्स करता झूमता जाता हूँ मैं

जिगर मुरादाबादी

जिलाया मार कर क़ातिल ने मैं इस क़त्ल के क़ुर्बां

हुआ दाख़िल वो ख़ुद मुझ में मैं ऐसे दख़्ल के क़ुर्बां

मरदान सफ़ी

मैं क्या बेवफ़ा हूँ कि महशर में क़ातिल ख़ुदा से करूँ शिकवः-ए-क़त्ल अपना

ज़माना कहे ख़ून-ए-नाहक़ बहाया अगर मुझ से पूछा तो पानी कहूँगा

मुज़्तर ख़ैराबादी

उधर हर वार पर क़ातिल को बरसों लुत्फ़ आया है

इधर हर ज़ख़्म ने दी है सदा-ए-आफ़रीं बरसों

मुज़्तर ख़ैराबादी

सितम को छोड़ बद अच्छा बुरा बदनाम दुनिया में

जफ़ा के साथ तेरा नाम क़ातिल निकलता है

अकबर वारसी मेरठी

क़ातिल वो शाख़ है तिरी ये तेग़-ए-आबदार

जिस को गुल का ग़म है हाजत समर की है

अ‍र्श गयावी

है मक़्तल में क़ातिल के इक वार का

कलेजा हुआ सर हुआ दिल जुदा

बाँके लाल

कर के दा'वा ख़ून-ए-नाहक़ का बहुत नादिम हुआ

अर्सा-ए-महशर में क़ातिल को परेशाँ देख कर

कौसर ख़ैराबादी

हैं ख़जिल क़ौस-ओ-हिलाल-ओ-ख़ंजर-ओ-तेग़-ए-सितम

क़ातिल-ए-आ’लम है तेरी अबरु-ए-पुर-ख़म नहीं

बहराम जी

हुकूमत के मज़ालिम जब से इन आँखों ने देखे हैं

जिगर हम बम्बई को कूचा-ए-क़ातिल समझते हैं

जिगर मुरादाबादी

इस दर्जा पशेमाँ मिरा क़ातिल है कि उस से

महशर में मिरे सामने आया नहीं जाता

पुरनम इलाहाबादी

मर ही गए जफ़ाओं से क़ातिल तड़प-तड़प

मैं क्या कि और कितने ही बिस्मिल तड़प-तड़प

ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

सिखाई नाज़ ने क़ातिल को बेदर्दी की ख़ू बरसों

रही बेताब सीनः में हमारी आरज़ू बरसों

अज़ीज़ सफ़ीपुरी

चाटती है क्यूँ ज़बान-ए-तेग़-ए-क़ातिल बार बार

बे-नमक छिड़के ये ज़ख़्मों में मज़ा क्यूँकर हुआ

अमीर मीनाई

सख़्त-जाँ 'संजर' हुआ है इ’श्क़ में

तेग़ अब क़ातिल की ख़ाली जाएगी

संजर ग़ाज़ीपुरी

सिसकते होंगे लाखों सैंकड़ों बे-दम पड़े होंगे

सुन क़ासिद यही अच्छा निशान-ए-कू-ए-क़ातिल है

शम्स फ़िरंगी महल्ली

पस-ए-मुर्दन इरादा दिल में था जो कू-ए-क़ातिल का

लहद में ख़ुश हुआ मैं नाम सुनकर पहली मंज़िल का

ग़ाफ़िल लखनवी

जो अ’ज़्म-ए-क़त्ल है आँखों पे पट्टी बाँध ली क़ातिल

मबादा तुझ को रहम जाए मेरी ना-तवानी पर

कौसर ख़ैराबादी

वहम है या सहम है क़ातिल को या मेरा ख़याल

हाथ काँपे जाते हैं ख़ंजर रवाँ होता नहीं

राक़िम देहलवी

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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