सवाल - क़दीम-ओ-मोहदिस अज़ हम चूँ जुदा शुद
सवाल
प्रश्न
क़दीम-ओ-मोहदिस अज़ हम चूँ जुदा शुद
कि ईं आलम शुद आँ दीगर ख़ुदा शुद
शाश्वत् और नाशवान एक दूसरे से पृथक क्यों हुए और यह संसार तथा वह ईश्वर क्यों हो गया?
जवाब
उत्तर
क़दीम-ओ-मोहदिस अज़ हम ख़ुद जुदा नीस्त
कि अज़ हस्ती-अस्त बाक़ी दायमा नीस्त
शाश्वत् तथा नाशवान दोनों एक दूसरे से पृथक नहीं है, क्योंकि मृत्यु जीवन से ही उत्पन्न है।
हम: आन-अस्त-ओ-ईं मानिंद-ए-अनक़ा-अस्त
जुज़ अज़ हक़ जुमल: इस्म-ए-बे-मुसम्मा-अस्त
शाश्वत सब कुछ है और यह नाशवान सदैव नष्ट होने वाली वस्तु है। ईश्वर के अतिरिक्त जितने नाम रूप हैं सब नष्ट होने वाले हैं।
अदम मौजूद गर्दद ईं मुहाल-अस्त
वजूद अज़ रू-ए-हस्ती ला-यज़ाल-अस्त
सृष्टि की उत्पत्ति से सत् में किसी प्रकार का विकार नहीं आता। सत् से यह जगत उत्पन्न होता है, परन्तु इसमें और उसमें अन्तर है।
न आँ ईं गर्दद व न ईं शवद आँ
हम: इश्काल गर्दद बर तू आसाँ
न ये वो होगा न वो ये होगा
सारी कठिनाइयाँ तेरे सम्मुख सरल हो जाती हैं।
जहाँ ख़ुद जुमल: अमर-ए-ए'तिबारीस्त
चू आँ यक नुक़्ता कंदर दौर सारीस्त
एक बिन्दु के समान जो घुमाने पर बराबर घूमता रहता है
यह संसार भी एक विश्वास के योग्य विषय है।
ब-रौ यक नुक्ता:-ए-आतिश बगर्दां
कि बीनी दायर: अज़ सुरअ'त-ए-आँ
यदि एक गणना में आजाए तो फिर यह न हो सकेगा कि उसको बहुत सी संख्याओं में से निकाल दिया जावे।
यके गर्दद शुमार आयद ब-नाचार
नगर्दद वाहिद अज़ आ'दाद-ए-बिसयार
ईश्वर के अतिरिक्त और जितनी वस्तुएँ है, उन सबको पृथक कर दे। अपनी बुद्धि द्वारा उसे अलग कर।
हदीस-ए-मा-सिवल्लाह रा रहा कुन
ब-अक़्ल-ए-ख़्वेश आँ रा ज़ाँ जुदा कुन
यदि तुझे उसमें सन्देह है, तो यही तेरे मार्ग का रोड़ा है। अद्वैत में दो का विचार करना ही पथ से विचलित हो जाना है।
चु शक दारी दराँ कीं चूँ ख़याल-अस्त
कि बा वहदत दुई ऐ'न-ए-ज़लाल-अस्त
मृत्यु भी जीवन के समान एक ही है और यह सारे भेद भाव केवल एक दूसरे का मिलान करने ही से उत्पन्न हुए हैं।।
अदम मानिन्द-ए-हस्ती बूद यकता
हम: कसरत ज़े-निस्बत गश्त पैदा
मनुष्य रंग बिरंगे संसार में आकर चौकड़ी भूल जाता है। इसी से यह सम्पूर्ण भिन्नता उत्पन्न होती है।
ज़ुहूर-ए-इख़्तिलाफ़-ओ-कसरत-ए-शाँ
शुद-ओ-पैदा चे बू-क़लमून-ए-इम्काँ
जब कि प्रत्येक का अस्तित्व समान था तो फिर ईश्वर के एक होने का साक्षी और कौन हो सकता है?
वजूद-ए-हर-यके चूँ बूद वाहिद
ब-वहदानीयत-ए-हक़ गश्त शाहिद
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