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सवाल - बुत-ओ-ज़ुन्नार-ओ-तरसाई दर ईन कुए

महमूद शबिस्तरी

सवाल - बुत-ओ-ज़ुन्नार-ओ-तरसाई दर ईन कुए

महमूद शबिस्तरी

MORE BYमहमूद शबिस्तरी

    सवाल

    प्रश्न

    बुत-ओ-ज़ुन्नार-ओ-तरसाई दर ईन कुए

    हम: कुफ़्र-अस्त वर्ना चीस्त बर गूए

    मूर्ति-पूजा, जनेऊ, और धूनी (अग्निपूजा) यह सब

    नास्तिकता के चिन्ह नहीं तो और क्या हैं?

    जवाब

    उत्तर

    बुत ई-जाँ मज़हर-ए-इश्क़-अस्त-ओ-वहदत

    बुवद ज़ुन्नार बस्तन ऐन-ए-ख़िदमत

    मूर्ति यहाँ पर प्रेम और अद्वैत के प्रकट होने का स्थान है।

    जटा बाँधना और जनेऊ पहनने से सेवा करना समझा जाता है।

    चु कुफ़्र-ओ-दीं बुवद क़ाएम ब-हस्ती

    शवद तौहीद ऐन-ए-बुत-परस्ती

    जब इस जीवन के साथ नास्तिकता और आस्तिकता

    दोनों हो उपस्थित है तो फिर अद्वैत ठीक मूर्ति पूजा हो जाता है।

    चु अशिया हस्त हस्ती रा मज़ाहिर

    अज़ाँ जुमल: यके बुत बाशद आख़िर

    जब कि सभी वस्तुएँ सत् को प्रकट करती हैं

    तो मूर्ति भी उन्हीं में से एक होगी।

    निको अंदेशः कुन मर्द-ए-आक़िल

    कि बुत अज़ रू-ए-हस्ती नीस्त बातिल

    बुद्धिमान् मनुष्य! तू इस बात को खूब ध्यान से

    देख ले कि मूर्ति सब से बिलकुल पृथक है या नहीं।

    बदाँ कि हक़-तआ'ला ख़ालिक़-ए-ऊ-अस्त

    ज़े-निको हरचे सादिर गश्त निकूस्त

    मुसल्मान यदि मूर्ति के रहस्य को समझ पाता तो उसके ध्यान में

    यह बात जाती कि धर्म केवल मूर्ति-पूजा ही में है।

    वजूद आँ जा कि बाशद महज़ ख़ैर-अस्त

    अगर शर्रे-अस्त दर वै आँ जे-ग़ैर-अस्त

    यदि मतवाले मनुष्य इस भेद से परिचित होते

    तो वह धर्म की दुहाई देते।

    मुसलमाँ गर ब-दानिस्ते कि बुत चीस्त

    ब-दानिस्ते कि दीं दर बुत परस्ती-अस्त

    उसने मूर्ति के केवल काट-छाँट को उसके प्रकट आकार को ही

    देखा है। इसी कारण धर्म ग्रन्थों के अनुसार वह विधर्मी बन गया।

    अगर मुशरिक ज़े-बुत आगाह गश्ते

    कुजा दर दीन-ए-ख़ुद गुमराह गश्ते

    तू भी, यदि मूर्ति के छिपे हुए रहस्य को समझेगा तो

    तू भी धर्म ग्रन्थ मे सच्चा धर्म वाला कहलाएगा।

    न-दीद दर बुत इल्ला ख़ल्क़-ए-ज़ाहिर

    बदाँ इल्लत शुद अंदर शरअ' काफ़िर

    माला फेरने, पूजा करने और धर्म ग्रन्थों का अध्ययन

    कर लेने ही से एक विधर्मी धर्मात्मा नहीं हो सकता है।

    तू हम गर ज़ू बीनी हक्क़-ए-पिनहाँ

    ब-शराअ' अंदर ख़्वानंदत मुसलमाँ

    जिस मनुष्य ने नास्तिकता के वास्तविक रूप को

    समझ लिया है वह मज़हब से बिल्कुल पृथक हो गया है।

    ब-तस्बीह-ओ-नमाज़-ओ-ख़त्म-ए-क़ुरआँ

    नगर्दद हरगिज़ ईं काफ़िर मुसलमाँ

    प्रत्येक शरीर में एक प्राण छिपा हुआ है और

    नास्तिकता के पर्दे में एक प्रकार की आस्तिकता अन्तर्हित हो रही है।

    ज़े-इस्लाम-ए-मजाज़ी गश्त: बेज़ार

    अगर कुफ़्र-ए-हक़ीक़ी शुद पदीदार

    ईश्वरीय पवित्रता उसके गुणों का बखान करना ही सच्चा धर्म है

    आस्तिकता है। उसके विरुद्ध करना ही नास्तिकता है।

    दरून-ए-हर-तन-ए-जाने अस्त पिन्हाँ

    ब-ज़ेर-ए-कुफ़्र ईमाने अस्त पिन्हाँ

    पाषाण प्रतिमा के मुख को इतना सुन्दर किसने बनाया?

    यदि भगवान् की इच्छा होती तो मूर्तिपूजक होता ही कौन?

    हमेश: कुफ़्र दर तस्बीह-ए-हक़ अस्त

    इन-मिन-शैइन गुफ़्त ई-जाँ चे दक़ अस्त

    वही कहने वाला और वही करने वाला था। उसके अतिरिक्त किसी दूसरे का हाथ इसमें

    नहीं था। वह अच्छा है। उसने कहा, सो भी अच्छा है और किया वह भी बुरा नहीं है।

    चे मी-गोयम कि दूर उफ़्तादम अज़ राह

    फज़र-हुम बा'द मा जाअत क़ुल-अल्लाह

    मैं ही इस बात को नहीं कह रहा हूँ, अपितु धार्मिक ग्रन्थ भी

    यही शिक्षा दे रहे हैं कि ईश्वर के रूपों में किसी प्रकार का अधिक अन्तर नहीं है।

    बदाँ ख़ूबी रुख़-ए-बुत रा कि आरास्त

    कि गश्ते बुत-परस्त अर हक़ नमी-ख़्वास्त

    हम कर्द हम गुफ़्त हम बूद

    निको कर्द-ओ-निको गुफ़्त-ओ-निको बूद

    यके बीन यके गोए यके दाँ

    ब-दीं ख़त्म आमद अस्ल-ए-फ़रअ'-ए-ईमाँ

    मन मी-गोयम ईं ब-शिनो ज़े-क़ुरआँ

    तफ़ावुत नीस्त अंदर ख़ल्क़-ए-रहमाँ

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