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हज़रत शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी

डाॅ. ज़ुहूरुल हसन शारिब

हज़रत शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस देहलवी

डाॅ. ज़ुहूरुल हसन शारिब

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    रोचक तथ्य

    دلی کے بائیس خواجہ۔ باب 15

    हज़रत शाह ‘अब्दुल्लाह मुहद्दिस देहलवी ‘आलिम-ए-रब्बानी, मुर्ताज़-ए-हक़्क़ानी हैं ।आप शैख़-उल-‘अस्र और ‘अल्लामतुददह्र थे।

    ख़ानदानी हालात: आप बुख़ारा के एक मु'अज़्ज़ज़ ख़ानदान से हैं। आपके दादा आग़ा मोहम्मद ख़ानदानी दौलत और ‘अज़मत के साथ साथ रूहानी और ‘इल्मी दौलत से भी सरफ़राज़ थे। वस्त-एशिया के लिए तेरहवीं सदी ‘ईस्वी एक पुर-आशोब दौर था। क़त्ल और ग़ारत-गरी 'आम थी। आपके दादा आग़ा मोहम्मद मुग़लों के जब्र-ओ-इस्तिबदाद से परेशान हो कर बुख़ारा छोड़ने पर मजबूर हुए। सुल्तान ‘अलाउद्दीन ख़िल्जी के ज़माने में हिंदुस्तान आये। शाही दरबार में रसाई हुई। सुल्तान ‘अलाउद्दीन ख़िल्जी ने आपको और दीगर ख़ास लोगों को गुजरात फ़त्ह करने के लिए भेजा। गुजरात की फ़त्ह के बा’द आपने वहीं बूद-ओ-बाश इख़्तियार की। आपके एक सौ एक बेटे थे ।सौ बेटों का इंतिक़ाल हो गया, ।इस जाँ-काह सदमे ने आपको गुजरात में रहने दिया। आप अपने एक बेटे को साथ ले कर देहली आये। आपने 17 रबी-‘उस-सानी 739 हिज्री को इन्तिक़ाल फ़रमाया।

    वालिद माजिद: आपके वालिद माजिद का नाम मौलाना सैफ़ुद्दीन है। आप एक अच्छे शा’इर और एक बड़े 'आलिम होने के ‘अलावा एक साहिब-ए-दिल बुज़ुर्ग भी थे।

    विलादत: आपकी विलादत-ए-ब-स'आदत मुहर्रम 958 हिज्री में हुई। आपका नाम ‘अब्दुल हक़ है।

    ता'लीम-ओ-तर्बियतः आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने आपकी ता'लीम-ओ-तर्बियत पर काफ़ी तवज्जोह की। आपकी इब्तिदाई ता'लीम अपने वालिद माजिद की आग़ोश में हुई। आप बहुत ज़हीन थे। चन्द माह में क़ुर'आन-ए-मजीद ख़त्म कर लिया और बहुत कम मुद्दत में हिफ़्ज़ कर लिया। आपने अठारह साल की ‘उम्र में ‘उलूम-ए-ज़ाहिरी की तहसील से फ़राग़त पाई।

    हज-ए-बैतुल्लाह: आपको हज का शौक़ हुआ। हज के इरादे से आप देहली से रवाना हुए। आप रमज़ान 996 हिज्री में शैख़ ‘अब्दुल-वह्हाब मनक़ी की ख़िदमत में हाज़िर हो कर उनके फुयूज़-ओ-बरकात से बहरा-मन्द हुए। ‘इल्म-ए-बातिनी की ता'लीम आपने शैख़ अब्दुल वह्हाब मनक़ी से हासिल की। तसव्वुफ़ की किताबें उनसे पढ़ीं और उनकी निगरानी में हरम-शरीफ़ में 'इबादत की। आप ख़ास मक़ामात पर हाज़िर हो कर दु'आ भी करते थे। आप फ़रमाते हैं के ये फ़क़ीर जब मक्का मु'अज़्ज़मा में था तो आँ-हज़रत सलल्लाहु ‘अलैहि वसल्लम के दौलत-कदा पर जिसे बैत-ए-ख़दीजा कहते हैं और वो मक्का शरीफ़ में बैतुल्लाह के बा’द सब मक़ामात से अफ़ज़ल है वहाँ हाज़िर हो कर खड़ा हो जाता था और फ़क़ीरों की तरह चीख़ता था और ये कहता था कि रसूलुल्लाह! कुछ मर्हमत कीजिये और या रसूलुल्लाह! ये फ़क़ीर आपका साएल और आपके दरवाज़े पर हाज़िर है जो कुछ इस वक़्त सूझती थी और ज़बान-ए-हाल गोयाई देती थी तलब करता था और दामन-ए-उम्मीद भर कर वापस आता था।

    बै’अत-ओ-ख़िलाफ़त: आपके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार आपके पहले रूहानी मुर्शिद-ओ-पेशवा हैं। अपने वालिद के हुक्म के मुताबिक़ आप हज़रत सय्यद मूसा गीलानी से बै'अत हुए और उनकी ख़ुसूसी तवज्जोह से मुस्तफ़ीद हुए। जब मक्का मु'अज़्ज़मा पहुँचे वहाँ हज़रत शैख़ ‘अब्दुल वह्हाब मनक़ी ने आपके चिश्तिया, क़ादरिया, शाजलिया सिलसिला की ख़िलाफ़त 'अता फ़रमाई। इस तरह से आप चारों सिलसिलों या’नी चिश्तिया, क़ादरिया,. शाजलिया, और नक़्शबन्दिया से वाबस्ता हो गए।

    बशारत: आप फ़रमाते हैं कि

    मुझे ख़्वाब में हज़रत ग़ौसुल-'आज़म ने हुज़ूर सरवर-ए-'आलम सल्ल० ‘अलै० वसल० के इशारे पर मुरीद किया था। बै'अत होने के बा’द हुज़ूर सरवर-ए-काइनात ने फ़ारसी ज़बान में मुझे बशारत दी।बुज़ुर्ग ख़वाही शुद यानी तू बुज़ुर्ग होगा।

    वापसी देहली: हज़रत शैख़ ‘अब्दुल वह्हाब मनक़ी का इशारा पाकर आप देहली तशरीफ़ लाये। देहली में आपने एक मदरसा क़ाइम किया जहाँ मज़हबी ता'लीम दी जाती थी आपने देहली में तमाम ‘उम्र दर्स-ओ-तदरीस, रुश्द-ओ-हिदायत और तसनीफ़-ओ-तालीफ़ में गुज़ारी।

    औलाद: आपके साहिब-ज़ादे शैख़ नूर-उल-हक़ साहिब-ए-दिल बुज़ुर्ग थे।

    वफ़ात शरीफ़: आप 21 रबी-‘उल-अव्वल 1051 हिज्री को वासिल ब-हक़ हुए। आपका मज़ार महरौली में हौज़-ए-शम्सी के दाहिने किनारे ज़ियारत-गाह-ए-ख़ास-ओ-'आम है।

    सीरत-ए-पाक: आप एक 'आलिम बा-'अमल थे। साहिब-ए-दिल और साहिब-ए-निस्बत बुज़ुर्ग थे। 'इबादत और रियाज़त में बहुत मशग़ूल रहते थे। हिंदुस्तान में आप मुहद्दिस कहलाये। आपको ‘इल्म-ए-हदीस पर काफ़ी 'उबूर था और आपने इस 'इल्म को फैलाने में स'ई-ए-बलीग़ की।

    'इल्मी ज़ौक़: आपके 'इल्मी ज़ौक़ का पता आपकी तसानीफ़ से चलता है। आपकी तसानीफ़ बहुत हैं। बा'ज़ ने आपकी तसनीफ़ की ता'दाद सौ से ज़ियादा बताई है। आपकी तसानीफ़ मुख़्तलिफ़ मौज़ू'आत पर हैं। आपकी मशहूर तसानीफ़ हस्ब-ए-ज़ैल हैं।

    उसूल-ए-हदीस, मर्ज़-उल-बहरैन, रिसाला और मस्अला-ए-समा'अ, रिसाला दर मस्'अला-ए-वहदत-ए-वुजूद, अख़बार-उल-अख़यार फ़ी असरार-इल-अबरार, लताएफ़-उल-हक़, अस्मा-उल-रिजाल, मदारिज-उल-नुबुव्वत, जामि-उल-बरकात, तकमील-उल-ईमान।

    आपकी ता'लीमात: आप फ़रमाते हैं कि

    जुम्हूर मुहद्दिसीन की इस्तिलाह में हदीस का इतलाक़ रसूल-ए-ख़ुदा सल्लाहु ‘अलैहि वसल्लम के क़ौल-ओ-फ़े’ल-ओ-तक़रीर पर होता है।जिस हदीस की सनद रसूल-ए-ख़ुदा तक पहुँची उसको मक़तू' बोलते हैं जो शख़्स सुन्नत के साथ मशग़ूल है उसको मुहद्दिस और जो तवारीख़ के साथ मशग़ूल है उसको अख़बारी कहते हैं।

    हदीस के अक़साम: आप फ़रमाते हैं कि

    हदीस के अक़्साम में से शाज़, मुन्कर, मु'अल्ल है और हदीस की अस्ल अक़्साम तीन हैं, सहीह, हसन, ज़'ईफ़।

    रावी: आप फ़रमाते हैं कि

    हदीस-ए-सहीह का रावी अगर एक शख़्स है वो हदीस ग़रीब है और अगर दो रावी है और अगर दो से ज़ियादा रावी हैं तो मशहूर है और अगर हदीस के रावी कसरत में इस हद को पहुँच जावें कि 'आदत-ए-महाल समझे उनके इत्तिफ़ाक़ करने को झूट पर तो ऐसी हदीस को मुतवातिर कहते हैं

    छ: किताबें: आप फ़रमाते हैं कि

    वो छ: किताबें जो इस्लाम में मुक़र्रर –ओ- मशहूर हैं जिनको सिहाह-ए-सित्ता कहते हैं, उनके नाम ये हैं, सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम, जामे'-ए-तिरमिज़ी, सुनन-ए-अबू-दाऊद, नसाई, सुनन-ए- इब्न-ए-माजा और बा’ज़ के नज़दीक इब्न-ए-माजा की जगह मुवत्ता इमाम-ए-मालिक है।

    सीधा रास्ता: आप फ़रमाते हैं कि सालिक को राह-ए-सलामत और तालिब को सबील-ए-इस्ति क़ामत ये है कि ख़ौज़-ए-फ़लसफ़ियात को हराम जाने और ज़ियादती-ए-दलाएल-ए-कलामिया से परहेज़ करे और दरवाज़ा क़ील-ओ-क़ाल और बहस-ओ-जंग-ओ-जिदाल का बंद रखे, ‘अक़ाइद-ए-अहल-ए-सुन्नत –ओ- जमा'अत में यही काफ़ी है कि दलाएल-ए-इज्मालिया पर इक्तिफ़ा करे और उसीकी इत्तिबा' में रहे और ‘अक़्ल को मु’आमलात-ए-शरी'अत-ओ-अहकाम-ए-किताब-ओ-सुन्नत में मा’अज़ूल जाने और मनक़ूल को ताबे'-ए-मा’क़ूल करे और तावील-ओ-तश्कीक से बाज़ रहे और दाइरा-ए-‘ऐतिक़ाद-ओ-इंकियाद से बाहर जावे और अपनी फ़हम–ए-क़ासिर-ओ-‘अक़्ल-ए-नाक़िस पर ‘ऐतमाद करे।

    तताबुक़-ए-शरी'अत-ओ-तरीक़त: आप फ़रमाते हैं कि

    ये गुमान करे कि तरीक़ा तसव्वुफ़ का मुख़ालिफ़ मज़हब-ए-शरी'अत और किताब-ओ-सुन्नत है, हाशा-व-कल्ला हरगिज़ दोनों फ़िरक़ों में सर—ए-मू मुग़ायरत नहीं और किसी क़िस्म की बा-हम मुबायनत है, ख़ास-व-ख़ुलासा इस मिल्लत के सूफ़िया-ए-किराम हैं कि वो ज़ाहिरन-ओ-बातिनन चुनने वाले नूर-ए-सुन्नत और खोलने वाले पर्दा-ए-हक़ीक़त के हैं और सुलूक-ए-तरीक़त में 'अमलन और तहक़ीक़-ए-मा’ना में तस्दीक़न-ओ-इख़्लास में यक़ीनन और जानने मक्र-ए-नफ़्स में सरीहन और वाक़फ़ियत-ओ-आगाही-ए-वरा'-ओ-तहज़ीब-ए-अख़्लाक़ में यकता हैं, सिवाए इसके कि तज़्किया-ए-ज़ाहिर-ओ-तस्फ़िया-ए-बातिन–ओ-तख़्लिया क़ल्ब-ओ-तज़्किया-ए-रूह में कोई शख़्स उनसे सबक़त नहीं ले गया है और जैसा कि उनको ‘आमाल-ओ-अहवाल और अख़्लाक़-ओ-मक़ामात और वज्द-ओ-ज़ौक़-ओ-निकात–ओ-इशारात बल्कि तमाम कमालात में हाथ दिया है ऐसा किसी फ़िर्क़ा को नहीं दिया।

    अक़्वाल: आपके चंद अक़्वाल हस्ब-ए-ज़ैल हैं।

    ख़ुश-नसीबी और काम-याबी और बुलंद-इक़्बाली और नेक बख़्ती की निशानी बुज़ुर्गों की मुलाक़ात है।

    अक्सर आदमी ग़ैरत और ‘इज़्ज़त की वजह से परहेज़गारी और नेक-बख़्ती के पर्दे में रहते हैं।

    फ़िक्र से ख़ाली बैठना और क़ुव्वत-ए-ज़हीना से काम लेना भी निकम्मी बात है और क़ुव्वत-ए-नज़री या’नी ज़कावत के ज़ाएल होने का सबब है।

    ने'मत की बे-क़द्री मुजिब-ए-'इताब-ए-बारी है।

    एक शय से ध्यान लगाना और उसको ब-ख़ूबी हासिल करना उसके मा-सिवा के ज़ाएल करने का सबब है।

    दिल की यक-सूई वहदत में है और परेशानी और फ़ुतूर कसरत में है।

    सबसे ज़ियादा बुरी चीज़ नाक़िसों की सोहबत है और इस बारे में नाक़िस मेरे नज़दीक वो शख़्स है जिसको कमाल का ग़म और अपने हाल पर अफ़सोस नहीं।

    औराद-ओ-वज़ाइफ़: आप ये दुरूद शरीफ़ पढ़ा करते थे कि

    अल्लाहुम्मा सल्लि 'अला मुहम्मदिन बि-‘अददि कुल्लि ज़र्रतिन अल्फ़ा अल्फ़ा मर्रातिन

    तर्जुमा: अल्लाह पाक जनाब मोहम्मद सल्लाहु ‘अलैहि वसल्लम पर हर ज़र्रे के शुमार के बराबर हज़ार दफ़ा’ रहमत नाज़िल कर

    आप फ़रमाते हैं कि 'इल्म, क़ुदरत और रहमत अल्लाह पाक की तीन सिफ़तें हैं। तालिब-ए-मक़सूद के लिए ज़रूरी है कि इन तीनों की तरफ़ तवज्जोह रखे और रहमत हासिल करता रहे लेकिन इन सिफ़तों की तरफ़ नज़र करने के ये मा'ना नहीं हैं कि अपनी कैफ़ियत में फ़ुतूर डाले

    आप फ़रमाते हैं कि

    अल्लाह की वहदत और उसके ज़िक्र की तरफ़ रुख़ करे और कहे ‘ला इला-हा इलल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’ कमाल-ए-यकसूई से इस कलिमे की तकरार करे और इस ज़िक्र में ग़र्क़ हो जाए। इसके बा'द सिर्फ़ ‘ला-इलाहा इल्लल्लाह’ का ज़िक्र करे और अगर हो सके तो अपने तईं इस पर क़ाइम करे और इक़रार दे, मुझसे तो रसूलल्लाह का जुमला छोड़ा नहीं जाता और हुज़ूर सल्ललाहु ‘अलैहि वसल्लम के ज़िक्र को मैं तर्क नहीं कर सकता और ‘ला- इलाहा इल्लल्लाह’ के हर्फ़ पर नहीं ठहर सकता कयूंकि हुज़ूर-ए- नूर ला-इलाहा इलल्लाह के नूर में और हुज़ूर की याद उसके जमाल और कमाल को ज़ियादा करती है।

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